हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी के अमर बलिदान की ऐतिहासिक घटना इस बात का सबसे बड़ा उज्ज्वल प्रमाण है कि किस प्रकार घटना विशेष किसी महापुरुष के महान् जीवन के इतिहास को भ्रम तथा गलतफहमी से ढक देती है। मृत्यु जीवन का अन्त करने के लिए कोई बहाना ढूंढती है। स्वामी जी के लिए उसने जो बहाना ढूंढा, उससे उसने निश्चय ही उनको अमर शहीद के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। किन्तु उसके लिए एक धर्मान्ध मुस्लिम अब्दुल रशीद को अपना निमित्त बनाकर उसने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया। वैसे तो उसमें भी एक गूढ़ रहस्य विद्यमान था, परन्तु उस पर हर किसी की दृष्टि नहीं जा सकती। स्वामी जी पर बलिदान से ठीक पहले निमोनिया का भयानक आक्रमण हुआ थाऔर वे स्वयं अपने जीवित रहने की आशा त्याग चुके थे। डॉक्टर अन्सारी 1919 से उनके निजी डाक्टर थे। इस बीमारी में भी उन्होंने मृत्यु को परास्त कर उसके फौलादी पंजे में से स्वामी जी को बचा लिया था और उनके पूर्ण नीरोग होने का आश्वासन दे चुके थे। इस आश्वासन के दूसरे ही दिन वह घटना घट गई।
मृत्यु ने डॉक्टर अन्सारी और अब्दुल रशीद के रूप में इस प्रकार मानव के दो रूप उपस्थित किए थे। एक वह था जिसने स्वामीजी को मृत्यु के पंजे से छुड़ाया था और दूसरा वह था जिसने उनको मौत के घाट उतार दिया। दोनों मुसलमान थे एक रक्षक और दूसरा घातक। मानव के हृदय में उदारता, सहृदयता, सहानुभूति, स्नेह और ममता का जो दिव्य प्रकाश रहता है उसके प्रतीक थे डाक्टर अन्सारी। वे साम्प्रदायिक संकीर्णता से ऊपर उठे हुए एक आदर्श मानव थे। अब्दुल रशीद था प्रतीक उस धर्मान्धता के अन्धकार का, जिसमें मानव अपनी मानवता खोकर ऐसे घोर कुकृत्य करने पर उतारू हो जाता है। साधारण मानव की दृष्टि उस घटना के इस रहस्य को नहीं देख सकती और वह उसकी गहराई में नहीं बैठ सकता। उसने उस घटना को जिस संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखा उसका मैल उसने राष्ट्र महापुरुष स्वामी श्रद्धानन्द के महान् जीवन पर भी चढ़ा दिया। निस्सन्देह स्वामी जी आर्यसमाज के अन्यतम नेता थे।
स्वामी जी ने कांग्रेस से अलग होकर अपने को शुद्धि, संगठन तथा दलितोद्धार के काम में जिस प्रकार लगाया, उससे भी इस भ्रम को प्रश्रय मिला। स्वामी जी का कांग्रेस से अलग होकर अपने को इन आन्दोलनों में लगाना भी एक ऐसी घटना है, जिसकी वास्तविकता से बहुत ही कम लोग परिचित हैं। स्वामी जी धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से चहुमुखी क्रान्ति के उपासक थे। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी उन्होंने इस क्रान्ति की उपासना की थी। पुरानी सामाजिक रूढ़ियों और धार्मिक अन्धविश्वासों को उन्होंने जड़मूल से नष्ट करने का सतत प्रयत्न किया। अपनी आत्मकथा को उन्होंने "कल्याण मार्ग का पथिक' नाम दिया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का शिष्य बनते ही तथा आर्यसमाज में पैर रखते ही उन्होंने अपने जीवन को उस ढांचे में ढालने में कुछ भी उठा न रखा। जात-पात, छूतछात तथा अन्य सब रूढियों तथा परम्पराओं को अपने व्यक्तिगत जीवन में कभी कोई स्थान नहीं दिया। उन द्वारा स्थापित गुरुकुल सम्भवतः पहली संस्था थी, जिसमें किसी भी प्रकार के धार्मिक एवं सामाजिक भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं था।