राष्ट्र-चिन्तन
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक अंग्रेजों ने विश्व के विविध भागों में अपनी विजय वैजयन्ती फहराकर यह उक्ति चरितार्थ करा दी थी कि ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता। इसमें सच्चाई भी है। ब्रिटिश लोग जहॉं-जहॉं भी गये, अपनी कूटनीति के द्वारा वहॉं के निवासियों में हीनभावना उत्पन्न कर, उन्हें असभ्य, जंगली, बाहर से आये हुए बताकर दासता के बन्धन में बान्धते गये। भारत इस कूटनीति से सर्वाधिक पीड़ित तथा दमन का शिकार हुआ।
सांस्कृतिक, दार्शनिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से भारत की जड़ें मजबूत थीं। इस तथ्य से अंग्रेज भी भलीभांति परिचित हो चुके थे। फ्रांस, जर्मन आदि देशों में भारतीय दर्शन, व्याकरण तथा काव्य का अध्ययन हो रहा था, जिससे वहॉं के लोग प्रभावित भी थे। परन्तु अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि यहॉं कि अकूत सम्पदा तथा संसाधनों पर थी। इसलिये उन्होंने ऐसा प्रपंच रचा कि यहॉं के निवासी अपनी मर्यादा, महत्व, साहित्य, अपने आदर्श, राष्ट्रीयता तथा सांस्कृतिक श्रेष्ठता को विस्मृत कर हीनभावना से ग्रस्त हो सदा के लिए दासत्व को स्वीकार कर लें।
इसलिये उन्होंने साम, दाम, दण्ड, भेद से लेकर झूठे, मनघड़न्त काल्पनिक प्रमाण प्रस्तुत कर अधिकांश शक्ति इस भ्रामक प्रचार में लगा दी कि भारत कभी एक देश नहीं था। यहॉं के मूल निवासी जंगली और असभ्य थे। यहॉं आर्य लोग बाहर से आये और उन्होंने यहॉं के मूल निवासियों को दक्षिण की ओर खदेड़ दिया तथा अपना अधिपत्य जमाया।
यहॉं कुछ प्रश्न सामने आते हैं। क्या भारत एक देश है? क्या आर्य बाहर से आये? क्या भारत के मूल निवासी जंगली और असभ्य थे? ये सभी प्रश्न महत्वपूर्णहैं। समय-समय पर इन पर विचार और समाधान भी होता रहा है। फिर भी नासूर की तरह ये उभर ही आते हैं। हम प्रथम प्रश्न पर ही विचार करेंगे। सम्भव है प्रश्न की तरह समाधान में भी पुरातनता का आभास हो। किन्तु नई पीढ़ी को इन तथ्यों से परिचित होना आवश्यक है, जिससे उसमें स्वाभिमान तथा स्वदेशाभिमान का भाव जाग्रत हो सके।
प्रश्न यह है कि किसी देश (राष्ट्र) की एकता की कसौटी क्या है? प्रश्न सुनने में सरल किन्तु विचारने में गम्भीर है। राष्ट्रवाद के दो रूप हैं। पहला है शाश्वत रूप और दूसरा सामयिक। राष्ट्रवाद के शाश्वत रूप को हम सांस्कृतिक और सामयिक रूप को ऐतिहासिक पक्ष कह सकते हैं। राष्ट्रवाद के पहले रूप में सांस्कृतिक और नैतिक पक्षों का समावेश होता है। यही राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद का मूलाधार पक्ष है और इसी में किसी राष्ट्र की दृढ़ता, एकता और प्राचीनता सन्निहित है।
राष्ट्रीय तत्वों को व्याख्यायित करते हुए कहा जा सकता है कि किसी देश की भूमि, उस भूमि के निवासी, उन निवासियों की संस्कृति अर्थात् भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता और भावाभिव्यक्ति का साधन भाषा ये राष्ट्रीयता के अनिवार्य तत्व हैं। वस्तुतः भाषा ही राष्ट्र की चेतना को व्यक्त करती है। सूत्र रूप में कहा जा सकता है कि भूमि उसका (राष्ट्र का) कलेवर है, जन उसका प्राण है, संस्कृति उसका मानस है और भाषा राष्ट्र की अन्तश्चेतना के प्रकटीकरण का सर्वाधिक सशक्त साधन है।
