पंजाब केसरी लाला लाजपतराय बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। वे एक ओजस्वी वक्ता, समर्पित समाजसेवी, सिद्धहस्त लेखक, निष्पक्ष राजनीतिज्ञ, भावुक हृदय, शिक्षा शास्त्री एवं कर्मठ क्रान्तिकारी थे। लाला जी का पैतृक गांव लुधियाना जिले में जगरावं था। लाला जी का जन्म उनके ननिहाल में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण कट्टर जैन धर्मावलम्बी थे। लाला लाजपतराय ने सन् 1880 में अम्बाला से ऐट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण की और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लाहौर चले गये। सन् 1885 में उन्होंने वकालत की परीक्षा पास की और 1886 में हिसार में वकालत करने लगे। बाद में वे लाहौर में वकालत करने लगे।
लाला जी पर महर्षि दयानन्द सरस्वती की विचारधारा का विशेष प्रभाव पड़ा। महर्षि दयानन्द के देहावसान के बाद उनके स्मारक के रूप में डी.ए.वी. कॉलेज की स्थापना हुई जिसमें गुरुदत्त, हंसराज आदि के साथ-साथ लाला जी की मुख्य भूमिका थी। आर्यसमाज एवं डी.ए.वी. की गतिविधियों के साथ जुड़कर उन्होंने अपने गुरु दयानन्द की विचारधारा को सक्रियता के साथ जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। वे डी.ए.वी. संस्थान के वर्षों अवैतनिक मंत्री तथा उप-प्रधान भी रहे। सन् 1905 में वे अमेरिका की यात्रा पर गए तथा वहॉं की शिक्षण संस्थाओं का गहराई से अध्ययन किया और लौटकर शिक्षा से सम्बन्धित अनेक पुस्तकों का लेखन किया।
लाला जी ने सामाजिक क्षेत्रों में महती सेवा का कार्य किया। सन् 1866 में उत्तरी भारत में जब भीषण दुर्भिक्ष की ज्वाला धधकी तो लाला जी ने स्वयं को सेवा कार्य में पूर्णतया झोंक दिया। तत्पश्चात् कांगड़ा में भूचाल से विनाश हुआ तो लाला जी ने वहॉं भी अपनी सेवायें अर्पित कर दी। इसी प्रकार 1907 एवं 1908 में उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवं संयुक्त प्रान्तों में जब अकाल पड़ा तो भी मानवता की सेवा में इन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। आर्यसमाज के अछूतोद्धार कार्यक्रम को भी इन्होंने अपने हाथ में लिया। सन् 1912 में गुरुकुल कांगड़ी में हुए अछूतोद्धार सम्मेलन के आप अध्यक्ष थे तथा चालीस हजार रुपये की राशि इस कार्य के लिए अपनी ओर से अर्पित की। वे एक कुशल वक्ता थे । अतः अपने भाषणों के माध्यम से भी इन्होंने महर्षि दयानन्द की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया। महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने राष्ट्रीय जागरण में अपनी विशेष भूमिका निभाई है तथा लाला जी भी इसी रूप में राजनीति के क्षेत्र में एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में उभरे।
कांग्रेस में रहकर भी लाला लाजपतराय की विचारधार स्वतंत्र चिंतन को लेकर चली। किसी भिखारी की तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए गिडगिड़ाना उनकी नीति कभी नहीं रही। सन् 1905 में लार्ड कर्जन ने भारतीय चेतना को दबाने के लिए बंगाल के दो टुकड़े कर दिये तो इस घटना ने भारतीय जनमानस को हिलाकर रख दिया। बंगाल से विदेशी माल के बहिष्कार और स्वदेशी का आन्दोलन चला जिसका कुशल नेतृत्व लाला लाजपतराय एवं बाल गंगाधर तिलक ने किया। यहीं से कांग्रेस में एक गर्म दल उभरकर सामने आया। बाल, लाल और पाल इनके नेता थे। अन्ततः पंजाब प्रदेश में भी अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए लाला जी को मांडले जेल भेज दिया गया। मांडले जेल से वे छः महीने के बाद जब मुक्त होकर आये तो और अधिक वेग से क्रान्तिकारी गतिविधियों में जुट गये। उन्होंने भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि जापान, इंग्लैंड और अमेरिका जाकर वहॉं से स्वतंत्रता संग्राम का कुशल नेतृत्व किया। उनके पास