1918 में जब वे कांग्रेस में सम्मिलित हुए तब उन्होंने उसके सामने भी धार्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति का कार्यक्रम उपस्थित किया। 1919 में अमृतसर में कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष के पद से दिए गए भाषण में उन्होंने पहली बार कांग्रेस के मंच से ब्रह्मचर्य (संयम, सदाचार, नैतिकता) प्रधान शिक्षा प्रणाली, राष्ट्रीय चरित्रनिर्माण और अछूतोद्धार आदि के लिए आग्रहपूर्ण अनुरोध किया। 1920-21 में "तिलक स्वराज्य फंड' में एक करोड़ की निधि जमा होने के बाद उन्होंने कांग्रेस महासमिति से उसमें से 5 लाख रुपया अछूतोद्धार के लिए अलग रख देने का अनुरोध किया था।
गांधी जी ने 1931 में साम्प्रदायिक बटवारे में हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करने की अंग्रेज राजनीतिज्ञों की जिस चेष्टा के विरुद्ध आमरण अनशन किया था, उसको स्वामी जी ने 1919 में ही भांप लिया था और उसके विरुद्ध कांग्रेस को स्पष्ट चेतावनी दी थी। उनका प्रस्ताव तो यह था कि अछूतोद्धार को कांग्रेस के रचनात्मक कार्यक्रम में सम्मिलित करके कांग्रेसियों से अपने घरों में निजी और नौकर के रूप में हरिजनों को ही रखने का अनुरोध किया जाना चाहिए। उनका यह अनुरोध विचार योग्य भी नहीं समझा गया। इससे निराश होकर स्वामी जी ने कांग्रेस को छोड़ दिया और स्वतन्त्र रूप से दलितोद्धार का काम शुरू कर दिया।
अंग्रेज ही नहीं किन्तु मुसलमान भी हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करने पर तुले हुए थे। मौलाना मोहम्मद अली ने तो कोकीनाडा कांग्रेस के अपने भाषण तक में हरिजनों को आधा-आधा बांट लेने की बात हिन्दू मुसलमानों से कही थी। ईसाई पादरियों ने तो उन पर अपना एकाधिकार ही समझा हुआ था। स्वामी जी उनको हिन्दू समाज का अविभाज्य अंग मानते थे। स्वामी जी की दृष्टि विशुद्ध धार्मिक थी। ईसाई और मुसलमान राजनीतिक दृष्टिकोण से अपना संख्याबल पढ़ाने के लिए उनको अपने में मिला रहे थे। पृथक् निर्वाचन और जनसंख्या पर आधारित प्रतिनिधित्व के कारण वे अपना संख्याबल बढाने में लगे हुए थे। इसी उद्देश्य से वे हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन कर उनको अपने में मिलाने का काम भी धड़ल्ले से कर रहे थे। इसी बीच अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने गांधी जी के आंदोलन को विफल बनाने के लिए जहॉं-तहॉं साम्प्रदायिक दंगों की आग सुलगा दी थी। छोटी-छोटी बातों को लेकर हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ पड़ते थे और प्रायः सभी स्थानों पर हिन्दुओं को मात खानी पड़ती थी। स्वामी जी इसको सहन नहीं कर सके। उन्होंने यह अनुभव किया कि निर्बल हिन्दुओं का सबल मुसलमानों के साथ समानता के आधार पर कोई मेल नहीं हो सकता। मुसलमानों को खिलाफत के नाम पर जिहाद तक के लिए तैयार कर लिया गया था, किन्तु हिन्दुओं को गोरक्षा के नाम पर भी अंग्रेजों के विरुद्ध एक नहीं किया जा सका था। इस परिस्थिति में स्वामी जी ने यह अनुभव किया कि शुद्धि और संगठन के बिना हिन्दू समाज में नया जीवन पैदा नहीं किया जा सकता । शुद्धि का आन्दोलन नया नहीं था। 