इतिहास के अध्येता जानते हैं कि पश्चिमी विद्वान विशेष रूप से अंग्रेज वर्षों से यही ढिंडौरा पीटते रहे हैं कि भारत न कभी एक देश रहा है, न अब है, न रह सकता है। यह तो हमारी (अंग्रेजों की) कृपा और प्रयत्न है कि यह देश एक लगता है। आपको ध्यान होगा कि सन् 1947 से पहले लार्ड क्रिप्स ने ब्रिटिश योजना के अन्तर्गत यह बात दोहराई थी- India is not a country but it is a Continent it self. भारत एक देश नहीं अनेक देशों का समूह है। उसने आगे कहा कि भारत में धर्म, भाषा, लिपि, पहरावा, खान-पान, रीति-रिवाज, प्रथा-परम्परा सबमें भिन्नता है, फिर यह एक देश कैसे हो सकता है? सुनने में दलील जोरदार लगती है, पर है बिल्कुल थोथी।
अंग्रेज राजनीतिज्ञों के अनुसार यदि ऊपर गिनाई गई बातें ही एक देश की कसौटी हैं तो
इटली, जर्मनी, फ्रांस आदि का खानपान, पहरावा एक है तथा धर्म भी इन सबका एक ही है। ईरान, ईराक, अफगानिस्तान तथा अरब के अनेक देशों की संस्कृति, धर्म, नस्ल और मान्यताएं भी प्रायः समान हैं। चीन, जापान, लंका आदि की भी लगभग यही स्थिति है, तो क्या ये एक देश हैं ?
एकता केवल धर्म, केवल भाषा या पहरावे और रीति-रिवाज में ही नहीं होती। हॉं, ये तत्व भी एकता के नियामक हैं। अब पश्चिम के अन्य देशों पर भी दृष्टिपात कर लें। स्विट्जरलैण्ड, बेलजियम, इंग्लैण्ड आदि जनसंख्या तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से भी बहुत छोटे देश हैं। वहॉं कई-कई भाषाएं बोली जाती हैं। फिर भी वे एक देश हैं। सब जानते हैं कि इंग्लैण्ड, वेल्स, स्कॉटलैण्ड तथा अलस्टर इन चार भूभागों को मिलाकर एक देश बनाया गया, जिसका नामकरण किया गया- United Kingdom (UK) यहॉं के झण्डे का नाम भी Union Jack है। यूनाइट का मतलब ही संयुक्त (मिलाजुला) है। फिर भी यह एक देश है। अब अमेरिका को लीजिए। उसका पूरा नाम है यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका (ण.ड.अ.)। वह भी 48 राज्यों (शायद कुछ अधिक ही) का संघ है। उसके झण्डे पर भी 48 नक्षत्र बने हैं। निश्चय ही यह 48 राज्यों का संघ ही है। यहॉं की नस्ल, भाषा, संस्कृति में भी भिन्नता है। यह जानकर कदाचित् आश्चर्य हो कि "न्यूयार्क' का मेयर बनने के लिये ही कम से कम 5-6 भाषाओं का जानना आवश्यक है। जब एक नगर की यह स्थिति है तो देश की तो बात ही छोड़िये। सभी लोग इस तथ्य से भलीभॉंति परिचित हैं कि अमेरिका में सम्भवतः इतने मूल अमेरिकन न हों जितने अंग्रेज, डच, इटालियन, फ्रेंच, चीनी, जापानी तथा भारतीय एवं अन्य देशों की जातियां बसी हुई हैं। यही हाल कनाडा का तथा रूस का भी है। पर फिर भी ये देश एक हैं। बावजूद इसके कि इन सभी देशों में अनेक भाषाएं, विभिन्न रीति-रिवाज-प्रथा तथा परम्पराएं हैं। भौगोलिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से भी विभिन्नता है। जबकि भारत तो मूलतः देश ही एक है। फिर उसके साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों?
