दाम्पत्य जीवन की सफलता इस बात में अन्तर्निहित है कि पति-पत्नी दोनोें एक-दूसरे के विश्वासपात्र बनें। भारतीय नारी का योगदान यह होना चाहिए कि वह अपने पति को "भोगवादी' न बनने दे"स्वतन्त्रचेता' बनने दे।
दहेज प्रथा भारतीय समाज का कैंसर है। यह वस्तुतः हमारे समाज के लिए एक अभिशाप है, एक कलंक हैतथा एक ऐसा ज्वलन्त प्रश्न है जिसका निदान तलाशना आज सर्वथा अपरिहार्य है।
दाम्पत्य जीवन की सफलता का मूल्यांकन उपलब्धियों के आधार पर होना चाहिए, मानसिक स्तर, आर्थिक स्तर तथा जीवन स्तर। जीवन की इन्हीं में "सार्थकता' है।
जिन लोगों की सन्तानें भली-भॉंति शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर लेती हैं तथा अपने जीवन में योग्य बन जाती हैं, उनका जीवन "धन्य' हो जाता है। जिन लोगों की सन्तानें योग्य नहीं बन पातीं, जीवन की दौड़ में पिछड़ जाती है, उनका जीवन "कलंकित' हो जाता है।
स्वर्ग एवं नरक किसी ने नहीं देखे। ये दोनों इसी धरती पर लक्षित हो जाते हैं। जहॉं शिक्षा, ज्ञान, मानवता तथा समृद्धि, सम्पन्नता विद्यमान है, वहॉं स्वर्ग है। जहॉं अशिक्षा, अज्ञान, दानवता तथा दरिद्रता हैं, वहॉं नरक है।
जो मॉं-बाप अपनी सन्तानों के अन्दर बचपन में ही अच्छे-अच्छे संस्कार (प्रचण्ड परिश्रम, ईमानदारी, अनुशासन, सदाचार एवं आज्ञाकारिता आदि) डाल देते हैं, वे उनके व्यक्तित्व-निर्माण में अपरिहार्य भूमिका निभाते हैं।
मॉं-बाप के नाम को उज्ज्वल करना ही सन्तान का धर्म होता है। आज समाज में अधिकांश सन्तानें ऐसी लक्षित होती हैं, जो जनसंख्या तो बढ़ा रही हैं, पूर्वजों के वंश को आगे तो बढ़ा रही हैं, किन्तु अपने मॉं-बाप के नाम को उज्ज्वल नहीं कर रही हैं। ऐसी सन्तानें "सन्तति' के नाम पर "कलंक' ही कही जाएंगी।
आदर्श दाम्पत्य जीवन का आधार यह होना चाहिए कि स्त्री पुरुष "जीने की कला' सीखें तथा अपनी शारीरिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक आर्थिक, शैक्षिक तथा धार्मिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं को भी पूरा करें।
जो भारतीय नारी विवाह के बाद अपने पीहर पक्ष की बातें ससुराल पक्ष में तथा अपने ससुराल पक्ष की बातें अपने पीहर पक्ष में परोसती रहती है, उसका पतन अवश्यम्भावी है। ऐसी नारी जीवन पर्यन्त "जीने की कला' सीखने से वंचित ही रह जाती है। "जीने की कला' जान लेना ही वस्तुतः सफल जीवन की "कुंजी' है।
हर व्यक्ति का चरित्र राष्ट्रीय चरित्र का मूलाधार है। अच्छा नागरिक बनने के लिए व्यक्ति का गुणात्मक दृष्टि से विकास परमावश्यक है। यदि आपको किसी से कुछ सीखना है तो उसके जीवन के "उज्ज्वल पक्ष' पर ही ध्यान देना चाहिए।
जो व्यक्ति अपने परिवारों में जनसंख्या बढ़ाते हैं, भारत के सामने समस्याएँ खड़ी करते हैं, वे शैक्षिक दृष्टि से आगे क्यों नहीं बढ़ जाते?
जो व्यक्ति दूसरों की कमियॉं ढूंढने में अपना समय बर्बाद करता है, उसका विकास-मार्ग ही रुक जाता है। इसलिए हर व्यक्ति को चाहिए कि वह दूसरों की कमियॉं ढूंढने में अपना समय बर्बाद न करके अपनी प्रगति की बात ही सोचे तथा प्रगति मार्ग पर बढ़े।
जैसे शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ रहने के लिए उचित मात्रा में खान-पान आवश्यक है, वैसे ही मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रहने के लिए अच्छी-अच्छी पुस्तकों का अध्ययन-अनुशीलन आवश्यक है। जीवन के समुचित विकास के लिए इन दोनों दृष्टियों से सन्तुलन बनाए रखना सर्वथा अपरिहार्य है।
अहंकार तथा कृतघ्नता मोक्ष प्राप्ति में बाधक हैं।
वह शिक्षा नहीं है, जिसमें अच्छे संस्कार नहीं हैं। एक सच्चरित्र तथा विचार-प्रधान नागरिक देश की सबसे बड़ी पूंजी होती है। भोगवादी की आत्मा मर जाती है।
हर व्यक्ति के लिए "दूरभाष' की इतनी आवश्यकता नहीं होती, जितनी आवश्यकता "पुस्तक' की होती है।
स्वस्थ शरीर को सही दिशा में ले जाने के लिए, रचनात्मक कार्य करने के लिए व्यक्ति का मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होना सर्वथा अपरिहार्य है।
जैसा हमारा खानपान होगा, वैसा ही हमारा चिन्तन भी होगा। यदि हम खानपान की दृष्टि से शुद्ध-शाकाहारी हैं तो हमारा चिन्तन भी स्वस्थ होगा, रचनात्मक होगा। फलस्वरूप हमारा व्यक्तित्व दूसरों के लिए प्रेरक एवं प्रभावशाली बन जाएगा और राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से हम अपरिहार्य अवदान कर सकेंगे।
गीता में "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः' कहकर दो बातों का सन्देश दिया गया है- 1. व्यक्ति अहंकारी न बने तथा वह सांसारिकता के जाल में न फंसे। 2. हर व्यक्ति कोई भी काम करते समय "आत्मनिरीक्षण' करता रहे।
जो व्यक्ति भारत में हुआ है और वह अपने देश के महापुरुषों के जीवन-दर्शन के बारे में यथेष्ट जानकारी लेने के लिए परिश्रम नहीं करता, उससे और क्या आशा की जा सकती है?
जब हम देशवासी अपने दैनिक जीवन मे जीवन-मूल्यों (सत्य, अहिंसा, समता, बंधुता, सदाचार, अनुशासन, संयम, कर्मशीलता, सहनशीलता, विनयशीलता, सादगी, ईमानदारी, धीरज तथा सन्तोष) को नहीं अपनाएंगे, तब तक उनका मानसिक विकास भी नहीं हो सकता, यह ध्रुव सत्य है।
विलासिता, निर्बलता एवं चाटुकारिता के वातावरण में जो लोग सोए हुए हैं, उनको कोई भी शक्ति जाग्रतावस्था में नहीं ला सकती। इसका एकमात्र समाधान है- "आत्मनिरीक्षण'।
डॉ. महेशचन्द्र शर्मा साहिबाबाद
दिव्य युग मार्च 2009 Divya yug march 2009
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
भारत देश की गुलामी के कारण
Ved Katha Pravachan - 48 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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