Call Now : 9302101186, 9300441615 | MAP
     
Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna Indore is the only Mandir controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Indore. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
arya samaj marriage india legal
all india arya samaj marriage place

भद्र की प्राप्ति

3म्‌ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद्‌भद्रं तन्न आसुव।। यजुर्वेद 30.3।।

    अन्वय- हे देव सवितः विश्वानि दुरितानि परा सुव। यद्‌ भद्रम्‌ (स्यात्‌) तत्‌ नः आसुव।।

    अर्थ- (देव सवितः) हे प्रेरक देव! (विश्वानि) सब (दुरितानि) बुराइयों को (परा सुव) दूर कीजिए। (यत्‌) जो (भद्रम्‌) (स्यात्‌) कल्याणकारक वस्तु हो (तत्‌) वह (नः) हमारे लिए (आसुव) दिलाइए।

    व्याख्या- यह ऋषि दयानन्द का प्रियतम मन्त्र है। अपने वेदभाष्य के प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में ऋषि ने इसी मन्त्र से ईश्वर से सहायता के लिए प्रार्थना की है और प्रत्येक मतमतान्तर का मानने वाला मनुष्य इस मन्त्र से बिना संकोच के प्रार्थना कर सकता है। इस प्रकार की प्रार्थना सब प्रकार की साम्प्रदायिकताओं से मुक्त है। सभी "दुरित' से बचना चाहते हैं और "भद्र' को ग्रहण करना चाहते हैं।

    इस मन्त्र में तीन विशेष शब्द हैं जिनके अर्थ विचारणीय हैं। एक "सविता', दूसरा "दुरित' और तीसरा "भद्र'। प्रार्थना का अर्थ है प्र+अर्थना। "प्र' का अर्थ है "प्रकर्षेण' तेजी से विशेष उत्कण्ठा से। अर्थना का अर्थ है मांगना। प्रार्थी उसी वस्तु को उत्कण्ठा से मॉंगता है जिसका मूल्य उसको ज्ञात होता है और जिसको पा जाना उसकी शक्ति के भीतर है। भूखा भिखारी रोटी मांगता है, अमेरिका के राज की प्रधानता नहीं चाहता। अज्ञात या अप्राप्य वस्तु की कल्पना हो सकती है, कभी-कभी इच्छा भी, परन्तु इसको प्रार्थना नहीं कर सकते। प्रार्थना के लिए आन्तरिक उत्कण्ठा या विह्वलता आवश्यक है। उसके लिए यह जानने की आवश्यकता है कि वह क्या वस्तु है जिसकी हमको मॉंग है? बच्चा भूख से व्याकुल होकर चिल्लाता है। यह उसकी सबसे सच्ची प्रार्थना होती है।

    "अर्थ' बिना समझे "प्रार्थना' करना अपने को धोखा देना है। जिस वस्तु को तुम जानते ही नहीं उसको प्राप्त करने की इच्छा ही कैसे हो सकती है और यदि वह वस्तु प्राप्त भी हो जाए तो उससे तुमको क्या लाभ हो सकता है? संसार में लोग "मोक्ष' या "स्वर्ग' के लिए सबसे अधिक प्रार्थना करते हैं। वे नहीं जानते कि मोक्ष क्या वस्तु है या स्वर्ग कैसा और कहॉं है। इसलिए ऐसी अज्ञात प्रार्थनाएं मोक्ष के स्थान में बन्ध और स्वर्ग के स्थान में नरक की प्राप्ति ही कराती हैं। इसलिए प्रार्थी को "दुरित' और "भद्र' के अर्थों को जानना चाहिए।

    दुरित=दुः इत। 'इण्‌ गतौ' से "क्त' प्रत्यय करके "इत' बना। "इत' में "दुः' लगा देने से "दुरित' बना। सायण ने "दुरितम्‌' का अर्थ किया है- "अज्ञानात्‌ निष्पन्नम्‌' (ऋग्वेद भाष्य 1.23.22) और "दुरितानि' का "पापानि' (ऋग्वेद भाष्य 1.27.5)। आप्टे ने "दुरित' का अर्थ किया है ऊळषषळर्लीश्रीं (कठिन), डळपर्षीश्र (पाप) र लरव र्लेीीीश (बुरा मार्ग)। धातु और प्रत्यय पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि मार्ग में जो कुछ बाधाएँ उपस्थित होती हैं वे सब "दुरित' हैं। आप कहीं पर पहुँचने के लिए कोई मार्ग खोजते हैं। यदि मार्ग अच्छा है तो यात्रा सुगम होती है। परन्तु मार्ग में कॉंटे हों तो यह "दुरित' है। यदि र्ईंट-कंकड़ के रोड़े हों तो यह दुरित है। यदि उबड़-खाबड़ हो तो यह दुरित है। यदि झाड़-झंखाड़ हो तो यह दुरित है। यदि बीच में नदी-नाला आ जाए तो यह दुरित है। यदि आपके पैरों में थकावट आ जाए और आपको यात्रा के बीच में ही बैठ जाना पड़े तो यह दुरित है। यदि मार्ग में डाकू मिल जाएँ तो यह दुरित है। सारांश यह कि आपकी जीवन यात्रा में जो बाधाएँ पड़ती हैं वे सब दुरित हैं। मंजिल एक है, मार्ग भी एक है, परन्तु बाधाएँ अर्थात्‌ दुरित बहुत सी हैं।

    आपकी जीवन यात्रा आपके जन्म से आरम्भ होती है। आरम्भ से ही "दुरित' भी आ उपस्थित होते हैं। शैशव काल के अनेक रोग आपके मार्ग को रोकते हैं, यह "दुरित' है। बड़े होने पर जिस कार्य में आप हाथ डालते हैं उसी में कोई न कोई बाधा आ जाती है- कभी आपकी अविद्या, कभी आपका प्रमाद, कभी आपका लोभ, कभी किसी बाहरी शक्ति का विरोध। ये सभी तो "दुरित' हैं, और इनमें यदि एक छोटा सा भी दुरित शेष रह गया तो आपकी जीवन यात्रा असम्भव हो सकती है। आपका समस्त शरीर सुदृढ़ और रोगरहित हो, केवल पैर की सबसे छोटी अँगुली के एक किनारे पर सरसों के बराबर फोड़ा जाए, आप देखेंगे कि आपका सारा काम ठप्प हो जाएगा। यदि आप राजा हैं और आपने अपने किले की दीवारें बहुत चौड़ी और मजबूत बनाई हैं जिनको तोड़ना किसी भी शत्रु की शक्ति से बाहर है और यदि आपके किले के कई मील के सुदृढ़ घेरे में एक स्थान पर एक हाथ की लम्बाई में एक कमजोर जगह छूट गई तो उस हाथभर जगह में होकर भी शत्रु का प्रवेश हो सकता है तथा आपका साम्राज्य एक क्षण में अस्त-व्यस्त हो सकता है। इसीलिए वेद में "दुरितानि' के साथ "विश्वानि' विशेषण लगाया गया। आप जब भगवान्‌ से "दुरितों' के दूर करने की प्रार्थना करते हैं तो "विश्वानि' पर विशेष बल है।

    यद्‌ भद्रम्‌- जो भद्र या कल्याणकारक हो! भद्र क्या है? दुरितों का दूर करना ही भद्र है। महामुनि गोतम ने न्यायदर्शन (1.1.21,22) के दो सूत्रों द्वारा इस रहस्य को समझाया है। बाधनालक्षणार्थ दुःखम्‌, तदत्यन्तविमोक्षो अपवर्गः। अर्थात्‌ रुकावट ही दुःख है और दुःख को ही "दुरित' कहते हैं। (दु+ख=दुःख, दुः+इत=दुरित) "ख' नाम "इन्द्रिय' का है और "आकाश' का भी। आकाश में ही गति सम्भव है। इन्द्रियॉं भी आकाश में ही गतिवती हो सकती है। जिन वस्तुओं द्वारा इन्द्रियों की नैसर्गिक प्रगति में रुकावट होती है वही दुःख है, वही दुरित है, उससे "अत्यन्तविमोक्ष' का नाम अपवर्ग है अर्थात्‌ कोई रुकावट शेष न रह जाए। रुकावटों के निःशेष होने पर जो स्थिति होगी, वही "भद्र' है। उसी की प्राप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है।

    इस मन्त्र में ईश्वर को "देव सवितः' कहकर पुकारा गया है। "सविता' (सवितृ) शब्द के अर्थों पर विशेष विचार करना है। "सविता' का सम्बन्ध "परासुव' और "आसुव' दोनों से है, क्योंकि ये तीनों शब्द एक ही धातु "षू' के सूचक हैं। "सविता' का अर्थ है"प्रसविता' अर्थात्‌ प्रेरक। अर्थात्‌ प्रेरक। मोनियर विलियम्स ने अपने "बृहद्‌ संस्कृत कोश' में "सव' का अर्थ दिया है ''जपश ुहे ीशींी ळप ोींळेप, ळाश्रिशश्री, रप ळपीींळसरींेी, र ीींर्ळाीश्ररींेी.'' सविता का अर्थ दिया है- र ीींर्ळाीश्ररींेी, र्ीेीीशी, र्ींर्ळींळषळशी. हमने ये अंग्रेजी अर्थ इसलिए दिये हैं कि साधारण हिन्दी भाषा में हम सब प्रसव, सविता, प्रसविता के मुख्य धात्वर्थ की उपेक्षा कर जाते हैं। ऋग्वेद के पॉंचवें मण्डल के 82वें सूक्त में 9 मन्त्र हैं। उन सबका देवता "सविता' है और हर मन्त्र में सविता के साथ "षू' धातु के किसी-न-किसी रूप का प्रयोग हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि "सविता' और उसके सम्बन्धी "परासुव' और "आसुव' विशेष अर्थों के सूचक हैं।

    परमात्मा के जितने नाम वेदों में अथवा अन्यत्र गिनाये गये हैं उन सबका सम्बन्ध प्राणिवर्ग से है। "नाम' होता ही इसलिए है कि नाम लेने वाला "नामी' के साथ अपना सम्बन्ध निर्धारित कर सके। जिसका किसी के साथ सम्बन्ध नहीं उसके नाम व संज्ञा की आवश्यकता नहीं। संज्ञायते अनया संजानते अनया वा सा संज्ञा। जिसके द्वारा ज्ञान हो सके वह संज्ञा है। ज्ञान के लिए ज्ञाता या चेतन जीव की आवश्यकता है। जीव और ईश्वर के सम्बन्ध अनन्त हैं। महाभाष्य में मुनिवर पतञ्जलि ने लिखा है- एकशतं षष्ठ्‌यर्थाः (1.1.48) अर्थात्‌ सम्बन्ध तो सैकड़ों होते हैं। विशेष अवस्था में विशेष सम्बन्ध को बताने की आवश्यकता होती है। परमात्मा "सविता', "प्रसविता' या प्रेरक है, इसका क्या अर्थ है?

    संकुचित अर्थ में "सविता' सूर्य को भी कहते हैं। सूर्य भी प्रसविता या प्रेरक है। रात के व्यतीत होने पर सूर्य की किरणें जब वस्तुओं पर पड़ती हैं तो हर पदार्थ के भीतर एक प्रकार की प्रेरणा या जागृति उत्पन्न हो जाती है। सूर्य किसी नई चीज का उत्पादन नहीं करता। पदार्थों में जो शक्तियॉं निहित थीं, वे ही जाग उठती हैं, नया जीवन आ जाता है। कोई भी मनुष्य प्रातःकाल अपने जीवन में सूर्य के प्रकाश से आई हुई इस जागृति का अनुभव कर सकता है। अन्य प्राणधारी, या वनस्पति आदि जड़ पदार्थ भी इस बात के द्योतक हैं। सूर्य की किरणें यदि गुलाब पर न पड़तीं तो गुलाब न खिलता। सूर्य की किरणें गुलाब नहीं हैं, सूर्य का और गुलाब का कारण कार्य का सम्बन्ध नहीं है, सूर्य से गुलाब नहीं बना, न गुलाब बिगड़कर सूर्य में विलीन होगा, परन्तु गुलाब की आन्तरिक बीजरूप अविकसित शक्तियों को विकास करने को उद्यत करने में सूर्य की किरणें प्रेरक हैं। उनके द्वारा भीतर से कुछ ऐसा परिवर्तन होता है कि गुलाब के समस्त अन्तर्निहित गुण अव्यक्त से व्यक्त हो जाते हैं। दूसरा दृष्टान्त आप विद्युत का ले सकते हैं। विद्युत तरंग को भी सविता या प्रेरक कह सकते हैं। एक ही विद्युत कोष से भिन्न-भिन्न यन्त्रों को प्रेरणा मिलती है और वे प्रगतिशील हो जाते हैं। आटे की चक्की आटा पीसने लगती है, लकड़ी काटने की मशीन लकड़ी काटने लगती है, छापेखाने की मशीन छापने लगती है। मशीनें अलग-अलग हैं, परन्तु प्रेरणा सबको उसी विद्युत तरंग से मिलती है।

    इन लौकिक उदाहरणों की आन्तरिक भावनाओं पर विचार कीजिए और फिर उनको इस मन्त्र में प्रयुक्त "सविता' शब्द पर घटाइए।

    परमात्मा किसी प्राणी को बलात्‌ आज्ञा नहीं देता कि तुम ऐसा करो, तुम ऐसा मत करो। प्रायः धार्मिक क्षेत्रों में ऐसी धारणा है कि ईश्वर जो चाहता है प्राणियों से कराता है, परमात्मा जिसको चाहता है ठीक मार्ग पर लगाता है, जिसको चाहता है गुमराह कर देता है। यदि ईश्वर इसी प्रकार अपनी आज्ञाओं को बलात्‌ जीवों पर थोपता तो जीवों की प्रार्थना व्यर्थ जाती। किसका सामर्थ्य था कि वह ईश्वर के आदेशों को टाल सके! किसी ने कहा है कि- जाको प्रभु दारुण दुःख देंही। वाकी मति पहले हरि लेंही।

