तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्वणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्॥ (ऋग्वेद 10.53.6)
यदि कोई प्रश्न करे कि संसार में सबसे खूंखार पशु कौन है, तो उसका उत्तर बिल्ली, कुत्ता, सूअर, भेड़िया, भालू, लकड़बग्घा, बाघ, हाथी या शेर नहीं होगा। उसका उत्तर होगा- मनुष्य। यहां पर एक प्रश्न और उत्पन्न होता है कि संसार का सबसे उपकारी पशु कौन है? घोर शीत में रक्षा करने के लिए ऊन देने वाली भेड़, रोग निवारक दुग्धदाता बकरी, पोषणकारी दुग्धप्रदाता गाय-भैंस, खेत जोतने वाला बैल या अन्य कोई पशु? ये सभी उपकारी तो हैं, किन्तु एक सीमा तक। सही उत्तर होगा-मनुष्य।
उत्तर काशी के भयावह विनाशकारी भूचाल में फंसे पीड़ित जनों के बचाव-कार्य के लिए एक दल ग्राम में पहुंचता है। वह मलवे में फंसी एक महिला को निकालना चाहता है। वह संकेत करती है कि मैं अभी ठीक हूं। मुझे बाद में निकाल लेना, पहिले मेरे पुत्र को बचाओ, वह भी दबा पड़ा है। बचावदल मलबे को हटा कर उसके पुत्र को बाहर निकाल कर बचा लेता है और लौट कर उस मां को बचाने आता है, तो वह वहां नहीं मिलती, मिलती है केवल उसकी निष्प्राणदेह। एक बार जन्म देकर सम्पूर्ण आयु जीवन देने का काम कौन करती है ? मां। यह भी तो मनुष्य है। एक बार गुजरात में भयावह बाढ़ आने पर एक गांव का सभी कुछ बह गया था। एक महिला, उसका अपंग पति और उसकी नन्हीं बालिका एक पेड़ की डाल पर चढ़ गये थे। पेड़ इतना दृढ़ नहीं था कि इन सबके भार को वहन कर सके। पेड़ टूटेगा, सभी की जल-समाधि हो जायेगी। अपंग पति तो असहाय था, क्या सोचता, नन्हीं बालिका क्या निर्णय लेती ? पत्नी ने अपने पति को शीघ्र अपने आभूषण उतारकर दिये। बालिका को उसके पास छोड़कर छलांग लगा दी। यह त्याग करने वाली कौन थी ? पत्नी। यह भी तो मनुष्य है।
भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष में जब बलिदानी नेता कारागार में बन्द हुए, तो उनकी पत्नी ने घर को ही कारागार बना लिया। वैसा ही बिस्तर तथा वैसी ही बालू मिले आटे की रोटी खाकर साधना में संलग्र हो गई - पत्नी। इतिहास साक्षी है हमारे देश में ऐसे-ऐसे उपकारी मनुष्य हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण सुख-सुविधाओं को छोड़कर, तिल-तिल जल कर त्याग, तपस्या एवं साधना से ऐसे अनुसंधान-आविष्कार किये, जिनसे सम्पूर्ण मानव-समाज को जीवन का आधार प्राप्त हुआ। वेद-शास्त्र, भाषा व्याकरण, खेती, उद्यान, कल-कारखाने, भवन, वाहन, दूरभाष, दूरदर्शन, औषधि, उपचार, धर्म, यज्ञ, सदाचार आदि एक से एक बढ़कर जीवनाधार पदार्थों को खोज कर हमें देने वाले वे मनुष्य ही थे।
चिन्तन करने पर पता चलता है कि मनुष्य वह नहीं होता है जो जन्म लेता है। मनुष्य वह होता है जो बन जाता है। छोटे-बड़े किसी पशु की आप कल्पना कीजिये। चूहा, कुत्ता, शेर, चीता, गाय, भैंस, बकरी-इनका शिशु जब जन्म लेता है तो वह वही होता हे जो उसके जन्मदाता होते हैं। वह अपने माता-पिता का प्रतिरूप केवल देह से ही नहीं, कार्य से भी होता है। सम्पूर्ण जीवन वह वही व्यवहार करता है जो उसके अग्रज जन्म से करते आये हैं। किन्तु मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी हैं, जिसका शिशु जन्म होते समय वह नहीं होता है जो उसके माता-पिता होते है। वह वही होता है जो उसे बना दिया जाता है। भेड़िया द्वारा उठा लिया गया बालक रामू बच जाने पर उन्हीं के साथ रहने लगा था, वैसे ही चलता था, वैसे ही खाता था। लखनऊ के बलरामपुर चिकित्सालय में रखकर उपचार कराये जाने पर भी दुबारा वह मनुष्य नहीं बन पाया और उसका प्राणान्त हो गया।
मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए जन्म ही नहीं, गर्भ धारण से ही सतर्क रहना पड़ता है। इसीलिए सभी सोलह तथा इनसे भी अधिक नित्यप्रति के संस्कारों की आवश्यकता होती है। तभी हमें मनुष्य का सही संस्करण प्राप्त हो सकता है, अन्यथा वह कोई उपकरण न रहकर अपकरण ही रह जाता है। एक ओर जहां राम-कृष्ण-प्रहलाद हैं, तो दूसरी ओर रावण-कंस-हिरण्यकश्यप आदि हैं।
इसीलिए वेदमाता ने पद-पद पर हमें सतर्क एवं सावधान किया है। प्रस्तुत एक ही मन्त्र हमें मनुष्य बनने का विशद उपदेश देता है- तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान्। अनुल्वणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्॥ (ऋग्वेद 10.53.6)