1905 से राजपूत लोग अपने बिछुड़े हुए मलकाना व गूजर आदि को अपनी बिरादरी में वापस लेने के प्रयत्न में लगे हुए थे। राजपूतों में इस कार्य के लिए कुछ संस्थाएं भी कायम की गई थीं। उन सब प्रयत्नों में यथेष्ट सफलता न मिलने पर स्वामी जी ने शुद्धि के इस आन्दोलन को सहयोग दिया और सफलता की चोटी पर पहुंचा दिया। इसी प्रकार संगठन का कार्य भी काफी समय से चल रहा था, परन्तु वह भी जीवनशून्य था। स्वामी जी ने उसको अपने हाथ में लिया और वही कार्यक्रम उन्होंने हिन्दू महासभा के सम्मुख प्रस्तुत किया, जो कांग्रेस के सामने किया था। उसके मुख्य अंग ब्रह्मचर्य (संयम सदाचार नैतिकता) की प्रतिष्ठा, जात-पात व छूत-छात का निवारण और विधवाओं का पुनर्विवाह आदि थे। लगातार तीन वर्षों के प्रयत्न के बाद भी जब स्वामी जी का कार्यक्रम स्वीकार नहीं किया गया, तब उन्होंने कांग्रेस की ही तरह हिन्दू महासभा से भी त्यागपत्र दे दिया। स्वामी श्रद्धानन्द रचनात्मक आधार पर हिन्दू संगठन के काम को करना चाहते थे। उसमें मुस्लिम द्वेष या विरोध की कहीं हलकी सी छाया तक भी न थी।
स्वामी जी कोरी साम्प्रदायिक नीति के सर्वथा विरुद्ध थे और आजीवन विरुद्ध रहे। उनके दलितोद्धार, शुद्धि एवं संगठन में मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता लेशमात्र भी नहीं थी। हिन्दू समाज को सामाजिक कुरीतियों से छुटकारा दिलाने के लिए किए गए समाज सुधार के उनके कार्य को साम्प्रदायिक बताना बहुत बड़ा भ्रम है।
अपने बलिदान से ठीक पहले गोहाटी कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष को उन्होंने जो सन्देश भेजा था, उसमें लिखा था कि ""हिन्दू-मुस्लिम एकता पर ही भारतमाता की मुक्ति निर्भर है।'' यह कोरा सन्देश ही नहीं था, किन्तु स्वामी जी आजीवन उसके लिए प्रयत्नशील भी रहे। गुरुकुल में कभी हिन्दू-मुसलमान का भेद व्यवहार में नहीं लाया गया। जो भी कोई छोटा या बड़ा मुसलमान वहॉं आता था, वह वहॉं के व्यवहार से मुग्ध होकर लौटता था। एक बात अवश्य है कि उनकी दृष्टि और विचार में कुछ अन्तर था। मुसलमानों को परामर्श देते हुए उन्होंने उन्हीं दिनों में लिखा था कि ""मुसलमानों को मैं केवल यह सलाह देना चाहता हूँ कि संगठित और शक्ति सम्पन्न समाज का असंगठित और कमजोर समाज पर अत्याचार करना वैसा ही पाप है जैसा कि कमजोर और कायर होना होता है। इसलिए हिन्दुओं के संगठित और शक्ति सम्पन्न होने में विघ्न मत डालो। यदि तुम हिन्दू समाज के अस्तित्व को मिटा सकते तो मैं कुछ भी नहीं कहता। क्योंकि मानव समाज का यह दुर्भाग्य है कि इस वसुन्धरा का भोग वीर लोग ही करते हैं। यदि हिन्दू समाज के अस्तित्व को नष्ट नहीं किया जा सकता, तो उसको संगठित तथा दृढ़ होने दो, जिससे वह भारतीय राष्ट्र के राजनीतिक अभ्युदय में मुसलमानों के गले का भार न होकर शक्ति का पुंज साबित हो सके।""
स्वामी श्रद्धानन्द जी निस्संदेह हिन्दू समाज को सुदृढ़, शक्ति सम्पन्न और बलवान् बनाना चाहते थे, जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों में समानता के नाते एकता कायम हो सके। इसीलिए उन्होंने हिन्दू समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए समाज सुधार के रचनात्मक कार्य को अपना महान् व्रत बनाया हुआ था और उसमें वे आजीवन लगे रहे। कांग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों के सम्मुख अपना यह कार्यक्रम उपस्थित किया और दोनों से उन्हें निराश होना पड़ा। मुस्लिम विद्वेष के रूप में साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से उनके इन प्रयत्नों को देखना न केवल उनके साथ, अपितु इतिहास के साथ भी बहुत बड़ा अन्याय है। सत्यदेव विद्यालंकार, दिव्ययुग दिसम्बर 2008 (Divya Yug 2008)
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