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स्वातन्त्र्य वीर सावरकर को नमन

देश की देहरी पर अपने प्राणो का दीपक जलाकर काल झंझा से जूझने वाले महापुरुष थे हिन्दू संगठक स्वातन्त्र्य वीर सावरकर। 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र की इतिहास प्रसिद्ध नगरी नासिक के समीप ग्राम भगूर में जन्मा यह महापुरुष 26 फरवरी 1966 को अपने जीवन के 83 संघर्षपूर्ण वर्ष पूर्ण कर स्वेच्छया देहार्पण कर अमर हो गया था। वह आजीवन दीपक बनकर जला, अब नक्षत्र बन गया है।

जब वह जन्मा था तो देव दयानन्द अपनी दैहिक यात्रा पूर्ण कर रहे थे और क्रान्तिवीर वासुदेव बलवन्त फड़के भारतीय गणराज्य का स्वप्न नेत्रों में संजोए स्वदेश से दूर अदन में अपनी अन्तिम श्वास ले चुके थे। महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स की जीवन ज्योति वीर सावरकर के जन्म से 74 दिन पूर्व लन्दन के एक अज्ञात कोने में बुझ चुकी थी। ऐसे उद्‌भ्रान्त वायुमंडल में जन्मे सावरकर के जीवन वृत्त पर दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक क्रान्ति के जनक महर्षि दयानन्द, राष्ट्रभक्ति के प्रेरणा पुंज फड़के और समष्टिवाद के दर्शनकार मार्क्स की दिव्य ज्योति का संगम ही थे सावरकर।

मातृभूमि के प्रति अनन्य निष्ठा, वैदिक चिन्तन और दर्शन से प्राप्त उद्दात भाव भूमि तथा हिन्दुस्थान के पौरुषपूर्ण इतिहास से प्रेरित विनायक दामोदर सावरकर ने जीवन की सभी आशाओं, आकांक्षाओें और महत्वकांक्षाओं को विदेशी पराधीनता से मुक्ति के लिए चल रहे स्वतन्त्र्य यज्ञ में प्रसन्नमना समर्पित कर स्वयं को धन्य माना था। अंडमान के क्रूर कारागार में अपने यौवन के एक दशक से भी अधिक की अवधि उन्होंने यम-यातनाएं झेलते हुए बिताई। अन्य कारागारों में भी उन्होंने वर्षों तक स्वातन्त्र्य साधना की। हिन्दुत्व के दर्शन के सफल व्याख्याकार और इतिहासकार विनायक ने राष्ट्र स्वातन्त्र्य के पथ के विघ्न और बाधाओं पर पार पाने के लिए राजनीति के हिन्दूकरण और हिन्दू के सैनिकीकरण का महान सूत्र राष्ट्र को प्रदान किया था। सावरकर की कल्पना का हिन्दू और हिन्दुत्व राष्ट्रीयता का पर्यायवाची था तथा मत-मतान्तर और संप्रदायवाद की विभाजक श़ृंखलाओें से सर्वथा मुक्त था। उन्होंने हिन्दू शब्द की जो इतिहास सम्मत सरल तथा सार्थक व्याख्या की, वह यह थी कि जो भारत भूमि को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्यभूमि स्वीकार करता है, वह चाहे किसी भी मत-पथ और सम्प्रदाय का अनुगामी है, हिन्दू है। हिन्दुत्व एक जीवन शैली है।

वीर सावरकर के महान त्याग और तपस्या के समक्ष नागराज हिमालय भी नतमस्तक था। उसकी प्रबल वीरता को देखकर पौरुष और पराक्रम को भी आश्चर्य होता रहा। सागर की उत्ताल तरंगों को उसने बन्दूकों से हो रही गोलियों की सतत बौछार के जारी रहते पार कर फ्रांस के तट का स्पर्श किया था। वहॉं उनकी गिरफ्तारी के फलस्वरूप भारत की स्वतन्त्रता का प्रश्न पहली बार हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के माध्यम से विश्व मंच पर गुंजित हुआ। वह विश्व में एक ऐसा अनुपम इतिहासकार था कि जिसने अपनी अडिग राष्ट्रनिष्ठा के बल पर अपने जीवन को ही एक अग्निदाहक इतिहास के रूप दे दिया था। वह महान राष्ट्रभक्त सत्यपथ का प्रदर्शक और सफल दिशानायक भी था। भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर से विरक्त वीर सावरकर प्रभावी व्यक्तित्व के धनी थे। तेजस्वी वक्तृत्व उनकी वाणी का श़ृंगार था और व्यापक देश हितैषी बुद्धि उनकी पूंजी थी, तो सागर सरीखा गंभीर और गिरि शिखर सरीखा उच्च और उदात्त था उनका मन।

