वर्तमान में सारा देश विशेषकर शहरी जीवन कष्टसाध्य तथा असाध्य बीमारियों की काली छाया में जी रहा है। यह छाया इतनी गहरी है कि बीमारियों के कारण की खोज अंधेरे कमरे में काली बिल्ली को ढूँढने के समान हो गई है। बीमारियों के नामों की सूची बताने की इसलिए आवश्यकता नहीं है, क्योेंकि उन्हें सभी जानते हैं। एक इलाज किया जाता है तो बीमार दो अन्य बीमारियों को लेकर घर लौटता है। इस प्रकार अमूल्य जीवन काल के गाल में समाता जा रहा है। लाचार मनुष्य इसे "विधि का विधान' कहकर आँसू पीने के लिए विवश है। एक और बड़ी बीमारी फैलती जा रही है, जिसे आतंकवाद कहा जाता है। इस बीमारी ने कितने ही निरपराध स्त्री-पुरुषों व बालकों की जीवन लीला को अकारण ही असमय निगल लिया है और निगलती जा रही है। इस बढ़ते आतंकवाद के कारणों के सम्बन्ध में कई प्रकार के भ्रमात्मक विचार गिनाए जाते रहे हैं। आतंकवाद सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा है। उस पर काबू पाने के हर संभव प्रयास असफल होते जा रहे हैं। भारत के भोले भाले मनुष्य इन दोनों से त्राण पाने के लिए आसमान ताक रहे हैं। बढ़ती हुई असाध्य बीमारियों का जाल और बढ़ते हुए आतंकवाद के कारण मूल्यवान जीवन लीलाओं का असमय निधन, उनकी क्रूर हत्याएँ, इन दोनों को रोक पाने में वर्तमान देश का नेतृत्व, सत्ताधीश, विचारक, नेतागण आदिपूर्णतः असमर्थ हैं।
बढ़ती बीमारियॉं और बढ़ता क्रूर आतंकवाद अनुत्तरित प्रश्नों की तरह देश के सामने खड़े हैं। जब ये प्रश्न भारतीय मनीषा के आयुर्वेदिक तत्ववेत्ताओं के संदर्भ से सुलझाने के प्रयास किए गए, तो जो उत्तर मिले वे यहॉं प्रस्तुत किए जाते हैं। निरपराध-निरीह पशु-पक्षियों के वध करने से हृदय में क्रूरता का भाव उत्पन्न होता है। यह भाव मन-मस्तिष्क को विकृत कर तनाव उत्पन्न करने वाला होता है। इसके परिणामस्वरूप रक्त प्रवाह में उत्तेजना आती है, जो कई प्रकार की बीमारियों का कारण है। प्रश्न उपस्थित हुआ कि सभी तो पशु-वध नहीं करते, फिर वे भी तो असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं? उत्तर कि मिला मांसाहार बीमारियों का कारण है। मनुष्य का मूल भोजन तो शाकाहार-फलाहार है। बीमार होने पर चिकित्सक फलाहार की ही तो सलाह देते हैं। किस पशु या पक्षी में कौन सी बीमारी पनप रही है, इसका भी तो पता नहीं रहता। मनुष्य के दॉंतों और आंतों की रचना मांसाहार के कतई अनुकूल नहीं है। इस प्रकार की मान्यता को स्वीकार कर अनेक विदेशी शान्त एवं रोगरहित जीवन जीने में सफल हो रहे हैं। अहिंसा-धर्म के अनुसार जीवन जीने वाले हमारे आदर्श महात्मा गांधी एक सौ पच्चीस वर्ष तक नीरोग जीवन जीने में विश्वास रखते थे। शाकाहारी महापंडित श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर नीरोग रहते हुए शतायु हुए थे। कथन का सारतत्व यह है कि पशुवध और मांसाहार दोनों ही हानिकारक होने के कारण त्याज्य हैं। ऐसा करके मानव-जाति को अनेक बीमारियों से बचाया जा सकता है।
आतंकवादियों के निर्दय एवं क्रूर-स्वभाव का आधार भी यही है। भारतीय मनीषा के मनोवैज्ञानिक तत्वदर्शियों के अनुसार मानव के कर्म ही उसके संस्कार और स्वभाव के मूलभूत कारण होते हैं। शिशु जन्मजात क्रूर नहीं होता। जब वह घरों में तथा अभिभावकों द्वारा निरीह पशुओं का वध होते देखता है, तो वह भी वैसा करने लगता है। धीरे-धीरे वह निर्दय होता जाता है। मरते पशु-पक्षियों की चीत्कार और रुदन उसे विचलित नहीं करते और वह उनका गला काट देता है। क्रूरता के इसी भाव से प्रेरित होकर आतंकी समय आने पर निरपराध व्यक्ति की हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकता। आतंकवादी इसी क्रूरभाव, संस्कार और स्वभाव से प्रेरित होते हैं। वे सुकुमार बालकों, निरपराध स्त्रियों और पुरुषों का बड़ी संख्या में वध कर डालने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
अतः स्पष्ट है कि बीमारियो तथा आतंकवादियों की निर्दयता और क्रूर स्वभाव का कारण निरपराध पशु-पक्षियों का वध एवं मांसाहार हैं। इसे रोके बिना बढ़ती-फैलती बीमारियों के फैलाव को रोका नहीं जा सकता। निर्दयता के भावों का जन्म पशुवध जैसे क्रूर कर्मों के करने और देखने से तथा मांसाहार से ही होता है।
जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन। -प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी, अक्टूबर 2008 (Divya Yug 2008)
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