दिव्ययुग का अगस्त 2007 अंक प्राप्त हुआ । आभारी हूँ ।
संवाद बनाकर आपने मुझे अभिभूत कर दिया ।
रोम-रोम मेरा आपकी सहृदयता से भर गया ।।
सौम्यता के आलोक में मन प्रदीप्त कर गया ।
आपका स्नेह मेरे अंग-अंग में बस गया ।।
दिव्ययुग को पढने के बाद पाया कि आप-
राष्ट्र जागरण का अभियान लेकर चल रहे ।
संस्कृति के उत्थान का संकल्प लेकर चल रहे ।।
वेद का पवित्र संदेश जन-जन तक पहुँचा रहे ।
विश्वबन्धुत्व भाव से कर्म करते चल रहे ।।
निश्चित रूप से आपके प्रयास, विचारधारा एवं संकल्प श्रेष्ठ तथा अनुकरणीय हैं। आपकी ही बातों को अपने अन्दाज में कहें तो-
भारत की भूमि पर, दिव्ययुग का आगमन ।
जन-जन के दिलों में, मानवता का जागरण ।।
धर्म सदा यहॉं रहा, सत्य और सनातन ।
वेद-पुराणों ने कहा, चरित्र ही आलम्बन ।।
अतएव चरित्र निर्माण का आपका लक्ष्य श्रेष्ठतम है और उसके लिए महापुरुषों के दिये गये वृत्तान्त प्रेरणादायी । ईश्वर से प्रार्थना, आप और हम अपने उद्देश्य में सफल हों। - ए. कीर्तिवर्द्धन, मुजफ्फरनगर(उ.प्र.)
दिव्ययुग मासिक पत्रिका के माध्यम से समाज के नवनिर्माण का सद्प्रयास सराहनीय ही नहीं, वरन् अनुकरणीय है । इस हेतु समाज सदैव आपका ऋणी रहेगा । परमपिता परमात्मा के आशीर्वाद तथा आप जैसे मानवीय विचारों के सम्पादकों के संकल्पित प्रयास से सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने की परिकल्पना निकट भविष्य में अवश्य साकार होगी । वर्तमान समाज की दयनीय स्थिति के लिए शिक्षा ही मुख्य रूप से दोषी है । माता-पिता, स्कूल-कालेज तथा कथित संत-महात्मा, राजनेता, सिनेमा वाले सभी मिलकर रफ्ता-रफ्ता मानव जीवन को निपट भौतिक बनाने के कार्य में लग गये हैं । यह फैसला करने की घड़ी है कि हम परमात्मा की ओर जाएं या फिर अपनी मर्जी तथा अकड़ में सारी मानव जाति को विनाश की भट्टी में झोंक दें । जब तक हम इस सारी सृष्टि को एक नहीं मानेंगे, तब तक विश्व में एकता नहीं होगी । इस विश्व दृष्टि से नीचे जो भी चिन्तन होगा, उसके परिणाम भयानक होंगे। अब केवल ऊ पर से दिखने वाली एकता से काम नहीं बनेगा । विश्व के सभी देश "हृदयों की एकता' करने के लिए दो बातें सहर्ष स्वीकार लें कि धरती हमारी मॉं है और परमात्मा हमारा पिता है तथा अपने अपने देश के बच्चों के हित को सबसे आगे रखकर न्याय आधारित एक नई विश्व व्यवस्था निर्मित करने का आधार बनाना अब मानव जाति के हित में है । आइये ! हम और आप मिलकर एक ऐसा विश्व समाज बनायेंगे, जिसमें भेदभाव न हो, नफरत न हो, बार्डर न हो, वीटो पावर न हो, युद्ध न हो, बम न हों तथा जाति-सम्प्रदाय के झगड़े न हों । आइये ! विश्व एकता को प्रत्येक व्यक्ति का अभियान बनायें ।-जगदीश गॉंधी, लखनऊ (उ.प्र.)
दिव्ययुग का अगस्त 2007 अंक का सम्पादकीय विचारोत्तेजक, प्रबोधात्मक तथा आज के युग-सन्दर्भ की दृष्टि से उपादेय है । वैदिक अध्यात्म द्वारा ही शान्ति सम्भव नामक रचना प्रिय लगी । आप इस पत्रिका में धर्म-परिवार-समाज- नीति एवं राष्ट्र को आधार बनाकर उपयोगी सामग्री देते हुए आगे बढ रहे हैं । दिव्ययुग की उत्तरोत्तर प्रगति हो, यही मेरी मंगलकामना है।-डॉ. महेशचन्द्र शर्मा, साहिबाबाद(उ.प्र.)
मैं दिव्ययुग मासिक पत्रिका का सदस्य हूँ। दिव्ययुग पत्रिका का मैं तहदिल से धन्यवाद करता हूँ , जिसके द्वारा मैं अपनी सुपुत्री का रिश्ता तय कर सका । आपकी पत्रिका में हमने विज्ञापन देखा । बातचीत चलती रही । परिणामस्वरूप एक सुयोग्य सुपुत्र हमें बहुत समझदार नेक श्रेष्ठ परिवार का प्राप्त हुआ । उसके लिए हम सदा आपके आभारी रहेंगे । ईश्वर करे कि दिव्ययुग पत्रिका सम्पूर्ण विश्व में फैले, ताकि अनेक नेक कार्यो के साथ सत्य सनातन वैदिक धर्म का मिशन पूरा हो सके । -वेदभूषण राजपाल, राजकोट (गुजरात)
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