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अनन्तश्री विभूषित स्वामी दयानन्द सरस्वती

वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज के बलिदान के 125 वर्ष पूरे होने पर शत-शत नमन! स्वामी दयानन्द का जन्म 184 वर्ष पूर्व गुजरात प्रान्त में मौरवी राज्यान्तर्गत ग्राम टंकारा में सन्‌ 1824 ई. में ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

स्वामी दयानन्द के आविर्भाव के समय हिन्दू जाति अनेक सम्प्रदायों में विभक्त हो चुकी थी। अज्ञानता का साम्राज्य छाया हुआ था।

धर्म के नाम पर अधर्म, अनाचार, दुराचार पाखण्ड, अंधविश्वास, सतीप्रथा, मृतक भोज, यज्ञों में पशुबलि जैसे हिंसक कर्म हो रहे थे। आज भी कहीं-कहीं दुर्गा माता और भैरव के मंदिरों में पशुबलि दी जा रही है। सभी बड़े-बड़े पौराणिक यज्ञों में तथा हिन्दुओं के गृहप्रवेश के समय भूरे कोले को तलवार से काटकर पशुबलि की क्रिया को धार्मिक कर्म मानकर करने को मान्यता दे रखी है। सामाजिक कुरीतियॉं, बालविवाह, 14 वर्ष की बालिकाओं का विवाह साठ वर्ष के वृद्ध से किया जा रहा था। पर्दा प्रथा तथा छोटी-छोटी बालिकाओं को विधवा हो जाने पर जीवनभर समस्त शुभ कार्यों में सम्मिलित होने पर प्रतिबंध था। बालिकाओं को शिक्षा से वंचित कर रखा था। बालिकाओं के लिए सम्पूर्ण भारत में एक भी विद्यालय नहीं था। छुआछूत आदि बुराइयों से देश पीड़ित था। आज ये समस्त बुराइयॉं लगभग समाप्त हो गई हैं। सबसे प्रथम बालिकाओं का विद्यालय स्वामी जी के शिष्यों ने जालंधर में प्रारंभ किया था।

स्वामी दयानन्द 19वीं शताब्दी के उच्चकोटि के वेदज्ञ, वेदमूर्ति, संस्कृत के उद्‌भट विद्वान तथा व्याकरणाचार्य थे। उन्होंने चारों वेदों, वेदाङ्ग, उपवेद, उपांग, ब्राह्मण ग्रन्थ, स्मृतिग्रन्थ तथा सभी उपनिषदों एवं सूत्र ग्रन्थों और रामायण-महाभारत का अध्ययन किया। उस काल में प्रचलित सभी हिन्दू सम्प्रदाय तथा अन्य विदेशी सम्प्रदाय इस्लाम, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि के तीन हजार से अधिक ग्रन्थों का तीस वर्ष तक गहराई से स्वामी जी ने अध्ययन करके लगभग सत्तर ग्रन्थों की रचना की है।

स्वामी दयानन्द जी महाराज ने चारों वेदों के लगभग बीस हजार चार सौ मन्त्रों का अध्ययन किया। ऋग्वेद में दस हजार पॉंच सौ बावन मंत्र हैं। अथर्ववेद में पांच हजार नौ सौ सत्तर मन्त्र हैं। सामवेद में एक हजार आठ सौ पचहत्तर मन्त्र हैं। यजुर्वेद में एक हजार नौ सौ छियत्तर मन्त्र हैं।

स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि वेद ही सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं और वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। वेद के समान अन्य सम्प्रदायों के ग्रन्थ नहीं हैं। सभी सम्प्रदाओं के ग्रन्थ मनुष्यों के द्वारा लिखे हुए है। उनमें असत्य, अश्लील (गंदे), अवैज्ञानिक, अधर्म तथा मनुष्यता के विपरीत  कथन हैं। इसलिए स्वामी दयानन्द जी ने सभी सम्प्रदायों के विद्वानों से विचार विमर्श करके सिद्ध किया कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार (जिसकी कोई आकृति नहीं है), सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा (जिसका जन्म नहीं होता है), अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसकी ही उपासना करनी चाहिए।

स्वामी दयानन्द जी महाराज परम आस्तिक ईश्वर विश्वासी थे। ईश्वर विश्वासी तो थे ही, विश्वास के साथ ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए अपने जीवन में चरितार्थ भी किया था। उन्होंने लिखा कि वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना सब मनुष्यों का परम धर्म है।

भक्तप्रवर दयानन्द ने अपना सकल जीवन भगवच्चरणों में ही समर्पित कर दिया था। उनका एक-एक क्षण प्रभु सेवा में ही अर्पित था। उन्होंने अपने ग्रन्थों मेें भी स्थान-स्थान पर प्रभु शरणागति का पावन उपदेश दिया है। वे लिखते हैं कि भगवद्‌ भक्त को चाहिए कि वह अपनी आत्मा को सर्वदा भगवान की ही आज्ञा में अर्पण कर दे। इसी प्रकार स्वामी जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में लिखा है कि हम मनुष्यों को चाहिए कि अपने जीवन को ईश्वर सेवा और उसकी आज्ञा पालन करने में ही अर्पित कर देवें। हम अपने प्राणों को भी भगवान को अर्पण कर देवें। हमें अपनी इंद्रियों को, सब सुखों के साधनों को, यज्ञादि शुभ कर्मों को भी प्रभु की प्रसन्नता में अर्पण कर देना चाहिए। इस प्रकार जो मनुष्य सर्वस्व को प्रभु के अर्पण कर देता है, उसके लिए परम दयालु प्रभु सब सुखों को प्रदान करते हैं। जो परमात्मा पापों से मुक्त, बुढ़ापा-मृत्यु-दुःख-भूख-प्यास से रहित है और सत्यकाम, सत्य संकल्प वाला है, उसको जानने की इच्छा करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है। जो सब गुण, कर्म, विद्यायुक्त है, जिसमें पृथ्वी, सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापक सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते, न मानते और उसका ध्यान नहीं करते हैं, वे नास्तिक, मंदमति, सदा दुःखसागर में डूबे रहते हैं। इसलिए सर्वदा उसी परमात्मा को जानकर वे सब मनुष्य सुखी होते हैं।

