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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna Indore is the only Mandir controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Indore. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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राष्ट्र शक्तिशाली कब बनता है-2

3म्‌ भद्रमिच्छन्त ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरगे्र।

ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ।। अथर्व.19411

शब्दार्थ-(स्वर्विद:) सुख-शान्ति को जानने और प्राप्त करनेवाले (ऋषय:)ऋषियों  ने (अग्रे) सर्वप्रथम (तप:) सुखदु:खादि द्वन्द्वसहन की क्षमता (दीक्षाम्‌) नियमव्रतादि को (उपनिषेदु:) ग्रहण किया । (तत:) उस तप और दीक्षा के आचरण से (राष्ट्रम्‌) राष्ट्रीयभावना (बलम्‌) राष्ट्रीय बल (ओजश्च) और ओज-राष्ट्रीय प्रभाव तथा रौब (जातम्‌) उत्पन्न हुआ (तत्‌) इसलिए (अस्मै) इस राष्ट्र के सम्मुख (देवा:) देव भी शक्ति-सम्पन्न भी (उपसंनमन्तु) झुकें, उचित रूप से सत्कार करें ।

व्याख्या- मन्त्र में मुख्य रूप से एक ही विचार दिया गया है कि देश को राष्ट्र का रूप देकर उसे शक्ति-सम्पन्न और गौरवास्पद बनाने के लिए आवश्यक है कि देशवासी तपस्वी और दीक्षित बनें । इन मुख्य गुणों के आचरण से देश में अतुलबल का उद्‌भव होगा और उसके ओजस्वी स्वरूप को देखकर बड़े-बड़े राष्ट्र उसके सम्मुख नतमस्तक होंगे ।

अब इस पर विस्तार से विचार कीजिये । बड़े संघर्ष, त्याग, तप और बलिदानों के बाद लगभग एक हजार वर्ष के पश्चात्‌ 15 अगस्त सन्‌ 1947 को हमारा देश स्वाधीन हुआ ।

स्वतन्त्रता का जो ब्राह्यरूप देखने में आया और जिसका बहुधा प्रचार भी किया गया, वह यह है कि अंग्रेजों ने अहिंसा के आन्दोलन से प्रभावित होकर देश की प्रभुसत्ता भारतवासियों को हस्तान्तरित कर दी । इसी भ्रम में आकर अनेक वक्ता यह कहते सुने गये और बहुत से लेखकों ने लिखा भी कि भारत ने रक्त की एक बूंद बहाये बिना अपनी स्वाधीनता प्राप्त की । किन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के इतिहास से यह तथ्य पूर्णत: सुस्पष्ट है कि 1857 में मंगल पाण्डे के पावन बलिदान से लेकर 15 अगस्त 1947 तक बलिदानियों की यह इतनी लम्बी पंक्ति है कि उसे देखते हुए यह उचित रूप से कहा जा सकता है कि इन स्वाधीनता के दीवानों ने अपने उष्ण रक्त से दासता की अन्धकारपूर्ण रात्रि को उष:काल के रूप में परिवर्तित किया और उसी के बाद 15 अगस्त सन्‌ 47 को स्वाधीनता का सूर्य उदित हुआ ।

किस-किस प्रकार के महत्त्वपूर्ण बलिदान हुए उसका थोड़ा-सा दिग्दर्शन कराना जहॉं विषय के प्रतिपादन की दृष्टि से उचित है, वहॉं भारत की स्वाधीनता के भव्य भवन की नींव में लगे दृढ पाषाणस्वरूप उन बलिदानियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी अत्यावश्यक है । स्वतन्त्रता के दीप शिखर पर अपने को आहुत करनेवाले इन पतंगों के मन में इतनी महत्त्वाकांक्षा तो चमक ही उठती थी-

