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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna Indore is the only Mandir controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Indore. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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विजयादशमी पर्व का पावन सन्देश

भारतवर्ष पर्व प्रधान देश है। इन समस्त पर्वों का सम्बन्ध प्रकृति की रमणीय ऋतुओं से है। प्राचीनकाल में वर्षाकाल के चातुर्मास्य में (चौमासा) वर्षा की अधिकता होने के कारण यातायात प्रायः रुका रहता था। यातायात के साधन इतने अधिक नहीं थे। सड़कों, राजमार्गों की बहुतायत न थी। इसलिए क्षत्रिय वर्ग की विजय यात्रा एवं वैश्यों की व्यापार यात्रा वर्षाकालीन चातुर्मास्य में रुकी रहती थी। वर्षा की समाप्ति पर जब शरद्‌ ऋतु का आगमन होता था, तब इन रुकी हुई यात्राओं को पुनः प्रारम्भ किया जाता था।

    ऐसे समय में दिग्विजय यात्रा और व्यापार यात्रा के पुनः प्रारम्भ की तैयारियॉं एवं विजयादशमी उत्सव का समारम्भ शुरू होता था। (राजन्य) क्षत्रियवर्ग अपने औजारों की साज-सज्जा स्वच्छता का ध्यान, व्यापारी वर्ग अपने बही- खाते आदि की तैयारियॉं आश्विन सुदी प्रतिपदा से आरम्भ कर आश्विन सुदी विजयादशमी तक पूर्ण कर लिया करते थे।

    प्राचीन काल में विजयादशमी के दिन यज्ञशाला को सुसज्जित कर चतुरंगिणी सेना जिसमें अश्व, हाथी, रथ, पदाति का क्रमबद्ध खड़ा करके उनकी नीराजना (आरती) विधि सम्पन्न की जाती थी। जिसका उल्लेख महाकवि कालिदास अपने रघुवंश महाकाव्य में महाराज रघु की नीराजना विधि का निम्न पद्य में वर्णन करते हैं।

तस्मै सम्यग्द्युतो वह्निद्युतो वह्निर्वाजिनीराजनाविधौ।

प्रदक्षिणार्चिर्व्याजेन हस्तेनैव जयं ददौ।।

    (रघुवंश चतुर्थ सर्ग 24वां श्लोक)

    महाराज रघु अश्वादि की नीराजना विधि कर रहे थे। श्लोक का भाव ही है कि अग्नि की ज्वालाएं प्रज्वलित हो रही थी। कवि की उत्प्रेक्षा का चमत्कार तो देखिये मानो वह अग्नि जो दक्षिण की ओर बल खा-खाकर लपेटे ले रही थी, प्रज्ज्वलित हो रही थी। वह अपने दाहिने हाथ से मानो रघु को विजय प्रदान कर रही हो। इस प्रकार नीराजना का शुभ अनुष्ठान विजय यात्रा के लिए शुभ सूचक माना जाता था।

    तात्पर्य यही है कि विजयादशमी के दिन से दिग्विजय यात्रा और व्यापार यात्रा निर्बाध गति से प्रारम्भ हो जाया करती थी।

    इस पर्व पर सब लोग आपस में एक दूसरे के साथ प्रेम भाव से मिलते थे। एक दूसरे के प्रति  जो मनोमालिन्य था वह प्रायः समाप्त कर आपस में प्रेम भाव से परस्पर एक दूसरे की उन्नति की भावना अपने मनों में संजोये हुए सबके कल्याण के लिए प्रयत्न किया करते थे। वैदिक युग वा प्राचीनकाल में विजयादशमी का  शुद्ध स्वरूप इतना ही प्रतीत होता है।

    पश्चात्‌ इस पर्व का सम्बन्ध रावण वध लंका विजय के साथ जोड़ दिया गया, जो कि पौराणिक मान्यताओं पर ही आधारित है। भविष्य उत्तर पुराण में विजयादशमी के दिन शत्रु का पुतला बनाकर उसके हृदय को बाण से वेधने का उल्लेख मिलता है। सम्भव है पीछे में यह पुतला रावम का रूप समझा जाने लगा हो और उसको रामलीला के राम के हाथ से वध कराने की प्रथा चल पड़ी हो।

    श्रीराम के राजतिलक का मास चैत्र था और उसी मास राम को वनवास दिया गया। अतः 14 वर्ष के वनवास की समाप्ति भी चैत्र मास में ही सम्भव है। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में (सर्ग 3 श्लोक 4) लिखा है-