स्वामी दयानन्द जी महाराज लिखते हैं कि उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है, उसी को हम धारण करें। अर्थात्‌ परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करें। इसलिए कि वह परमात्मा हमारी आत्मा व बुद्धि को दुष्टाचार, अधर्म, पापकर्म के मार्ग से हटाकर श्रेष्ठ और सत्य के मार्ग पर चलावे। उस परमात्मा के समान दूसरा कोई नहीं है और परमात्मा से बड़ा भी कोई दूसरा कोई नहीं है। इसलिए परमात्मा हमारी माता, पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देने वाला है। ऐसे परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही प्रत्येक मनुष्य का धर्म है।

स्वामी जी लिखते हैं कि मैं अपना धर्म उसी को मानता हूँ कि जो तीन काल में सबको एकसा मानने योग्य है। मेरी कोई नई कल्पना या सम्प्रदाय चलाने का लेशमात्र भी विचार नहीं है। किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मेरा धर्म है। यदि मैं किसी नये सम्प्रदाय को चलाना चाहता तो उस सम्प्रदाय का नाम रखता जैसे वैष्णव, शैव आदि। मैं तो परमपिता परमात्मा की वाणी वेदधर्म को ही मानता हूँ और मनवाता हूँ तथा आर्यावर्त और अन्य देशों में प्रचलित जो अधर्मयुक्त सम्प्रदाय हैं, उनको स्वीकार नहीं करता हूँ। क्योंकि इन सम्प्रदायों को स्वीकार करना मनुष्य धर्म के विपरीत है। मुझमें पूर्व ऋषियों-मुनियों के चरण की धूल के एक कण की भी समानता व क्षमता, योग्यता नहीं है। मैं तो उन्हीं के बताये हुए वेद मार्ग को संसार में मनुष्य मात्र के सुख के लिए बता रहा हूँ। स्वामी जी ने लिखा कि सत्य और न्याय का आचरण करना धर्म है। सत्य और न्याय का मूल वेद में है। इसलिए स्वामी जी ने बताया कि "वेदोऽखिलो धर्ममूलम्‌' धर्म का मूल वेद है।

पाठकगण! हम मनुष्यों ने वेद के धर्म को भुला दिया। महाभारत के युद्ध के पश्चात्‌ वेद का पढ़ना-पढ़ाना समाप्त हो गया। पॉंच हजार वर्ष के पश्चात्‌ एकमात्र ऋषि उत्पन्न हुआ, जिसका नाम है दयानन्द! स्वामी दयानन्द ने ही वेदों के माध्यम से धर्म के वास्तविक स्वरूप को हमारे सामने रखा। हमने धर्म के स्वरूप को अभी तक विकृत रुप में ही स्वीकार कर रखा है। किन्तु सतीप्रथा, मृतकभोज, पशुबलि, बालविवाह, वृद्धविवाह, पर्दाप्रथा आदि कुरीतियां लगभग स्वामी जी के प्रयत्न से समाप्त हो गई हैं। स्वामी दयानन्द ने स्त्रियों को शिक्षा व वेद पढ़ने का अधिकार दिया। स्वामी जी की कृपा से विशेष रूप से भारत में महिलाएँ प्रधानमन्त्री, मन्त्री, सांसद, विधायक, पार्षद, महापौर, पंच, सरपंच बन रही हैं। सेना की अधिकारी, पुलिस की अधिकारी, आयुक्त एवं जिलाधीश के पद पर प्रतिष्ठित हो रही हैं।

स्वामी दयानन्द वेदों का शंखनाद करने वाले, परम ईश्वर विश्वासी, भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धारक, भारतीय स्वतन्त्रता के मूलमन्त्रदाता, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराने वाले, नारी जाति के सम्मानदाता, कुरीतियों को मिटाने वाले, सदैव सत्य को मानने वाले, सदा सत्यवादी, सत्यवक्ता और संसार से साम्प्रदायिकता को मिटाने वाले तथा राजा हरिश्चन्द्र, भक्त ध्रुव, भक्त प्रहलाद आदि सत्यवादी महापुरुषों की परम्परा का निर्वाह करने वाले ऋषि दयानन्द ने कहा था- "मैं सत्य पथ का पथिक हूँ। यदि मेरी अंगुलियों को मोमबत्ती की तरह एक-एक करके अथवा एक साथ जला दिया जावे, तो भी मैं असत्य नहीं बोलूंगा।''

ऐसे ईश्वरभक्त, महान योगी, प्रकाण्ड दार्शनिक अखण्डब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द के 185वें जन्मदिवस पर शत-शत नमन ! l

लेखक- स्वामी वैदिकानन्द सरस्वती

दिव्ययुग फरवरी 2009   divyayug february 2009

 

जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
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