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युवकों से वेदवाणी का राष्ट्रभक्ति का आह्‌वान

किसी भी परिवार, समाज या राष्ट्र के प्राण युवक होते हैं। यद्यपि वृद्धजन राष्ट्र के प्रेरक और सन्मार्गदर्शक अवश्य होते हैं, किन्तु राष्ट्र में जीवनीशक्ति एवं स्फूर्ति को सतत जाज्वल्यमान रखने की क्षमता युवकों में ही होती है। युवकों के गर्म खून में वह शक्ति होती है, जिससे वे किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। युवकों को यदि कुमति प्रदान कर कुमार्ग की ओर मोड़ दिया जाता है तो वे विनाश एवं विध्वंस कर बैठते हैं, और यदि उन्हें सुमति प्रदान कर सन्मार्ग की ओर अग्रसर किया जाता है तो वे विकास एवं सृजन के कीर्ति-स्तम्भ बन सकते हैं। इसीलिए तो पुरातन काल में वयोवृद्ध अनुभवगम्य विद्वज्जन 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत' उठो, जागो और श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त करो की प्ररेणा युवकों को प्रदान करते थे।

वेदवाणी ने युवकों को जो उत्प्रेरणा पुरातन वैदिककाल में दी थी, वही आज के वर्तमान युग में भी उपादेय है। युवकों को उद्घोष है-

कृतम्‌ मे दक्षिण हस्ते जयो मे सव्य आहितः।

गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनंजयो हिरण्यजित्‌॥ (अथर्ववेद-7.50.8)

मेरे दायें हाथ में कर्म और बायें हाथ में विजय है। इस कर्मरूपी जादू की छड़ी को हाथ में लेते ही गौ, घोडे, वन, धन-धान्य एवं स्वर्ण सभी कुछ मुझे प्राप्त हो जाएगा।

यह वेद-मन्त्र स्पष्ट रूप से यही सन्देश देता है कि यदि युवकों को धन-धान्य एवं स्वर्ण को प्राप्त करना है, तो उन्हें कर्मनिष्ठ होना पड़ेगा। अपनी व्यक्तिगत सम्पन्नता तथा राष्ट्र की ऐश्वर्य-शीलता, दोनों के निमित कर्मपरायणता परमावश्यक है। व्यक्तिगत सम्पदा तभी सुरक्षित रह सकती है, जब राष्ट्रीय सम्पन्नता भरपूर हो। राष्ट्र के ऐश्वर्यशाली होने पर व्यक्तिगत आत्म-निर्भरता तो स्वयं उत्पन्न हो जाती है। निर्धन राष्ट्र में कतिपय परिवार धनी-अतिधनी हो सकते हैं, पर उन्हें शाश्वत सुख एवं शांति प्राप्त हो सके, यह आवश्यक नहीं है। यदि व्यक्ति को स्थायी समृद्धि एवं शान्ति की कामना है, तो पहले उसे राष्ट्र को समृद्ध करना होगा। राष्ट्र की समृद्धि के बोधक तत्वों का विशद वर्णन हमें यजुर्वेद में मिलता है।

वैदिक युगीन नागरिक स्वयं संकल्प करता हुआ परमात्मा रूपी आदि शक्ति का स्मरण करते हुए अभिलाषा व्यक्त करता है, हे प्रभु, हमारे राष्ट्र में सर्वत्र वेद-विद्या से प्रकाश को प्राप्त सुयोग्य ब्राह्यण उत्पन्न हों। बड़े-बड़े रथ, शत्रुओं को जीतने वाले अत्यन्त बलवीर निर्भय राजपुत्र हों। कामनाओं एवं दुग्ध से पूर्ण करने वाली भूमि एवं धेनु हों। भार ढोने में समर्थ बड़े बलवान बैल हों। शीघ्र गमनशील घोड़े हों। प्रभूत उत्तम व्यवहारों को धारण करने वाली नारियां हों। रथ पर स्थिर रहकर शत्रुओं पर विजय पाने वाले तथा सभाओं में उत्तम सभ्य सभासद का व्यवहार करने वाले युवा हों। हमारे राष्ट्र का शासक विद्वानों वाले तथा सभाओं में उत्तम सभ्य सभासद का व्यवहार करने वाले युवा हों। हमारे राष्ट्र का शासक विद्वानों का सत्कारकर्ता, सुख-प्रदाता और शत्रु-विनाशक हो। हम लोग जिन योजनाओं की परिकल्पना करें वे सभी निश्चयपूर्वक सफल हों। हमारे राष्ट्र में पर्जन्य मेघ की वर्षा हो, बहुत उत्तम फलवाली औषधियां परिपक्व हों। योगक्षेम अर्थात जो वस्तुयें भूगर्भ, सागर या आकाश में हैं किन्तु अप्राप्त हैं, उन्हें प्राप्त कराने वाले योग की रक्षा हो। हमारा राष्ट्र अपने निर्वाह के योग्य पदार्थों की प्राप्ति में समर्थ हो (यजुर्वेद 22.22)

यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि इस मन्त्र में जिन शब्दों को जीवन्त किया गया है, वे किसी रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, जैसा कि बहुधा इनके साथ होता है। आज ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि शब्दों को जन्म के आधार पर जाति-विशेष से सम्बद्ध कर दिया गया है, किन्तु यहां पर ऐसा नहीं है। जो ज्ञान-विज्ञान का अनुसंधान एवं प्रसारण करता है वही ब्राह्मण है और जो राष्ट्र की रक्षा करने में बलपूर्वक अनवरत संलग्र रहता है, वही क्षत्रिय है। अश्व शक्ति राष्ट्र के परिवहन की प्रतीक है तथा धेनु उसकी पोषण-क्षमता की परिचायक है। बैल या वृषभ भी उस शक्ति का द्योतक है, जिसे राष्ट्र के पदार्थों वितरण की दृष्टि से एक स्थान से दूसरे स्थान पर यातायात के लिए प्रयुक्त किया जाता है तथा जो कृषि-कार्यों का आधार है। नारी भी राष्ट्र का एक अंग है जिसका सुयोग्य एवं समर्थ होना परमावश्यक है। क्योंकि संतान के निर्माण एवं उत्थान का भार इसी गृह-शक्ति पर है।

इस मन्त्र में युवाओं के लिए विशेष सन्देश है। इसमें कहा गया है कि युवा शूरवीर एवं शक्तिशाली हों, किन्तु वे सभा में जाने योग्य सभ्य भी हों, उनमें उच्छृंखलता का प्राबल्य न हो। यह ऐसा राष्ट्रगान है, जो राष्ट्र को सर्वतोमुखी समृद्ध एवं वैभव सम्पन्न बनाने का व्याख्यान करता है।

युवक राष्ट्र की वह निधि हैं जो निरन्तर गतिशील, उन्नतिशील एवं जागृतिशील इच्छाशक्ति द्वारा राष्ट्र की वसुन्धरा को स्वर्गादपि गरीयसी बना देते हैं, क्योंकि उनमें निहित सामर्थ्य का वेदवाणी आह्‌वान करती है-

श्रमेण तपसा सृष्टा ब्रह्मणा वित्तर्ते श्रिता।

सत्येनावृता श्रिया प्रावृता यशसा परीवृता ॥ (अथर्ववेद-12.4.12)

ज्ञान-विज्ञान का अनुसंधान एवं समस्त लक्ष्यों की उपलब्धि, श्रम, प्रयत्न, तप, धर्मानुष्ठान के द्वारा प्राप्त की जाती है। इन ध्येयों की प्राप्ति कर्मनिष्ठ ब्रह्मचारी द्वारा साधित सत्यज्ञान में ठहरी है। यहां पर ब्रह्मचारी से तात्पर्य युवकों से ही तो है। श्रम एवं तपश्चर्या युवकों के भूषण हैं। युवक जब उच्च् गुणों से आवृत हो जाता है तो श्रम, तप, सत्य, श्री तथा यश उसके अनुवर्ती हो जाते हैं। तभी श्रेष्ठ मानव समुदाय उत्कृष्ट राष्ट्र का द्योतक होता है। प्राचीन काल में इन शक्तियों एवं साधनों पर हमारा नियन्त्रण था, तो हमारा राष्ट्र विश्व-गुरु था, अग्रणी था। जब इन उद्देश्यों को उपेक्षित कर दिया गया, तब हम पतनोन्मुख हो गए। अब भी हम इन ध्येय बिन्दुओं को सम्भाल करके सर्वोत्कृष्ट पद प्राप्त कर सकते हैं।

वैदिककाल में जीवेम शरदह्न शतम्‌ अर्थात्‌ सौ वर्ष तक सक्षम सामान्य जीवन की कल्पना की गई थी । यद्यपि कतिपय ऋषि-मुनिजन इससे भी लम्बा जीवन पाते थे। इस सौ वर्ष के काल को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, द्वितीय 25 वर्ष गृहस्थ आश्रम, तृतीय 25 वर्ष वानप्रस्थ और अन्तिम 25 वर्ष को संन्यास आश्रम की संज्ञा दी गई है। इन आश्रमों के अर्थ बहुत व्यापक तथा वैज्ञानिक होते थे । जबकि आज इनको संकीर्ण अर्थ में सीमित कर दिया गया है। कोई भी आश्रम मात्र सुख-भोग या विलास की वस्तु न होकर पूर्णरूपेण स्वश्रम पर आश्रित या आत्मनिर्भर होता था। ब्रह्मचर्य का केवल अविवाहित रहकर धातुक्षय न करना मात्र अर्थ नहीं है। इसका आशय श्रम-साधना पूर्वक आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान का अर्जन करना है। गृहस्थ आश्रम तब प्रारम्भ होता है, जब तरुण सातक अपनी सहधर्मिणी के साथ राष्ट्र कल्याण के कार्य में जुट जाता है। शेष सभी आश्रम इसी एक आश्रम पर आश्रित रहते हैं। वानप्रस्थ वह काल है जब गृहस्थ पर्याप्त दायित्वों से निवृत्त हो जाता है और वन की ओर प्रस्थान करता है। अर्थात्‌ गृह से बाहर जाकर अपने अनुभवों का प्रसारण करता है। उसके कुछ दायित्व शेष भी रह जाते हैं, इसलिए उसका अपने परिवार से भी किंचित नाता जुड़ा रहता है । किन्तु संन्यास काल आते-आते वह अपने सारे पारिवारिक कर्तव्यों से अवकाश पा लेता है और यत्र-तत्र भ्रमण कर समाज व राष्ट्र में जागरण के मन्त्र फूंकता है। यदि हमने अपनी पुरातन प्रणाली का पालन किया होता तो हम आज की बहुत सी कठिनाइयों से मुक्ति पा सकते थे। जैसा कि अभी स्पष्ट किया है कि उपरोक्त चार में से तीन आश्रम मात्र गृहस्थ आश्रम पर निर्भर रहते हैं। यही आश्रम युवकों का आश्रम है। इस प्रकार युवक राष्ट्र की रीढ़ हैं। इसलिए युवक जब गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था, तो उसे भली भांति समर्थ बना दिया गया होता था। इस विषय में ऋग्वेद का कथन है-