चैत्र श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पित काननः।

यौवराज्यस्य रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्‌।।

    इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट विदित होता है कि श्री रामचन्द्र जी की विजयतिथि चैत्र कृष्ण अमावस को है।

    वस्तुतः हमारे सभी पर्वों का जो वास्तविक रूप था उसको हम भूलते जा रहे हैं। केवल ब्राह्माडम्बर (दिखावा) मात्र रह गया है। महान्‌ पुरुषों के दिव्य जीवन आदर्शों को हम अपनाने को तैयार नहीं हैं। भगवान्‌ राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। क्यों? क्योंकि वे स्वयं अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते थे। वे अपने नियमों को नहीं तोड़ते थे। मर्यादा की रेखा को कभी न लांघने का संकल्प पूरा करने वाले राम का व्यक्तित्व समद्र के समान गहरा है। वे पुरुष से पुरुषोत्तम बन गये। मर्यादा की रक्षा करने समुद्र की श्रद्धा पूर्णिमा की रात को नजर आती है जब लगता है कि उसका पानी पूरी दुनिया को लांघ जायेगा पर वह पानी को किनारे की मर्यादा नहीं लांघने देता और सारे ज्वार को अपने पेट में समा लेता है। राम का जीवन भी ऐसा ही है। उन्होंने जीवन भर मर्यादाओं का पालन किया, अतिक्रमण नहीं। उनकी मर्यादाओं व गुणों की चर्चा स्वयं वाल्मीकि ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही करते हैं। श्रीराम समुद्र के समान गम्भीर, विष्णु के समान पराक्रमी, हिमालय के भांति धैर्यवान्‌, धर्म के रक्षक, वेद-वेदांगों के ज्ञाता, सत्यवादी, परोपकारी, दृढ़चरित्र, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, समदर्शी सज्जनों के प्रिय किन्तु शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले आर्य पुरुष हैं।

    आदर्श पुरुष राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उन्होंने सर्वदा मर्यादा का पालन किया। जिस कैकेयी के कारण उन्हें वन जाना पड़ा, भरत कहते हैं कि मैं इसका वध कर दूँ। किन्तु आदर्श पुरुष श्रीराम की मर्यादा देखिये। भरत से कहते हैं- हे भरत! तुम्हारी माता ने चाहे स्नेह के कारण या लोभ के कारण यह कार्य किया है इसे तुम मन में मत रखना। सदा उनके साथ माता के समान व्यवहार करना।यह आदर्श पुरुष राम की मर्यादा है।

    राम की मर्यादा का एक और दृश्य। रावण का वध हो जाता है। उस समय राम विभीषण से कहते हैं- मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्‌। अर्थात्‌ मृत्यु के अनन्तर वैरभाव समाप्त हो जाते हैं। हे विभीषण! यह अब जैसे तुम्हारा भाई है वैसा मेरा भी। तुम इनका सम्मानपूर्वक दाह संस्कार करो।

    आदर्श राम स्नेह के भण्डार थे। उनका मातृप्रेम भ्रातृप्रेम, पितृप्रेम सर्वविदित है। किन्तु वे गुहराज निषाद्‌, सुग्रीव, विभीषण आदि से भी समान भाव से स्नेह रखते थे।

    राम अपने राज्य में प्रजा को किसी भी दशा में दुःखी नहीं देख सकते थे। संस्कृत के महान्‌, कवि भवभूति ने ठीक ही लिखा है- स्नेह, दया, मित्रता अथवा सीता को भी प्रजा की रक्षा के लिए छोड़ने में मुझे कोई व्यथा नहीं होगी।

    वे आदर्श विद्वान्‌ थे। वेद-वेदांगों के ज्ञाता थे। उन्होंने वैदिक मन्त्रोें को मानो अपने जीवन में ही उतार लिया था- अनुव्रतः पितु पुत्रो मात्रा भवतु सम्मना। इसलिए वे आदर्श पुत्र बने। अपनी तीनों माताओं के प्रति उनका समान भाव था। अपने पिता के प्रति उनकी भक्ति अटूट थी। कैकेयी से पूछते हैं- पिताजी क्यों अप्रसन्न हैं? आप बताइये। श्रीराम कहते हैं कि पिताजी की प्रसन्नता के लिए मैं अग्नि में कूद सकता हूँ। समुद्र में छलांग लगा सकता हूँ। तीक्ष्ण विष पी सकता हूँ। आप बताएं कि राजा क्या चाहते हैं। मैं उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। राम दो वचन नहीं बोलता। वह तो कह देता है उसे पूरा करके ही छोड़ता है-