शहीदों के मजारों पे लगेंगे हर बरस मेले ।

वतन पे मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा ।।

कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाने के अंगे्रज सरकार के निर्णय को मूर्तरूप देने के लिए तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिर्ंग की दिल्ली के चॉंदनी चौक से हाथी पर सवारी निकल रही थी । सड़कों पर लोगों की अपार भीड़ थी । मकानों की छतें दर्शनार्थी स्त्री-पुरुषों से पटी पड़ी थीं । बहुत आकर्षक और प्रभावपूर्ण दृश्य था । चारों ओर से पुष्प और हारों की वर्षा हो रही थी । इतने में एक क्रान्तिकारी ने फूलों के साथ ही वायसराय के हाथी पर बम फेंक दिया । बम के  फटते ही वायसराय का अंगरक्षक मारा गया । वायसराय मूर्छित हो गये और सारे जुलूस में भगदड़ मच गयी । पुलिस ने सारे चॉंदनी चौक की नाकाबन्दी करके अपराधी की खोज प्रारम्भ कर दी ।

पूरा प्रयत्न करने पर भी अपराधी का कुछ पता न चला। तब सी.आई.डी.की आशंकाओं के आधार पर देश भर  से 113 व्यक्ति गिरफ्तार किये गये । इन पकड़े गये व्यक्तियों में पश्चिमी पंजाब के जेहलम जिले के भल्ला करियाला गांव के एक प्रतिष्ठित परिवार के नवयुवक भाई परमानन्द जी के सहोदर भाई बालमुकुन्द भी थे ।

बालमुकुन्द का विवाह तो हो चुका था, किन्तु मुकलावा(गौना) न हुआ था । बालमुकुन्द की पत्नी का नाम रामरखी था । बालमुकुन्द को गिरफ्तार साथियों के साथ दिल्ली की जेल में जहॉं आजकल मौलाना आजाद मेडिकल कालेज है, एक कालकोठरी में बन्द कर दिया गया । जेल में रामरखी परिवारजनों के साथ अपने पति के दर्शन करने आयी । विवाह के बाद अपने पति को देखने का रामरखी का यह पहला अवसर था । गर्मियों के दिन थे । जेल की कोठरी तंग, घुटनभरी और अन्धकारपूर्ण थी । रामरखी ने अश्रुपूर्ण नयनों से पति को देखकर नमस्ते की और पूछा- "" रात को सोने के लिए क्या और कहीं ले जाते है ?'' बालमुकन्द ने मुस्कराकर उत्तर दिया, "" कैदी हूँ, कोई शाही मेहमान नहीं कि जिसकी सुख-सुविधा के लिए दिन में कहीं और रात में कहीं, विश्राम का प्रबन्ध किया जाए । इसी कोठरी मेंे रात भी काटनी पड़ती है।'' रामरखी ने थोड़ी देर बाद पूछा, ""खाने को क्या देते है ?'' भाई बालमुकुन्द की जेब में आधी रोटी पड़ी थी । उसे रामरखी की ओर बढाते हुए कहा- "ऐसी दो रोटियॉं एक समय में दी जाती हैं ।'' रामरखी ने रोटी अपने दुपट्टे के कोने में बॉंध ली । दिल्ली से लौटकर रामरखी अपनी ससुराल भल्ला कटियाला (जिला जेहलम) गयी । अपने मकान की सबसे तंग कोठरी में घासफूंस बिछाकर अपने पति के समान भूमि पर लेटने-बैठने लग गयी । जेल की रोटी रामरखी ने चखकर देखी। उसमें उसे राख मिली हुई लगी, तो अपने आटे में भी उसने राख मिला ली तथा उतने ही वजन की दो रोटी दोपहर और रात को खानी प्रारम्भ कर दी । जब तक भाई बालमुकुन्द पर केस चलता रहा, रामरखी उसी तपश्चर्यापूर्ण स्थिति में भगवान्‌ का भजन करती रही । अन्त में केस का निर्णय हुआ और बालमुकुन्द को फांसी पर लटका दिया गया ।

यह दारुण और हृदयविदारक समाचार भल्ला कटियाला भी पहुँचा । रामरखी ने अन्न-जल त्याग दिया और ग्यारह दिन तक उसी कोठरी में मौन होकर प्रभु-भजन करती रही । अन्तिम दिन उठकर स्नान किया, वस्त्र बदले, थोड़ा-सा स्थान गोबर से लीपकर स्वच्छ किया और आसन पर बैठकर प्रभु का ध्यान किया । अन्त में अपने पति को सम्बोधित करके कहा, "आज आपको संसार से गये हुए दस दिन बीत गये, आपकी प्रियतमा इससे अधिक आपके वियोग को सहन नहीं कर