वस्तुतः भारतीय एकता इन सबसे अधिक दृढ़ व स्थायी है। दुर्भाग्यवश उसे छिन्न-भिन्न करने में अंग्रेज कूटनीतिज्ञ तथा बहुत सीमा तक हम स्वयं भी उत्तरदायी हैं, जो उनकी लच्छेदार बातों से सम्मोहित कर उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाने लगे। कुछ सर्वमान्य उदाहरण इस एकता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होंगे।
आप भारत के किसी भी कोने में, किसी भी भाषा-भाषी आंचल में, किसी भी प्रान्त में जाइये आबाल वृद्ध नर-नारी सभी में सीता, सावित्री, दमयन्ती, दुर्गा, लक्ष्मी इन सबके प्रति आदर की भावना मिलेगी। सबमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, शंकर के प्रति आत्मीयता का भाव दृष्टिगोचर होगा। वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गौ, गंगा, गीता, गायत्री के प्रति सभी में आस्था के दर्शन होंगे। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, चैतन्य, तुलसी और मीरा के प्रति सबमें ममता का भाव मिलेगा।
इस देश के पर्वों पर दृष्टि डालिये। दीवाली पर अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी, सेठ-साहूकार, किसान, मजदूर, व्यापारी यहॉं तक कि वनवासी भी अपने आवास पर दीपक जलाकर उसके प्रकाश में भगवती लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं। होली के पर्व पर ऊंच-नीच के भेदभाव को भुलाकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कटक तक बच्चे- बूढ़े सभी भांति-भांति के रंगों में सराबोर हो मस्ती से झूमते-गाते एक हो जाते हैं। दशहरे के अवसर पर बुराई पर अच्छाई का प्रदर्शन सारे देश में उल्लासपूर्वक किया जाता है। इस प्रक्रिया में न जात-पॉंत आड़े आती है, न भाषा, न धर्म और न ही प्रान्ततथा न रीति-रिवाज
अब भौगोलिक दृष्टि से भी सरसरी निगाह डाल लें। भारत के एक ओर हिमालय और तीन तरफ से महासागर इसे एकता के सूत्र में बांधता है। हरिद्वार और कन्याकुमारी का नाम सर्वश्रुत है।
पौराणिक साहित्य में शिव पार्वती का नाम भी चिरपरिचित है। पार्वती का निश्चय था- कोटि जनम ते डगर हमारी वरहुँ शम्भु न तो रह हूँ कुंआरी। पार्वती का प्रण था कि विवाह करूँगी तो शिव से, अन्यथा अविवाहित ही रहूँगी। इस प्रकार के अनेक ऐतिहासिक आख्यान भारतीय ऐतिहासिक फलक पर स्वयम्वर सम्बम्धी मिलते हैं। सब जानते हैं कि भारत के उत्तरी छोर हरिद्वार में ध्यानावास्थित रूप में शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है और धुर दक्षिण में कन्याकुमारी में पार्वती संगमरमर की मूर्ति के रूप में खड़ी तपस्यारत है। प्रसिद्ध है कि परिणय होने पर दोनों हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर अवस्थित हुए। हिमालय के उस शिखर का नाम 'गौरीशंकर' आज भी सर्वमान्य है। न जाने यह नाम कब से इसी रूप में चला आ रहा है। इसके पीछे चाहे कुछ भी रहस्य हो, पर भारत की एकता तो सिद्ध होती ही है।
सांस्कृतिक एकता का अटूट सम्बन्ध भारत को सनातन काल से एकता के सूत्र में आबद्ध किये हुए हैं। निश्चय ही सांस्कृतिक एकता को सिद्ध करने के लिये किसी विज्ञापन की आवश्यकता नहीं होती। प्रातःकाल स्नान करते हुए इस देश का साधारण से साधारण व्यक्ति राष्ट्र की एकता का भी जाप करता है। समस्त नदियोें का जल ही राष्ट्राम्बु है। उसी राष्ट्रीयता में वह स्नान कर राष्ट्र अथवा देश की एकता में स्नान करते हैं। यही इस देश की एकता का प्रबल प्रमाण है। कश्मीर, तमिल या केरल के किसी भी ब्रह्म देवता के मुखारबिन्द से ये शब्द सुनने को मिलेंगे-
गंगे च यमुने चैव सरस्वती गोदावरी।
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु।।
