स्वराष्ट्र में स्वराज्य- देशवासियों को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्वराष्ट्र के प्रति कर्त्तव्योन्मुख किया है। उनके अनुसार जिस देश के अन्न-जल से हमारा पालन हुआ है, क्या उसके प्रति हमारा कोई दायित्व और कर्त्तव्य नहीं है? स्वदेश में स्वराज्य की स्थापना को अपना पावन कर्त्तव्य बताते हुए उन्होंने अपने महान् ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' में लिखा- ""चाहे कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतमतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याययुक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता।''
सन् 1857 ई. की क्रान्ति अर्थात् अंग्रेजों के लगातार बढ़ते अत्याचारों और गुलामी की घुटन से अकुलाई हुई भारतीय जनता का स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु शंखनाद! यद्यपि इस प्रयास को पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु यह निश्चित है कि इससे अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल गई।
यूं तो इस संग्राम के विषय में अनेक इतिहासकारों ने अनेक तथ्य और विचार प्रस्तुत किये हैं, किन्तु एक बात आज भी स्पष्ट नहीं हुई है कि यह स्वतन्त्रता संग्राम योजनाबद्ध था या अचानक ही चारों ओर क्रान्ति का स्वर गूंजने लगा था। लेकिन इन सब बातों के बीच एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि इस स्वतन्त्रता संग्राम में भारत के वीरों ने एक बार पुनः अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था।
इस क्रान्ति में यूं तो अनेक वीरों और क्रान्तिकारियों का योगदान रहा, परन्तु महर्षि मी दयानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अनूठा ही दिखाई देता है। सन् 1824 ई. में गुजरात के टंकारा, (राजकोट) के ब्राह्मण कुल में जन्में बालक मूलशंकर को बचपन में ही ईश्वर के सच्चे स्वरूप को पाने और जानने की तीव्र इच्छा जागी। और इसी इच्छा के चलते वे एक रात घर से निकल गये। लम्बे समय तक वे सच्चे ईश्वर की तलाश में भटकते रहे। अलकनन्दा के उद्गम स्थल पर स्थित माना ग्राम में पहुँचे, जिसके आगे चारों ओर घनी पर्वत श़ृंखलाएं थी, कोई मार्ग न था। स्वामी जी यह सोचकर कि शायद नदी के पार रास्ता मिले, अलखनन्दा के पानी मेें उतर गये। पहाड़ी नदी का तीव्र वेग, बर्फानी पानी, दुर्गम चढ़ाई और भूख प्यास से क्लान्त दयानन्द! तेज धार वाले बर्फ के टुकड़ों से पैरों में घाव हो गये, जिनसे खून बहने लगा। दयानन्द अब इतने अशक्त हो चुके थे कि नदी पार कर पाना असम्भव था। तभी ईश्वर कृपा से कुछ पहाड़ी लोगों ने आकर उन्हें बाहर निकाला। ईश्वर प्राप्ति की इच्छा लिए दयानन्द पहले बद्रीनाथ गये, फिर मैदानी क्षेत्र में आ गए।
जब दयानन्द उत्तराखण्ड से वापस लौटे, उस समय देश में राजनौतिक क्रान्ति के स्वर धीरे-धीरे उभरने लगे थे। लोगों की हृदयविदारक निर्धनता और असहायावस्था से उनका हृदय क्लान्त था। उन्होंने हजारों लोगों को भूख से तड़पते और मरते देखा, भूख से सूखकर पिंजर होते देखा। उन्होंने देखा कि शिक्षा के अभाव में लोग अपनी पैतृक सम्पदा से बेखबर हैं, अपनी शक्तियों से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने उन पर भी दृष्टि डाली जो धन के नशे में चूर मौज करते थे, किन्तु अपनी जिम्मेदारी का जिन्हें कोई अहसास न था। उन्होंने देखा कि किस प्रकार स्वार्थी लोगों ने भोली-भाली जनता को अन्धविश्वासों में उलझा रखा था। उन्होंने देखा कि लोग आपस की फूट, विद्वेष और घृणा से आक्रान्त व परेशान थे।
ऐसी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक दुरवस्था को देखकर ऋषि ने सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाया। उन्होंने संकल्प लिया कि इस देश के नागरिकों को अपने वर्तमान का ज्ञान हो, अपने गौरवशाली अतीत की अनुभूति हो और उनमें भ्रष्टाचार, अज्ञान, अभाव, अन्याय तथा आन्तरिक कलह के गर्त से निकलकर राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने के लिए तड़प हो, ऐसे राष्ट्र का निर्माण होना चाहिए।