युवा सुवासाः परिवीत आगात्‌ स उ श्रेयान्‌ भवति जायमानः ।

तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो3 मनसा देवयन्त॥ (ऋग्वेद 3.8.4)

ऋग्वेद की ऋचा युवकों के लिए सुन्दर उद्बोधन देती है। युवक विद्यालय से उत्तम विद्या ग्रहण करके प्रसिद्धि प्राप्त करें। आचार्यगण विज्ञान एवं अन्तःकरण से युवक को समुन्नत करते हैं, और वह सुन्दर वस्त्र धारण करता है। इन गुणों से भली भांति युक्त होकर वह गृहस्थ धर्म के कर्त्तव्य पथ पर आरूढ होता है । जो अपेक्षा वैदिककाल में ऋषिगण युवक से करते थे वही आज भी करते हैं। आज युवक में सुन्दर वस्त्र धारण करने की रूचि अपार होती है, यदि उतनी ही रूचि विद्या के ग्रहण करने में हो तो वह यश एवं श्री से विभूषित हो जाता है।

इसी प्रकार अथर्ववेद में युवकों को ऐसे कर्म करने का आदेश दिया गया है, जिससे वह स्वयं तो महान्‌ बने ही अपितु अपने माता-पिता को भी गौरव प्रदान करे। (अथर्ववेद 10.92.12)

इसी भावना को यजुर्वेद भी अपना समर्थन प्रदान करता है-

आ न इडामिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु।

अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा॥ (यजुर्वेद 33.34)

इस मन्त्र में युवकों को वेदवाणी का सम्बोधन है। उनसे राष्ट्र के नेतृत्व का आग्रह है, सूर्य-सदृश प्रकाशमान, मृदुलवाणी के व्यवहार की अपेक्षा है। सन्तान एवं राष्ट्रीय सम्पदा की स्त्रोत गौ आदि उन्हें प्राप्त हों। आनन्दित होने के साथ-साथ सुशिक्षित युवक समाज के सभी घटकों की बुद्धियों का शुद्धिकरण करते रहें। वैदिक युग में युवकों से वेद की यही अपेक्षा थी।

यदि आज भी युवजन पथभ्रष्ट न होकर ज्ञान-विज्ञान एवं विविध विद्याओं को ग्रहण कर लें तो वे समाज को निस्सन्देह सुख-सम्पन्न करते हुए राष्ट्र की अस्मिता को देदीप्यमान कर सकते हैं।

ऐसे ही गुणी युवकों से वेदवाणी की आकांक्षा है-

अर्चत प्रार्चत प्रियमेधासो अर्चत।

अर्चन्तु पुत्रका उत पुरं धृष्ण्वर्चत्‌॥ (अथर्ववेद-20.92.5)

हे प्यारी हिताकारिणी बुद्धि वाले पुरुषो। निर्भय गढ़ के समान उस परमेश्वर एवं स्वराष्ट्र को पूजो। अच्छी प्रकार पूजो। स्वयं पूजो, और तुम्हारी गुणी सन्तानें पूजें। यहां पर पुर या गढ़ राष्ट्र का प्रतीक है, जिसे निर्भय रखते हुए उसकी पूजा का आदेश युवकों को दिया गया हैं। पूजा का अर्थ सम्मानपूर्वक उसकी आवश्यकताओं को पूर्ति करना है। इस प्रकार जो वेदमन्त्र यहां प्रस्तुत किये गए हैं, वे युवकों को निरन्तर चरैवेति चरैवेति कहते हुए आगे बढ़ने का आह्‌वान करते हैं और अपने प्रिय राष्ट्र को क्षण-क्षण बढ़ाने का सन्देश देते हैं। काश ! युवजन वेदवाणी के इस अमर आह्‌वान पर ध्यान देकर इसे चरितार्थ करें। लेखक- पं. देव नारायण भारद्वाज

 

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वैदिक संस्कृति में तलाक का विधान नहीं।
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