स्वाधीनता आन्दोलन को सक्रियता देने के लिए लेखन तथा भाषण दो प्रमुख हथियार थेऔर उन्होंने उनके माध्यम से धूम मचा दी। इस काल में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं। उन्होंने "तरुण भारत' नामक एक साप्ताहिक पत्र निकाला और "इंडिया होमरूल लीग' की स्थापना की। फरवरी 1920 को वे भारत लौटे और अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों को सक्रियता दी। उन्होंने तिलक स्कूल ऑफ पालिटिक्स की स्थापना कीतथा उर्दू में एक दैनिक पत्र "बन्दे मातरम्' निकाला। महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भी उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई, जिसके कारण उन्हें 18 मास का कठोर कारावास मिला। जेल में उन्हें क्षयरोग हो गया, जिसके कारण उन्हें मुक्त कर दियागया।
अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को समाप्त करने के षड्यन्त्र रचे, तो उन दिनों परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द एवं पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ मिलकर "हिन्दू महासभा' का गठन किया। सन् 1925 में कलकत्ता में हुए अधिवेशन के सभापति स्वयं लाला जी ही थे। मानवतावादी विचारधारा के होने के कारण मुसलमानों और हिन्दुओं के साम्प्रदायिक झगड़ों से वे काफी क्षुब्ध रहते थे। उन्हें मुसलमानों से द्वेष नहीं था। परन्तु अंग्रेजों की कूटनीति के कारण जो मुसलमान अनुचित मांगों को करते थे, उनका लाला जी ने राष्ट्रहित में सदा ही विरोध किया। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए हमेशा ही सक्रिय रहे।
अंग्रेज सरकार भारतीय जनचेतना को छिन्न-भिन्न करने एवं दबाने के लिए तरह-तरह के नाटक करती थी। "साईमन कमीशन' की नियुक्ति भी एक ऐसा ही नाटक था। अंग्रेजी सरकार ने भारतवासियों की मांगों के औचित्य की जांच के लिए एक कमीशन भेजा। यह कमीशन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर पहुंचने वाला था। लाहौर में धारा 144 लगी हुई थी। परन्तु जनता विरोध प्रदर्शन के लिए जुलूस निकालकर प्रदर्शन करना चाहती थी। लालाजी ने देशभक्त जनता का नेतृत्व किया। काले झण्डों द्वारा साईमन कमीशन का बहिष्कार किया गया। "साईमन कमीशन लौट जाओ' तथा "बन्दे मातरम्' के उद्घोष के साथ जनता का समुन्द्र लाला जी के नेतृत्व में आगे बढ़ा। पुलिस ने जनता पर लाठियॉं बरसाना आरम्भ कर दी। लाला जी पर गोरे सिपाहियों ने लाठियों से वार किये। उनकी छाती पर बहुत गहरी चोट लगी। उसी दिन सायंकाल मोरी गेट के बाहर रोष प्रकट करने के लिये एक सभा हुई, जिसमें लाला जी ने अपने भाषण में कहा- ""मेरे शरीर पर पड़ी हुई एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की कील होगी।'"
लाठियों की चोटें गहरी थीं। परन्तु उस स्थिति में भी लाला जी कार्य करते रहे। परिणामस्वरूप 17 नवम्बर 1928 को प्रातःकाल 7 बजे यह नरपुंगव अपनी ओजस्वी वाणी को समेटकर सदा-सदा के लिए गहरी नींद सो गये। लाला जी की अन्त्येष्टी के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। समस्त जनता अश्रुपूरित नेत्रों से अपने महान् नेता को अन्तिम विदा दे रही थी। कुछ राष्ट्रभक्त युवकों ने उसी दिन रावी के तट पर इस हत्या का बदला लेने की कसमें खाई और क्रान्ति की ज्वाला में स्वयं को झोंकते हुए कालान्तर में राष्ट्र से विदेशी सरकार को उखाड़ फेंकने का महत्वपूर्ण कार्य करके लाला जी के शब्दों को सत्य प्रमाणित करके दिखाया। सचमुच उनके शरीर पर पड़ी लाटियों की चोटें ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की कीलें बनीं। लाला जी का महान् बलिदान आज भी अपने राष्ट्र, संस्कृति और मानवता के लिए मर मिटने का आह्वान कर रहा है। लेखक- भगवानदेव चैतन्य, अक्टूबर 2008 (Divya Yug 2008)
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