अर्थात् मनुष्य की योनि-आकृति पाने वाले हे मानव! संसार का ताना-बाना बुनते हुए तू प्रकाश का अनुसरण कर। बुद्धिमानों द्वारा निर्दिष्ट ज्योतिर्मय मार्गों की रक्षा कर। निरन्तर ज्ञान एवं कर्म का अनुष्ठान करने वाले उलझन रहित आचरण का विस्तार कर। मनुष्य बन और दिव्य मानवता का प्रकाशन कर तथा दिव्य सन्तानों को जन्म दे।
यहां पर हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध बनने का आदेश नही है, प्रत्युत एक उत्तम मानव बनने का संदेश है। जब मानव उत्तम होगा, तो वह जहां भी होगा, रामायण, कुरान, बाइबिल या अन्य कोई भी ग्रंथ पढ़ेगा, उसमें हृास, विकास, अन्धविश्वास विषयक जो भी लेखन होगा, उससे भ्रमित हुए बिना उसका वह स्वयं एक ही अर्थ निकाल लेगा कि मनुर्भव-श्रेष्ठ बन, सुखद बन। मनुष्य के अधिकार में पाँच ज्ञानेन्द्रियां है, किन्तु विचार किया जाये तो प्रत्येक इन्द्रिय के कार्य-क्षेत्र में पशु उससे आगे हैं। किसी का स्वर मधुर है, जैसे- कोयल, किसी की घ्राणेन्द्रिय तीव्र है, जैसे- कुत्ता, किसी की दृष्टि दूरगामी है, जैसे-गिद्ध, किसी को कर्णप्रिय संगीत सुहाता है, जैसे-हिरण, कोई स्पर्शग्राही है, जैसे-हाथी। पक्षी उड़ सकते हैं, मानव नहीं उड़ सकता है। किन्तु इन सभी मानवेतर प्राणियों के पास अपनी स्वाभाविक सीमित बुद्धि है। मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जिसे प्रभु ने बुद्धि का अनन्त वरदान दिया है।
मनुष्य की विशेषता यही है कि उसके पास बुद्धि है, जिसे वह अपने संस्कारों के आधार पर सुबुद्धि या कुबुद्धि के रूप में प्रयोग कर सकता है।
वह भी मानव है जो अपने बंगले, वस्त्र, भोजन सभी को बढ़िया से बढ़िया रखना चाहता है, किन्तु जो सेवक, कलाकार, श्रमिक इस कार्य को करके देता है, उसकी ओर उसका ध्यान कम जाता है। इस भीड़ भरे संसार में मनुष्य की मनुष्यता विलीन होती जाती है। उसके वापिस लाने के तीन ही साधन हमारे पास हैं- सेवा, संत्सग और स्वाध्याय। एक चित्रकार ने जब एक सौम्य सुन्दर आकर्षक मानव का चित्र बनाना चाहा तो वह उसकी खोज में सर्वत्र धक्के खाता रहा। पूर्ण परिश्रम के बाद किसी प्रारम्भिक पाठशाला में एक शिशु अच्छा लगा जिसका उसने चित्र बना लिया। ऐसे अनेक चित्र बनाकर अपना जीवन यापन करता रहा। पर्याप्त वर्ष बीत जाने पर उसने निश्चय किया कि अब वह किसी भयानक क्रूर व्यक्ति का चित्र बनायेगा। उसकी खोज चलती रही। किसी कारागार में एक ऐसा डरावना व्यक्ति मिल गया। चित्रकार ने उससे कहा कि मैं तुम्हारा चित्र बनाऊंगा। कुछ देर बैठ कर चित्र बनवा लो। उस व्यक्ति ने जब चित्र बनाने वाले व्यक्ति से मना कर दिया तो उसे सहमत करने के लिए चित्रकार ने अपने थैले में से निकालकर उसे कुछ चित्र दिखाने आरम्भ कर दिये। उसमें से एक चित्र को उसने पकड़ लिया। पहले देखा, फिर रोना आरम्भ कर दिया। काराधिकारी ने कैदी से पूछा कि अब तक इतनी यातनायें तुमको दी गई, तुम कभी नहीं रोये। इस भोले बालक का चित्र देखकर क्यों रोने लगे ? कैदी ने उत्तर दिया कि यह मेरा ही बचपन का चित्र है। इससे हमें यही बोध मिलता है कि मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए उसे संस्कार एवं सत्संगति का सहारा सदैव मिलते रहना चाहिए।
अमेरिका के राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन किसी उच्च् सभा में भाग लेने जा रहे थे। मार्ग में किसी गढ्ढे में एक शूकर गिरकर फंस गया था। वह स्वयं नहीं निकल पा रहा था। राष्ट्रपति ने अपने वाहन से उतर कर अपने हाथों से उसे बाहर निकाल दिया। उनके वस्त्र गन्दे हो गये थे। वे उन्हीं वस्त्रों में सभा-स्थल पर पहुंच गये। गन्दे वस्त्र उनके उज्ज्वल चरित्र की कहानी कह रहे थे। वेदोपदेश यही है कि तू देव नहीं बन पाता है तो मत बन, पर तू दानव भी मत बन । मानव तू मानव है, तू मानव ही बन। लेखक - पं. देवनारायण भारद्वाज
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वैकुण्ठ किसे कहते हैं।
Ved Katha Pravachan - 83 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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