मौत की छाया में पले महापुरुष सावरकर मृत्युंजय बन गए थे। उनके जीवन का एक वैशिष्ठ्‌य यह रहा कि वह अजेय वीर की तरह जिए और अपराजेय वीर की तरह ही उन्होंेने अपनी अन्तिम सांस ली। देशभक्ति के जिस सांचे में वह नरपुंगव ढला, वह वज्र का था। अन्तिम क्षण एक उनका वज्र संकल्प अपने शौर्यगृह में अटल और अविचल रहा। न वे झुके और न टूटे। ऐसी अद्वितीय थी उनकी शौर्य स्फूर्ति। विदेशी सत्ताधीशों आंगल प्रभुओं ने अपनी विभाजन और शासन की नीति से देश को बीसियों हिस्सों में विभाजित कर दिया था। सावरकर जी ने उसे राष्ट्र का निर्धारित व्यक्तित्व स्वीकर न कर एक अखंड भारत-राष्ट्र के सनातन अस्तित्व को ही सर्वोपरि महत्व दिया। मृत्युपर्यन्त उनका यही अडिग विश्वास रहा कि देश में जो विभक्तियां प्रचारित हैं, वे कृत्रिम हैं एवं देश को विघटित करने के लिए ऊपर से थोपी हुई हैं। अन्तराल में देश की अविभक्त संस्कृति का मूल वस्तुतः एक ही है। राष्ट्र के इसी राजनीतिक व्यक्तित्व को अपनी आस्था और श्रद्धा में प्रतिष्ठित कर वीर सावरकर ने देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के जो सिद्धान्त निर्धारित किए, उन पर वे आजीवन सिंह शार्दूल की तरह निशंक और निर्भीक आचरण करते रहे।

उनकी पावन जयन्ती के प्रेरक अवसर पर उनके स्मरण के साथ ही आर्यावर्त के उन ऋषि-मनीषियों के तपःपूत एवं तेजस्वी व्यक्ति सहसा मानस पटल पर चित्रित हो उठते हैं, जिन्होंने इस सनातन राष्ट्र के शरीर और प्राणात्मा को अपने मानस मन्दिर में भक्तिपूर्वक पूजा था और राष्ट्र की आस्था को शक्ति-स्फूर्ति मन्त्र की काया में बद्धमूल किया था।

हुतात्मा संकल्प में ढले अपराजेय योद्धा वीर सावरकर कर्मशूर ही नहीं, अपितु महान चिन्तक, महाकवि और महान इतिहासकार भी थे। अपनी शौर्यकांक्षा में वे जैसे अद्वितीय थे, वैसे ही वे इन कर्मक्षेत्रों में भी बेजोड़। उनकी चारित्रिक विशेषता थी यह कि दुर्दान्त बज्रदण्डों से वर्षों दंडित-पीड़ित और अपने विरोधियों से लांछित सन्तप्त रहकर भी उनकी मानसिकता कभी विचलित नहीं हुई। उनके मन का महासागर कभी अपनी मर्यादा से विचलित नहीं हुआ। जीवन की अन्तिम घड़ी तक वे द्वेष भाव से सर्वथा मुक्त रहे। अन्दर और बाहर दोनों से क्रान्तिकारी उस नरपंगव ने स्वदेश की स्वतन्त्रता के जिस स्वप्न को अपने नेत्रों में संजोकर अंगारों से भरे पथ पर कदम बढ़ाया था, उसे अपने जीवनकाल में ही स्वतन्त्र देख पाने का सौभाग्य तो उन्होंने पाया, किन्तु समाज को भी रूढिवादिता, अन्धविश्वास और काल बाह्य संस्कारों से मुक्त कराने की उनकी जो मनोकामना थी, वह उनके जीवित रहते सफल नहीं हो पायी। उनके द्वारा प्रदर्शित पथ से भटका समाज आज दिग्‌भ्रमित है, विखंडित है। हमारा अडिग विश्वास है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सत्य और तथ्यपरक इतिहास में वीर सावरकर का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा और भावी पीढ़ियॉं जब भारत के राजनीतिक मंच पर खगोल तुल्य चमके-दमके गर्वोन्नत नेताओं और सत्ता को जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानकर उसकी प्राप्ति हेतु किसी भी पथ-कुपथ का अनुगमन करने वाले मदान्ध राजनीतिज्ञों को भूल जाएंगी, तब भी वीर सावरकर भारत के भाग्याकाश पर ध्रुव के समान जगमगाते नक्षत्र बनकर जाज्वल्यमान रहेंगे। उनके नाम से, उनके प्रेरक और आग्नेय जीवन के प्रकाश से भारतीय नवयुवक आग से खेलने की प्रेरणा ग्रहण कर देश की गौरवान्वित करने की राह पाएगा।

यद्यपि इस विडम्बना की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जो लोग वीर सावरकर जैसे सिंह सपूतों के त्याग और बलिदान के दम पर मिली स्वतन्त्रता के बाद सत्ता के आसन पर आसीन होकर आदर्शों को भूलते रहे हैं, वे उनके नाम को भी देश के इतिहास से विस्मृत करा देने जैसे उपक्रम में भी जाने-अनजाने लिप्त रहे। किन्तु सावरकर की जन्मदायिनी परम पुनीता भारतमाता को निश्चय ही अपने उस लाड़ले लाल पर गर्व है। परिस्थितियां पुकार-पुकार कर कह रही हैं कि उसी के पथ का अनुगमन राष्ट्र को समस्या मुक्त करने में समर्थ है। उस युगस्रष्टा, युगद्रष्टा की पावन जयन्ती के अवसर पर हर देशभक्त राष्ट्रात्मा के उस ज्योतिर्मय दीपक के प्रति अपने श्रद्धासुमन समर्पित करता है। देशभक्ति की स्फूर्ति में अतुल साहस और अप्रतिम शौर्य को अनुप्राणित करने वाले उस वीर व्रती का पावन स्मरण कर कृतज्ञ राष्ट्र उसके व्रत को श्रद्धा सहित अपनी कर्म चेष्टा में उतारने का संकल्प करता है। विश्वात्मा सभी को उस आदर्श चरित्र का अणु मात्र अनुगमन करने की क्षमता प्रदान करें। लेखिका- पण्डिता राकेशरानी

 

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