तद्‌ ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्‌।

करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते।।

    (अयोध्याकाण्ड 18.28.30)

    राम आदर्श पुत्र तो थे ही, वे आदर्श भाई  भी थे। लक्ष्मण के शक्ति लगने पर वे कितने रोये थे! सुषेण से कहते हैंकि मैंने पूर्वजन्म में न जाने क्या दुष्कर्म किया था, जिसके फलस्वरूप मेरा धार्मिक भ्राता मेरे सामने मर रहा है। (युद्धकाण्ड 101.19)

    एक आदर्श पति बनकर वैदिक संस्कृति का सन्देश फैलाते रहे। मित्रता धर्म निभाया। सुग्रीव को मित्र बनाया तो किष्किन्धा का राज्य उसे ही दे दिया। गुरुभक्त थे। गुरुजनों के प्रति सदा सम्मान की भावना रखते थे। वसिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, गौतम सभी के वे प्रिय पात्र थे।

    यज्ञप्रेमी थे। पांच महायज्ञों का अनुष्ठान करना उनके जीवन का अनिवार्य अंग बन गया था। अपने कर्त्तव्य कर्मों के करने में भी कभी भी आलस्य व प्रमाद नहीं करते थे। जब क्षत्रिय ने धनुष ले लिया तो दुखियों की चीत्कार फिर कहॉं हो सकती है? देखें अरण्य काण्ड-क्षत्रियैर्धार्यते चापो नार्तशब्दो भवेदिति। वे शरणागतपालक थे। जो भी उनकी शरण में आया वह अपने जीवन में तर गया।      सदाचार के वे मानो पुतले थे- न रामः परदारान्‌ स चक्षुर्भ्यामपि पश्यति (अयोध्या काण्ड)। वे मातृवत्‌ परदारेषु का व्यवहार करते थे।

    ईश्वरभक्ति उनके जीवन का अनिवार्य अंग था। सन्ध्या, अग्निहोत्र, जप, तप इन सबका पालन करना जीवन का अभिन्न उद्देश्य था।

    ऐसा कोई नहीं था जो उनके जीवन में न खिल उठा हो। महापुरुषों का लक्षण तो यही है कि मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्‌। वे मन-वचन-कर्म से एक थे। इसलिए श्रीराम का पावन चरित्र उनके अनुकरणीय गुण-कर्म-स्वभाव तथा आदर्श सार्वकालिक, सार्वदेशिक तथा सार्वजनिक जीवनों के लिए अनुपम एवं उपयोगी हैं। वे आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने श्रीराम के समय लाखों वर्ष पूर्व थे। उनके जाज्वल्यमान आदर्श वर्तमान में भूले-भटके हुए लक्ष्यहीन एवं अशान्त भारतीयों के लिए प्रकाश स्तम्भ हैं।

    आज हम केवल इतना ही मानकर सन्तोष न कर लें कि उन्होेंने रावण जैसे अन्यायी, अत्याचारी का वध कर दिया तथा हम भी रावण के पुतले जलाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लें। आज के इस भौतिक वातावरण में जिनके अन्दर रावणीय भावनाएं कूट-कूटकर भरी हुई हैं, वे जीवन से उनको सम्पूर्णतया निकालकर "अच्छे इंसान' बनने का संकल्प लें।

    वस्तुतः आदर्श राम के जीवन की पद्धति, आदर्श राजनीति और जन-जन में व्याप्त प्रीति हमारी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान देने में पूर्णतः समर्थ हो सकती है। आत्मीयता, विश्वबन्धुता, सर्वसमभाव, प्राणियों में सद्‌भावना आदि तथा संघटन, एकता व प्रेम के भाव उत्पन्न करने में श्रीराम के अनुकरणीय जीवन पद्धति से हम कुछ प्रेरणा अपनाकर अपने परिवार, समाज व राष्ट्र का कल्याण करने का सत्प्रयास करेंगे। विजयादशमी पर्व की पाठकों को अनेकानेक शुभकामनाएँ। डॉ. धर्मेन्द्र शास्त्री

दिव्य युग अक्टूबर 2011 इन्दौर, Divya yug October 20011Indore

 

 

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