    कुरान में बार-बार दुहराया गया है कि अल्लाह जिसको चाहता है ठीक मार्ग पर लगाता है और जिसको चाहता है गुमराह करता है। यदि परमात्मा की इच्छा ही है कि संसार में दुरित रहें तो दुरितों के दूर करने और उनके स्थान में "भद्र' प्राप्त कराने का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु परमात्मा के लिए इस प्रकार की भावना वैदिक भावना नहीं है। परमात्मा किसी जीव को किसी विशेष कार्य के लिए मजबूर नहीं करता। सूर्य की किरणें जब मिर्च के बीज पर पड़ती है और साथ ही साथ उसके पास ही बोये हुए गाजर के बीज पर पड़ती हैं तो उनकी प्रेरणा तो दोनों के लिए होती है, परन्तु मिर्च का बीज तो मिर्च बनाता है और गाजर का गाजर। एक में कड़वापन, दूसरे में मीठापन! किरणें न कड़वापन उत्पन्न करती हैं न मीठापन। केवल प्रेरणा देती हैं।

    जिस प्रकार सूर्य की किरणें पदार्थों को जागृति देती हैं उसी प्रकार आस्तिक्य-भावना भी प्रत्येक प्राणी के भीतर जागृति उत्पन्न कर देती है। वही स्फूर्ति "दुरितों' के निराकरण के लिए शक्ति प्रदान करती है। रोग के कीटाणु स्वस्थ शरीर पर भी आक्रमण करते हैं और रुग्ण शरीर पर भी। परन्तु स्वस्थ शरीर स्वस्थता की सहायता से आक्रमण करने वाले कीटाणुओं को नष्ट कर देता है। जैसे पत्थर पर पड़ी हुई जलती हुई दियासलाई। दियासलाई बुझ जाती है, पत्थर ज्योें का त्यों रह जाता है। वही दियासलाई फूँस के ढेर पर पड़कर भड़क उठती है। एक अस्वस्थ शरीर विशूचिका के कीटाणु को लेकर न केवल स्वयं ही मृत्यु का ग्रास बनता है अपितु अन्य शरीरों को भी अपने साथ नष्ट कर देता है। आस्तिक मनुष्य और आस्तिक्यहीन मनुष्य के आत्मा में यही भेद है। दुरित तो अपने आक्रमण सभी पर करते हैं। परन्तु जो प्रार्थी दुरितों की प्रकृति को समझता हुआ परमात्मा की प्रेरणा से अपने को सुसज्जित पाता है उसके दुरित शीघ्र पराजित हो जाते हैं, सबल होते हुए भी प्रभाव शून्य हो जाते हैं, उनकी प्रगति कुण्ठित हो जाती है।

    जो मनुष्य परमात्मा के सवितृ-भाव को न समझकर परमात्मा से वस्तुविशेष की मॉंग करते हैं उनकी प्रार्थना निष्फल जाती है। परमात्मा मुफ्त में किसी को सदावर्त या खैरात नहीं बॉंटता। प्रायः धनाढ्‌य लोग खैरात में बहुत से भिखारियों को मुफ्त भोजन देते हैं। इससे दानियों को ख्याति तो प्राप्त हो जाती है परन्तु भिखारियों के सामर्थ्य में कोई भेद नहीं पड़ता। यदि वे धनाढ्‌य खैरात न बॉंटकर केवल प्रेरणा करें तो वे ही भिखारी थोड़े दिनों में अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं और दूसरों को प्रेरणा करने के योग्य बन सकते हैं। वैदिकविधि से "सविता' के प्रेरकत्व को समझता हुआ "प्रार्थी' भिखारी नहीं है। वह मुफ्त कोई चीज नहीं मॉंगता। वह ईश्वर के प्रेरकत्व पर विश्वास करके दुरितों को दूर करने का सामर्थ्य चाहता है। दुरितों का दूर करना ही भद्र की प्राप्ति है। रोग का पराभव ही शक्ति का संचार है। ज्यों-ज्यों पाप की भावना कम होती है, कल्याण की भावना उत्पन्न हो जाती है। -गंगाप्रसाद उपाध्याय 

दिव्ययुग अक्टूबर 2011 इन्दौर, Divyayug October 20011 Indore

 

जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
गायत्री से सुप्रेरणा, बुद्धि प्राप्ति व दुःख निवारण
Ved Pravachan - 44 (Explanation of Gayatri Mantra) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

 

Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of  Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri  Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang  | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव

pandit requirement
Copyright © 2022. All Rights Reserved