बहरहाल, अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेजगति के साथ हिन्दी के खिलाफ शुरू हो चुकी है। इस हिंसा के जरिए भाषा की हत्या की सुपारी आपके अखबार ने ले ली है। वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक-संकोच अनुभव किए खासी अच्छी उतावली के साथ उतर चुका हैं। उसे इस बात की कोई चिन्ता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है। डविड क्रिस्टल तो एक शब्द की मृत्यु को एक व्यक्ति की मृत्यु के समान मानते हैं। ऑडेन तो बोली के शब्दों को इरादतन अपनी कविता में शामिल करते थे कि कहीं वे शब्द मर न जायें। और टी.एस. इलियट प्राचीन शब्द, जो शब्दकोष में निश्चेष्ट पड़े रहते थे, को उठाकर समकालीन बनाते थे कि वे फिर से सांस लेकर हमारे साथ जीने लगें। आपको शब्द की तो छोड़िये, भाषा तक की परवाह नहीं है। लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अंग्रेजी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं। आप हिन्दी के लिए हिन्दी के डेढ़ करोड़ पाठकों का समुदाय बनाने का नहीं, बल्कि हिन्दी के होकर हिन्दी को खत्म करने का इतिहास रचने जा रहे हैं। आप धन्धे में धुत्त होकर होकर जो करने जा रहे हैं, उसके लिए आपको आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी। आपका अखबार उस सर्प की तरह है, जो बड़ा होकर अपनी ही पूँछ अपने मुँह में ले लेता है और खुद को ही निगलने लगता है। आपका अखबार हिन्दी का अखबार होकर हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है। जो कारण जिलाने के थे, वे ही कारण मारने के बन जाएँ, इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है? यह आशीर्वाद देने वाले हाथों द्वारा बढ़कर गर्दन दबा दिये जाने वाली जैसी कार्यवाही है। कारण हिन्दी के पालने-पोसने और या कहें कि उसकी पूरी परवरिश करने में हिन्दी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रहती आई है।
जबकि आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक दृष्टि से उपजी "भाषा-चेतना' ने इतिहास में कई-कई लम्बी लड़ाइयॉं लड़ी है। इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो आप पायेंगे कि आयरिश लोगों ने अंग्रेजी के खिलाफ बाकायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएँ अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरुद्ध न केवल इतिहास में अपितु इस "इंटरनेट युग' में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी है। इन्होेंने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया।
बहरहाल मेरे इस पत्र का उत्तर अखबार मालिक ने तो नहीं ही दिया। वे भला देते क्या? और देते भी क्यों? सिर्फ उनके सम्पादक और मेरे अग्रज ने कहा कि हिन्दी में कुछ जनेऊधारी तालिबान पैदा हो गये हैं, जिनसे हिन्दी के विकास को बहुत बड़ा खतरा हो गया है। यह सम्पादकीय चिन्तन नहीं, अखबार के कर्मचारी की विवश टिप्पणी थी। क्योंकि उनसे तुरन्त कहा जायेगा कि श्रीमान! अपने भाषा प्रेम और नौकरी में से कोई एक चुन लो।
बहरहाल, अखबार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले चार सालों से वे अपने संकल्प में जुटे हुए हैं। और अब तो हिन्दी में अंग्रेजी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने विदेशी पूँजी को पचाकर मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी अखबारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी नागरी-लिपि को बदल कर, रोमन करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब इस तरफ कूच कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेण्डा बना लिया है। क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय इस सायबर युग में रोमन लिपि की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है। यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है। जी हॉं! कम्प्यूटर माऊस की पीठ पर चढ़कर।
अंग्रेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था- ""अंग्रेजों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत जरूरी है। और वे धीर-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं। ठीक इसी युक्ति से हिन्दी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के ये चिन्तक यही बता रहे हैं कि हिन्दी का मरना, हिन्दुस्तान के हित में बहुत जरूरी हो गया है। यह काम देश सेवा समझकर जितना जरूरी हो सके करो। अन्यथा तुम्हारा देश ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणामस्वरूप वे हिन्दी को विदाकर देश को ऊपर उठाने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं। ये हत्या की अचूक युक्तियॉं भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए "बाआसानी संहार' किया जा सकता है। वे कहते हैं कि हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइये, "प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिजम'। अर्थात बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को "सायास' बदला जा रहा है। बल्कि बोलने वालों को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और म.प्र. के कुछ अखबारों की भाषा में यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है। बहरहाल, इसका एक ही तरीका है कि अपने अखबार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनिक प्रयोग के शब्दों को हटाकर उनकी जगह अंग्रेजी के उन शब्दों को छापना शुरु कर दो, जो बोलचाल की भाषा में शेयर्ड- वॉकेबलरी की श्रेणी में आते हैं। जैसे कि रेल, पोस्टकार्ड, मोटर आदि-आदि।
इसके पश्चात धीर-धीरे इस शेयर्ड वॉकेबलरी में रोज-रोज अंग्रेजी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये। जैसे पिता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स, विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी, रविवार की जगह संडे, यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि। अन्ततः उनकी संख्या इतनी बढ़ा दो कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें। यह चरण "प्रोसेस ऑव डिस्लोकेशन' कहा जाता है। यानी कि हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम।
ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे "स्नोबाल थियरी' काम करना शुरु कर देगी। अर्थात् बर्फ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए। कुछ देर बाद वे घुलमिलकर इतने जुड़ जाएंगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं हो सकेगा। यह थियरी भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी से ऐसे जुड़ जायेंगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा।
इसके पश्चात् शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अंग्रेजी के वाक्यांश छापना शुरु कर दीजिए। अर्थात् इनक्रीज द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेजेज। मसलन, आऊट ऑफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन आदि आदि। कुछ समय के बाद लोग हिन्दी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जायेंगे। उदाहरण के लिए हिन्दी में गिनती स्कूल में बन्द किये जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रुपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पायेगा, जब तक कि उसे अंग्रजी में सिक्सटी एट नहीं कहा जायेगा। इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अखबार से उठाकर दे रहा हूँ-
""मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड़ को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं। क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड़ को ब्लॉक कर देते हैं। इन प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।''
इस तरह की भाषा को लगातार पॉंच-दस वर्ष तक प्रकाशन के माध्यम से पढ़ते रहने के बाद अखबार के पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाए कि वह हिन्दी में बोले तो वह गूंगा हो जायेगा। उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं "इल्युजन ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन'। अर्थात् हिन्दी की जगह अंग्रेजी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म। (क्रमशः) प्रभु जोशी
दिव्य युग अगस्त 2009 इन्दौर Divya yug August 2009 Indore
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