सकती ।''  यह कहते हुए एक लम्बे श्वास के साथ उसने अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी ।

 ऐसे तप और दीक्षा की भट्‌टी में तपे हुए व्यक्तियों के बलिदान से स्वतन्त्रता की प्राप्ति हुई है। ऐसे-ऐसे हजारों बलिदानों के बाद यह स्वाधीनता हमें मिली है ।

लोकमान्य तिलक के जीवन की एक घटना का उल्लेख किये बिना नहीं रहा जा रहा । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को भारत से निर्वासित करके मांडले की जेल में बन्द कर दिया गया । "गीतारहस्य' नाम की अमर कृति उसी जेल में लिखी गई । जब वे मांडले की जेल में थे, तभी इधर भारत में उनकी पत्नी सत्यभामा की 55 वर्ष की वय में मृत्यु हो गई । भारत से तार द्वारा यह दुखद समाचार मांडले के जेलर को भेजा गया । मांडले का  जेलर तिलक की विद्वत्ता और आचार-व्यवहार की पवित्रता को देखकर उनका श्रद्धालु भक्त बन गया था । उस तार को पढकर उसे आघात लगा और अपने मन में निश्चय किया कि इस दुखद समाचार को देने के लिए मुझे स्वयं जाना चाहिए तथा उनके दुखी हृदय को सान्त्वना के दो शब्द कहकर धैर्य भी बंधाना चाहिए ।

 जेलर तार का कागज हाथ में पकड़े तिलक के कमरे पर पहुँचा । तिलक   अपने ग्रन्थ के लेखन में व्यस्त थे । जेलर ने तिलक का अभिवादन करके तार का कागज  उनके आगे रख दिया । तिलक ने उसे  पढा और उल्टा करके  सामने की पुस्तक पर रख दिया । तिलक गम्भीर और निस्तब्ध भाव से बैठे रहे । जेलर का अनुमान था कि देश से निर्वासित होने से ही तिलक का हृदय खिन्न है और उस पर भी जीवन साथी का वियोग एक वज्रपात के समान होगा । इस स्थिति में वे बहुत दुखी और विह्णल होंगे, तो मैं उनकी सान्त्वना के लिए दो शब्द कहूँगा । किन्तु वहॉं तो दृश्य ही कुछ और था । जेलर ने आश्चर्य से तिलक की ओर देखकर पूछा- ""आपने इस तार को पढा है ?'' तिलक ने शान्तभाव से उत्तर दिया-""हॉं, मैंने देख लिया है''। जेलर ने कहा,  ""इसमें आपकी पत्नी की मृत्यु का दुखद समाचार है।'' तिलक ने उत्तर दिया, ""हॉं, यही बात है ।'' जेलर ने कहा- "मैंने अपने जीवन में आप जैसा कठोर व्यक्ति नहीं देखा, जिसकी आंखों से अपनी पत्नी के मरने पर दो आंसू भी न गिरें ।'' जेलर के शब्दों ने तिलक को झकझोर डाला । तिलक ने कहा- "मेरे सम्बन्ध में तुम्हारी यह धारणा न्याय नहीं है । मैं भी संसार के दूसरे गृहस्थियों के  समान ही अपनी पत्नी से अनुराग रखता था । इस संसार से उसकी विदाई मेरे लिये अति दारुण और दु:खदायी है । किन्तु उसके इस वियोग के अवसर पर आंसुओं का न गिरना हृदय की कठोरता नहीं है । अपितु जेलर ! वास्तव में बात यह है कि मेरी आंखों में जितने भी आंसू थे, उन्हें मैं भारतमाता की दुखद अवस्था पर बहा चुका हूँ । अब मेरी आंखों में कोई आँसू नहीं रहा, जो मेरी पत्नी के मरने पर निकलकर बाहर आता ।''

 मातृभूमि के प्रति कितनी भावप्रवणता है । तिलक के हृदय का चित्र खींचना हो, तो एक उर्दू शायर के शब्दों में कहा जा सकता है-

गम तो हो हदसे सिवा, अश्क अ़फशानी न हो ।

उससे पूछो जिसका घर जलता हो, और पानी न हो ।। शिवकुमार शास्त्री

 

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शुभ गुणों के लिये दुर्गणोँ का त्याग आवश्यक, यजुर्वेद 30.3
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