अब तक दयानन्द योगियों के पीछे दिवाने थे, लेकिन अब उनका राष्ट्रीय क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ। उस समय देश में भीषण अकाल पड़ रहा था। लोग दाने-दाने को मोहताज थे। "फूट डालो और राज्य करो' की नीति पर चलते हुए बन्दरबॉंट द्वारा अंग्रेजों ने अधिकांश देशी राजाओं को समाप्त कर दिया था। देश उस समय भीषण परिस्थितियों से गुजर रहा था।
एक दिन स्वामी दयानन्द नदी के किनारे समाधिस्थ थे। उसी समय एक महिला अपने बच्चे के शव को लेकर नदी के तट पर आई। शव को नदी के जल में प्रवाहित किया और उसके कफन को उतार लिया तथा उसे निचोड़कर वापस ले चली, क्योंकि उसके पास तन ढ़कने को दूसरा कपड़ा न था। महिला की चीत्कार की आवाज से उनकी समाधि टूट गई। उस दृश्य को देखकर दयानन्द रो पड़े और राष्ट्र को स्वतन्त्रता दिलाने का संकल्प और भी दृढ़ हो गया।
सन् 1855 ई. में स्वामी जी फर्रूखाबाद पहुंचे। वहॉं से कानपुर गये और लगभग पॉंच महीनों तक कानपुर और इलाहाबाद के बीच लोगों को जाग्रत करने का कार्य करते रहे। यहॉं से वे मिर्जापुर गए और लगभग एक माह तक आशील जी के मन्दिर में रहे। वहॉं से काशी जाकर एक गुफा में कुछ समय तक रहे।
स्वामी जी की इन यात्राओं की विशेष बात यह है कि इन यात्राओं के दौरान वे हर उस स्थान पर गये, जहॉं अंग्रेजों की सैनिक छावनियॉं थीं। उनका उद्देश्य यही देखना था कि सिपाहियों और जनता के मन में विदेशी दासता के प्रति आक्रोश की मात्रा कितनी है।
स्वामीजी के काशी प्रवास के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उनके मिलने गई और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर, उनका सत्कार कर वापस गई। स्वामी जी काशी के बाद विन्ध्याचल की ओर गये तथा विन्ध्याटवी और बुन्देलखण्ड को पार कर नर्मदा और उसके आस-पास के प्रदेशों में अनेक राजाओें से मिले। स्वामी जी ने इस समय में देश की जनता को जबरदस्त तरीके से क्रान्ति के लिए तैयार किया। इसी दौरान सन् 1857 की क्रान्ति हुई, जिसको अंग्रेजों ने "गदर' का नाम दिया।
स्वामी जी अपनी आत्मकथा में भी 1856 से 1858 के बीच के कार्यों की कोई चर्चा नहीं करते। उनकी चुप्पी और 1857 में क्रान्ति का होना इस बात का प्रमाण है कि इस समय में उनका मिर्जापुर, कानपुर, काशी, प्रयाग और फिर नर्मदा की ओर जाना, राजाओं से और क्रान्तिकारियों से मिलना उनकी क्रान्ति को निर्देशित करने के लिए हुई यात्रायें थीं, जिनके परिणामस्वरूप देश की जनता ने एक स्वर में क्रान्ति का शंखनाद किया।
यद्यपि 1857 की क्रान्ति सफल नहीं हुई। परन्तु स्वामी जी का प्रयास नहीं रुका। वे निरन्तर देश के कोने-कोने में घूमकर राष्ट्रप्रेम और वैदिक संस्कृति का प्रचार करते रहे। उनके बलिदान के बाद उनके अनुयायियों ने इस देश की आजादी में प्रमुख भूमिका निभाई।
परन्तु खेद की बात यह है कि अधिकतर इतिहासकारों ने इस महान् क्रान्तिकारी व्यक्तित्व को, जिसने देश को स्वतन्त्रता संग्राम के लिए हर दृष्टि से समर्थ बनाया, उपेक्षित ही रखा है। किसी ने उन्हें समाज सुधारक कहकर, तो किसी ने उन्हें विद्वान् संन्यासी मात्र कहकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ा है। परन्तु यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि यदि ऋषि दयानन्द न होते, तो देश को स्वतन्त्रता मिलना इतना आसान न होता।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने एक ओर जहॉं देशभक्ति का सन्देश दिया, तो दूसरी ओर "वेदों की ओर चलो' का नारा देकर तथा तर्क के तराजू में सब धर्मों को तोलकर जनता को अंधविश्वासों और रूढ़ियों से बाहर निकालकर अपनी गौरवशाली वैदिक संस्कृति को पहचानने के लिए तैयार किया। पं. नागेश शर्मा
दिव्ययुग फरवरी 2009, divyayug february 2009
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2
Ved Katha Pravachan -6 (Rashtra & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव