कर्तव्य भाव से फल की आशा से मुक्त होकर ईश्वर को समर्पित कर कर्म करने वाला बन्धन में नहीं आता अपितु वह निर्भय होकर अभिमान, अहंकार तथा कर्तापन के बोझ से मुक्त रहकर आनन्द में रहता है। वास्तव में कर्मफल अपने अधीन है ही नहीं, अतः कर्तापन के भाव को त्याग केवल कर्म ही कर्तव्य है ऐसा समझकर जो कर्म करते हैं वो भय, तनाव से मुक्त रहते हैं। यह गीता के कर्मयोग का वैशिष्ट्य है। गीता तो आत्मतत्व तथा मानव जीवन की सफलता के लिए अपेक्षित दिव्य कर्मों का बोध कराने वाला सम्पूर्ण वेद, उपनिषदों का सारभूत आध्यात्मशास्त्र है जिसमें समत्व दृष्टि, अनाशक्ति, ईश्वर में आत्मसमर्पण, गुणातीतता और स्वधर्म सेवा का अनुपम ज्ञान समाविष्ट है।
गीता केवल ज्ञान, कर्म और भक्ति को योगमंत्र से संजीवित करके उनका समन्वय ही नहीं करती बल्कि वह सारे जीवन को योग में परिणित करने की, जीवन के सभी कर्म व्यवहार में योग को अंगीभूत करने की शिक्षा देती है।
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