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वन्दे मातरम्‌- इतिहास के झरोखे से

"वन्दे मातरम्‌' मात्र एक समाघोष ही नहीं, अपितु यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का मूल-मन्त्र भी है। वन्दे मातरम्‌ का शाब्दिक अर्थ है- "मॉं को प्रणाम।' मॉं से यहॉं अभिप्राय मातृभूमि से है। कुछ समय पूर्व मुसलमानों में यह विवाद चरम सीमा पर था कि मुसलमान केवल खुदा को ही सिजदा कर सकते हैं किसी और को नहीं। इतना ही नहीं तब ऐसा भी कहने वाला एक मुसलमान था, जो डंके की चोट पर कहता था कि- भारत "माता' नहीं "डायन' है। ऐसे अवसर पर   आस्कर अवार्ड विजेता फिल्मी संगीतकार अल्ला रक्खा रहमान अर्थात्‌ ए.आर.रहमान तथा पूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्री आरिफ मोहम्मद खान ने इसका अनुवाद किया था- "मॉंतुझे सलाम'। श्री आरिफ मोहम्मद खान ने तो इस पूरी बंगला कविता का उर्दू भाषा में अनुवाद कर और उसे देवनागरी लिपि में लिखकर हिन्दी के दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित भी करवाया था, जिसका पाठकों ने हृदय से स्वागत किया था।

आज की पीढ़ी में बहुत कम युवकों को विदित होगा कि इस बंगला कविता अथवा राष्ट्रगीत के रचयिता स्व. बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय थे। उन्होंने बंगला भाषा में एक उपन्यास लिखा था- "आनन्द मठ'। यह राष्ट्रगीत उसी उपन्यास का एक अंश है। पूरी कविता बंगला भाषा में है। राष्ट्रगीत के नाम पर तो केवल प्रथम चार पंक्तियों वाले पद का ही गान किया जाता है। अनेक लोगों को यह भी भ्रान्ति है कि यह कविता संस्कृत भाषा में है। क्योंकि बंगला भाषा में लगभग 75 प्रतिशत संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रयोग होता है। इस कारण यह संस्कृत भाषा की कविता जैसी भासित होती है।

बंकिम बाबू ने जिन्हें लोग श्रद्धा से महर्षि बंकिम भी कहते हैं, आनन्द मठ उपन्यास की रचना उस काल में की थी, जब इस देश पर कंपनी सरकार अर्थात्‌ ईष्ट इण्डिया कम्पनी का अत्याचारी शासन था। तब उसका संक्षिप्त नाम कम्पनी सरकार ही प्रचलित था। तभी तो यह बात प्रचलित हुई कि अंग्रेज यहॉं व्यापार करने आये और शासक बन बैठे। कंपनी सरकार यद्यपि इंग्लैण्ड की तत्कालीन महारानी  विक्टोरिया के अधीन ही कार्य करती थी। राज विक्टोरिया का ही था, किन्तु कंपनी सरकार के माध्यम से। कम्पनी सरकार ने अपना व्यापार करते हुए न केवल भारत के उद्योगों को ही नष्ट किया, अपितु व्यापार को भी हानि पहुँचाई तथा इसके बहाने उसने भारतवासियों पर क्रूरतम अत्याचार भी किये।

आज की पीढ़ी को भले ही स्मरण न कराया जाता हो कि पूर्वी बंगाल का "ढाका' नगर अंग्रेजों से सत्ता हस्तान्तरण के पूर्व भारत का ही एक प्रसिद्ध औद्योगिक नगर था, जो "मलमल' नामक कपड़े के उद्योग का केन्द्र था। वहॉं कि मलमल इतनी महीन होती थी कि उसके सारे थान को जो तत्कालीन माप 20 गज के लगभग होता था, अंगुली में पहनी जाने वाली मुद्रिका के छिद्र के आर-पार किया जा सकता था।

कपड़ा बनाने की अंग्रेजों की अपनी मिल तो इंग्लैण्ड के "लंकाशायर' नगर में होने से उसमें बने कपड़े को "लंकाशायर" ही कहा जाता था। कम्पनी सरकार ने उस मिल के कपड़ों से भारत के बाजारों को पाट दिया और देशी उद्योगों के वस्त्रों की बिक्री पर पाबन्दी लगा दी। लंकाशायर में ढाका जैसी मलमल बनाने का यत्न किया गया। किन्तु सफलता नहीं मिली, तो कम्पनी सरकार ने ढाका में मलमल बनाने वाले घरेलू उद्योग के उद्यमियों के सबके हाथ ही कटवा दिये। "न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी' वाली कहावत सिद्ध कर दी। क्या ऐसे क्रूर अत्याचार की आज की पीढ़ी कल्पना कर सकती है? किन्तु यह किया गया और तब से ढाका की मलमल मिलनी बन्द हो गई। कम्पनी सरकार का इतिहास ऐसे ही अत्याचारों की कहानियों से भरा पड़ा है।

कम्पनी सरकार ने जब इस प्रकार के अत्याचार करने आरम्भ कर दिये तो उसकी प्रतिक्रिया भी होने लगी। उन्हीं अत्याचारों की प्रतिक्रियास्वरूप लिखा गया उपन्यास था- "आनन्द मठ'। आनन्द मठ नाम का "मठ' ऐसे संन्यासियों का जमावड़ा था, जो कम्पनी सरकार के अत्याचारों से देश को मुक्त कराने के लिये कटिबद्ध और प्रयत्नशील था। उसी आनन्द मठ उपन्यास में प्रमुख गीत के रूप में इस "वन्दे मातरम्‌' कविता का समावेश था।

