मासिक दिव्ययुग में ज्वलन्त प्रश्नों के आलेख प्रकाशित होते हैं। महात्मा रामचन्द्र जी वीर तथा आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी महाराज हिन्दुत्व के प्रबल प्रतिनिधि के रूप में जाने गए हैं। देश के लिये इनकी सेवाएँ अनन्त तथा अमूल्य हैं। कुछ सिरफिरे सदा से ही हुए हैं। राम-कृष्ण तक को नहीं छोड़ा कुछ फर्क नहीं पड़ता है। महानता स्वयं में महान होती है। -आचार्य अवस्थी, सीकर (राजस्थान)
दिव्ययुग नियमित प्राप्त हो रही है। यह पत्रिका हजारों में एक है, जो आज के भौतिकवादी युग में अध्यात्म, नैतिकता और धार्मिक चेतना का शंखनाद कर रहा है। इस समर्पण व साधना के लिये साधुवाद। जनवरी 2010 के अंक में आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी महाराज के बारे में विचार पढ़े। आचार्यश्री डॉ. संजयदेव जी ने बहुत अच्छा लिखा है। बधाई। - सत्यनारायण सत्य, भीलवाड़ा (राजस्थान)
दिनांक 29.11.2009 को दिव्ययुग कार्यालय पर आचार्य डॉ. संजयदेव जी से भेंट कर उनके विचार जानने का अवसर प्राप्त हुआ। दिव्ययुग नियमित प्राप्त हो रहा है। दिव्ययुग के नवम्बर के अंक में आचार्य जी के प्रवचनों का सार "बढ़ती संस्कारहीनता का कारण-विभक्त परिवार' आज का कटू सत्य है। इससे भी आगे बात करें, बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार, धर्म पलायन, राष्ट्रभक्ति से विलगता, वृद्धों की पीड़ा सभी कुछ विभक्त परिवारों की ही देन है। -ए. कीर्तिवर्धन, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
स्वामी श्रद्धानन्द व पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल को समर्पित दिव्ययुग का दिसम्बर 2009 का पुष्प अपनी राष्ट्रीय भावनाओं तथा संस्कृति की सुगन्ध प्रसारित करता हुआ मिला। 'खोजिये! रामराज्य के आधारसूत्र' विश्लेषणयुक्त होने के साथ प्रेरक भी है, यदि जनमानस व जननेता समझते। स्वामी श्रद्धानन्द पर ज्ञानवर्द्धक सामग्री दी गई है। प्रभु जोशी राष्ट्रभाषा-हित बड़ा ही कटुसत्य यथार्थ बखान कर रहे हैं। जमीन कटी नई पीढ़ी व अंग्रेजों के मानस पुत्रों को समझ आएगी भी, कुछ कहा नहीं जा सकता। अब तो कुछ दल भाषायी राजनीति पर उतर आए हैं। एक से एक पागलपन के नमूने अपने स्वार्थ-हित के लिये दे रहे हैं। बालवाटिका भी बच्चों हेतु उपयोगी एवं समृद्ध है। स्वास्थ्य-चर्चा में सामयिक आवश्यकता की जानकारी उपादेय बन गई है। दिव्ययुग की सफलता की कामनाओं के साथ। - शशांक मिश्र भारती, पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)
श्री प्रभु जोशी का लेख 'हिन्दी को समाप्त करने का षड्यन्त्र' दिव्ययुग के अक्टूबर 2009 के अंक में पढ़ा। मुझे बड़ी हैरानी है कि श्री प्रभु जोशी लिखते हैं कि अंग्रेजी का बार-बार प्रयोग करके हिन्दी को समाप्त किया जा रहा है। परन्तु श्री जोशी स्वयं द्वारा प्रयोग किये जा रहे उर्दू के शब्दों पर जरा विचार तो करेंकि यह कितना अन्याय है, जो आपने किया है। जैसे आप द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्द-बहरहाल, खिलाफ, जरिये, खामोश, अखबार, तरह, इरादतन, परवाह, खतम, माफ, परवरिश, बाकायदा। अब आप ही बताइए कि आप इन उर्दू शब्दों का प्रयोग करके हिन्दी का कितना भला कर रहे हैं। यह तो मैंने केवल कुछ ही लिखा है, आगे और भी है। क्या मैं श्री प्रभु जोशी से स्पष्टीकरण की आशा कर सकता हूँ? मैं स्वयं स्कूल से उर्दू पढ़ा हूँ। आर्यसमाज की कृपा से टूटी-फूटी हिन्दी पढ़ पाया हूँ। हो सकता है मेरे पत्र में भी अनेक त्रुटियॉं हों। -सतपाल आर्य, गुड़गॉंव (हरियाणा)
आपके कुशल सम्पादकीय में सकारात्मक पत्रकारिता के माध्यम से समाज के नवनिर्माण का सराहनीय कार्य हो रहा है। आपके द्वारा प्रकाशित सभी सामग्रियॉं बहुत ही ज्ञानवर्द्धक, सारगर्भित तथा समाधानपरक होती है। आपके इस सद्प्रयास के लिए समाज सदैव आपका ऋणी रहेगा। हमारा मानना है कि इतिहास में कुछ ऐसे क्षण आते हैं, जब स्कूल को समाज के प्रकाश के केन्द्र के रूप में तथा सामाजिक परिवर्तन के एक प्रभावशाली माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। हमारा विश्वास है कि मानव इतिहास में वह समय आ गया है, जब उद्देश्यविहीन शिक्षा के स्थान पर स्कूल को बालक की तीनों वास्तविकताओं अर्थात् भौतिक, सामाजिक एवं अध्यात्म का संतुलित विकास करने वाली उद्देश्यपूर्ण शिक्षा के द्वारा सामाजिक विकास एवं विश्व एकता के लिए कार्य करना चाहिए। स्कूल समाज के प्रकाश का केन्द्र है। अतः उसे (अ) प्रत्येक बालक को (ब) अभिभावकों को तथा (स) समाज को (1) उद्देश्यपूर्ण शिक्षा (2) आध्यात्मिक दिशा तथा (3) सही मार्गदर्शन देना चाहिए। -जगदीश गांधी, लखनऊ (उ.प्र.)
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