निश्चय ही वह तन की शुद्धि के साथ राष्ट्र की एकता का भी जाप करता है। यही इस देश की एकता का प्रबल प्रमाण है। आज भी समर्पित तीर्थ यात्री उत्तरी छोर पर स्थित गंगोत्री का पवित्र जल लेकर महीनों पद-यात्रा करके सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम् की मूर्ति पर चढ़ाता है। इसी श़ृंखला के अन्तर्गत निम्नोधृत श्लोक देखिए-
अयोध्या मधुरा माया काशी कॉंची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका।।
कहॉं भारत के पश्चिमी छोर पर द्वारिका, कहॉं वहॉं से हजारों मील दूर पूर्वी छोर पर पुरी! कहॉं अवन्तिका, कहॉं अयोध्या, काशी! पर भक्त के लिये तो ये सभी मोक्षधाम हैं, चाहे वह देश के किसी भी कोने में रहता हो।
इस वास्तविकता से सभी परिचित हैं कि आदि शंकराचार्य का जन्म सुदूर दाक्षिणात्य प्रदेश केरल में हुआ, किन्तु अपने सिद्धान्तों और धर्म प्रचार करने के लिए उन्होंने देश के विभिन्न भागों में जिन चार मठों की स्थापना की, तनिक उस भावना को गहराई से परखिये। देश के उत्तरी छोर पर बद्रीनाथ में जोशी मठ, सुदूर दक्षिण में मैसूर स्थित श़ृंगेरी मठ, देश के पूर्वी छोर पर पुरी में गोवर्धन मठ तथा पश्चिम में द्वारिका में शारदा मठ की स्थापना की। इन मठों की श़ृंखलाबद्ध स्थापना का- एक और केवल एक ही निहितार्थ है भारत की अटूट एकता।
इन सब अकाट्य एवं प्रबल प्रमाणों को जो भारत की एकता को सिद्ध करते हैं, यूरोप वालों विशेष रूप से अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने वास्तविक इतिहास को मिटाने की भरपूर किन्तु असफल कोशिश की। किन्तु उन राजनीतिज्ञों के मुख पर ये दृढ़ उदाहरण करारा चपत हैं।
राजनीतिक दृष्टि से अंग्रेज "भेद करो और शासन करो' की नीति में सफल रहे, जिसमें हमारी आपसी फूट तथा परस्पर अविश्वास मुख्य कारण हैं। किन्तु सांस्कृतिक परम्परा की दृष्टि से देश अभेद्य रहा। इकबाल जैसे व्यक्ति के ये उद्गार भी इसी के साक्षी हैं- "यूनान, मिस्र व रोमां सब मिट गये जहॉं से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।' दुर्भाग्यवश वही डॉ. इकबाल बाद में पाकिस्तान समर्थक बन गये। स्वार्थ और संस्कारों की दुर्बलता मनुष्य से क्या नहीं करा लेती? अस्तु..........
जरा विचारिये हरिद्वार, प्रयाग तथा उज्जैन आदि में लगने वाले कुम्भ मेलों में बिना बुलाये बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, आन्ध्र, आसाम आदि से हजारों नहीं लाखों की संख्या में नर-नारी भिन्न-भिन्न भाषा और वेशभूषा में अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए खिंचे चले जाते हैं। उन्हें कौन सी शक्ति आकर्षित करती है? सांस्कृतिक, धार्मिक, भावनात्मक तथा राष्ट्रीय एकता का यह इन्द्रधनुषी मेल तन-मन को गद्गद् करने वाला है। भारतीय एकता को सिद्ध करने वाले तथ्य तो और भी हैं, किन्तु लेख का कलेवर विस्तृत होने का भय है।
अन्त में हमें यही कहना है कि वैदिक काल से लेकर महर्षि दयानन्द तक, बुद्ध से लेकर नागसेन तक, जिन से लेकर महावीर तक, शंकराचार्य से लेकर रामानुज तथा रामानन्द तक, चैतन्य से लेकर गुरुनानक तक तथा समर्थ गुरु रामदास, रामतीर्थ, विवेकानन्द तथा अरविन्द तक सभी ऋषि-मुनि-सन्त सुधारक इसी पुण्यभूमि पर जन्मे। वेद, आरण्यक, उपनिषद, दर्शन, रामायण, महाभारत, गीता आदि का उदय और प्रकाश यहीं से हुआ। इन सभी की शिक्षाओं और मान्यताओं को समस्त भारतीय किसी न किसी रूप में मान्यता देते हैं। शाखा-प्रशाखाएं भले भिन्न-भिन्न हों किन्तु मूल एक है। फिर भारतीय एकता को कैसे नकारा जा सकता है? - डॉ. सहदेव वर्मा
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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