ओ3म् वृषा ह्यसि राधसे जज्ञिषे वृष्णि ते शव:।
स्वक्षत्रं ते धृषन्मन:सत्राहमिन्द्र पौंस्यम्।।(ऋग्वेद 5.35.4)
शब्दार्थ:- हे (इन्द्र) ऐश्वर्याभिलाषिन् जीव ! तू (हि) सचमुच (वृषा) बलवान (असि) है, तू (राधसे) विजय के लिये (जज्ञिषे) उत्पन्न हुआ है, (ते) तेरा (शव:) बल (वृष्णि) सुखवर्षक है (ते) तेरा (स्वक्षत्रं) अपनी त्रुटियों को पूरा करने का अपना बल है, (ते) तेरा (मन:) मन (धृषन्) बलवान है और (पौंस्यम) शौर्य्य (सत्राहम्) सत्याचरण है ।
संसार में प्राय: लोग जीव को निर्बल मानते हैं। वेद जीवात्मा का असली स्वरूप बताता है । "वृषा ह्यसि' तू वास्तविक रूप से सुख की वर्षा करने वाला है । जीव का कर्त्तव्य संसार में सबको सुखी बनाना है । जो जीव दूसरों को कष्ट देता है, वह कर्त्तव्यहीन तथा गिरा हुआ है। दूसरों की प्रसन्नता से प्रसन्न होना और दूसरों का कष्ट देखकर दुखी होना जीव का धर्म है । महर्षि दयानन्द जी महाराज भारतवासियों को दासता की जंजीरों में बंधा देखकर कष्ट अनुभव करते थे और अपने देश को स्वतन्त्र कराकर सुखी देखना चाहते थे ।
"राधसे जज्ञिषे'- हे जीव ! तू सिद्धि, विजय के लिये उत्पन्न हुआ है । पराजय तेरे पास नहीं फटकनी चाहिये । मनुष्य को कदापि निराश नहीं होना चाहिये । शनै: शनै: अपने आदर्श तक पहुँचने का यत्न करना चाहिये। निराशावाद असफलता को और आशावाद सफलता को प्राप्त कराते है । संसार में वे लोग ही कामयाब हुए हैं, जो आशावादी थे ।" स्वक्षत्रं'- मनुष्य अपनी उन्नति आप कर सकता है । मनुष्य को अपनी त्रुटियों का ज्ञान स्वयमेव ही हो सकता है, अन्य को नहीं । जो मनुष्य अपनी कमजोरी को जान कर उसे दूर करने का यत्न नहीं करता, वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं । आत्मा का गुण ऊ पर जाना, उन्नति करना तथा प्रगतिशील बनना है। आत्मा में संकीर्णता का भाव कदापि उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। वही समाज उन्नत होता है, जिसमें महान आत्मिक बल वाले ज्ञानी होते है । धन का बल भी आवश्यक है, परन्तु आत्मा का बल सब बलों से बड़ा है । आत्मा को किसी मूल्य पर भी नहीं बेचना चाहिये। करोड़ों-अरबों रुपया इसका मूल्य नहीं।
"वृष्णि ते शव:'-जीव ! तेरा बल प्रबल तथा सुखदायी है । कोई विघ्न आये तो घबराना नहीं चाहिए, अपने मन को अभ्यास और वैराग्य से दृढ बनाये रखना चाहिए । अधीर नहीं होना चाहिए । शूरवीरता दूसरों की सहायता से प्राप्त नहीं होती, परन्तु अपने बाहु बल से मिलती है ।
"सत्राहं पौस्यम्'- जीव की शूरवीरता उसके सदाचार में है । सदाचारी सत्य बोलता है, निडर होता है, कष्ट सहकर भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता है । इरादे का पक्का होता है। दानी, श्रद्धालु, त्यागी, तपस्वी होता है । वह ज्ञान का विस्तार करने में आनन्द अनुभव करता है । अपने सिद्धान्त पर जान दे सकता है ।
इस वेद मन्त्र पर आचरण करते हुए हर मनुष्य को आत्मा का महत्व अनुभव करके इसकी कदापि अवहेलना नहीं करनी चाहिए और इसको बलवान बनाते जाना चाहिए।
Divya Manav Mission Explanation of Vedas
जिस मनुष्य ने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है । यदि कर्म करने वाला शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है, तो कर्म भी उतनी ही तेजी के साथ उसके पीछे दौड़ता है । जब वह सो जाता है, तो उसका कर्म-फल भी सो जाता है । जब वह खड़ा होता है, तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलने लगता है, तो वह भी चलने लगता है । इतना ही नहीं, कार्य करते समय भी कर्म-संस्कार उसका साथ नहीं छोड़ता, सदा छाया के समान पीछे लगा रहता है। महर्षि वेदव्यास
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Ved Katha Pravachan - 71 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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