ज्यों-ज्यों कम्पनी सरकार के अत्याचार बढ़ते गये, देश में इस गीत का प्रसार भी बढ़ता गया। उधर कम्पनी सरकार ने धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार का रूप धारण कर लिया। देश किसानों से भूमि अधिग्रहीत कर ली गई, उद्योगों को हतोत्साहित किया गया, इंग्लैण्ड में बनी वस्तुओं के प्रचलन के लिये विविध प्रकार के अत्याचारों के साथ-साथ अनेक प्रकार के कर भारतवासियों पर लगाये गये। जिस प्रकार आजकल (2009 में) पाकिस्तान में तालिबान हिन्दुओं पर "जजिया' रूपी कर लगा रहे हैं तथा कर न देने पर उन पर अत्याचार कर रहे हैं, उसी प्रकार के अत्याचार कम्पनी सरकार द्वारा उस समय किये गये थे। 1857 की क्रान्ति जिसे सैनिक विद्रोह नाम दिया गया, उसी ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने की क्रान्ति थी, जो उस समय किन्हीं कारणों से असफल हो गई। मानव समाज में जयचन्दों और मीरजाफरों की कहीं और किसी काल में भी कमी नहीं रही है।

कालान्तर में 19वीं शती के अन्त में सुपठित भारतीयों को अंग्रेज-भक्त बनाने की प्रक्रिया में एक सेवानिवृत्त अंग्रेज सर ए.ओ. ह्‌यूम, जो 1857 की क्रान्ति के समय एटा जिले का कलेक्टर था और क्रान्तिकारियों से अपनी जान बचाने के लिये किसी मुसलमान के घर में छिप गया था तथा वहॉं से बुर्का पहिनकर मुस्लिम महिला के रूप में बाहर निकल कर किसी प्रकार अंग्रेजों के शिविर में पहुँचकर जान बचाने में समर्थ हो पाया था, उसने शिमला में  एक संस्था की स्थापना की, जिसका नाम रखा गया- "इंडियन नेशनल कांग्रेस'। कुछ लोगों ने अपनी बुद्धि का दीवालापन दिखाते हुए किसी षड्‌यंत्र के अन्तर्गत इसे "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' कहना आरम्भ कर दिया। क्या नाम का भी कभी अनुवाद होता है? यदि किसी का नाम सूर्यप्रकाश हो तो क्या उसका अनुवाद करके उसे अंगे्रजी में "सन लाईट' कहा जा सकता है? कदापि नहीं। दो बातें मुख्य हैं, जो ध्यान में रखने की हैं- 1. संस्था की स्थापना एक अंगे्रज ने की थी और 2. किसी षड्‌यंत्र के अन्तर्गत उसके नाम का हिन्दी अनुवाद प्रचलित कराया गया।

उसी कांग्रेस में किसी देशभक्त ने राष्ट्रगान के रूप में "वन्दे मातरम्‌' कविता का गान आरम्भ करवा दिया, जो सन्‌ 1947 तक निरन्तर प्रचलित रहा। जहॉं तक मुसलमानों द्वारा इसके विरोध का प्रश्न है, जब मौलाना मोहम्मद अली इस कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किये गये, तो उन्होंने अपनी अध्यक्षता के प्रथम अधिवेशन में ही इसका विरोध किया था। उन दिनों कांग्रेस के अधिवेशनों में प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतज्ञ स्व. श्री विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को ससम्मान बुलाया जाता था। उस अधिवेशन में जब वे अपना तानपूरा लेकर मंच पर आसीन हुए,तो मौलाना ने इसका विरोध किया और कहा कि यदि राष्ट्रगान गाया गया, तो मैं मंच पर नहीं रहूंगा। पलुस्कर महाराज ने सगर्व कहा, ""आप रहें चाहें न रहें, मैं तो गाऊंगा।'" और उन्होंने गाया तथा मौलाना न केवल मंच से अपितु राष्ट्रगान होने तक पंडाल से भी बाहर ही रहे। तदपि हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि सुपठित मुसलमानों में अधिक संस्या आरिफ और रहमान खानों की ही है।

कांग्रेस पार्टी ने तो इसे राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया था, किन्तु कांग्रेस सरकार ने जिसका प्रारम्भिक नेतृत्व स्वयं को दुर्घटनावश हिन्दू मानने वाले पं. जवाहरलाल नेहरू ने किया, इसकी अपेक्षा "जन-गण-मन' को प्राथमिकता देकर उसे राष्ट्रगान घोषित करवा दिया गया। तदपि सरकारी समारोहों में भले ही "जन-गण-मव' का गान होता हो, किन्तु भारतीय जनता के समारोह में "वन्दे मातरम्‌' को ही प्राथमिकता प्राप्त है।

आज का भारतवर्ष अंग्रेजों से भले ही आक्रान्त न हो, किन्तु अंग्रेजियत ने उसे अंग्रेजों के शासन से भी कहीं अधिक आक्रान्त किया हुआ है। अंग्रेजों के शासनकाल में ही नहीं, अपितु आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व तक "आनन्द मठ' उपन्यास का खूब पठन होता था। परन्तु भारत के वर्तमान कर्णधारों ने आज उस भावना एवं संस्कृति का ही मूलोच्छेदन कर दिया है, जिसके संरक्षण के लिये "आनन्द मठ' उपन्यास का सृजन हुआ था। अतः आज "आनन्द मठ' के पठन-पाठन की आवश्यकता उससे भी अधिक प्रबल है, जितनी कि उसके रचनाकाल में थी।

लेखक- अशोक कौशिक

दिव्य युग जुलाई 2009 इन्दौर, Divya yug july 2009 Indore

 

 

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