देवभूमि भारतवर्ष की गोद में समय-समय पर अनेक महापुरुष आए और उन्होxने मानवता को सत्यपथ का पथिक बनाकर धरती पर व्याप्त अज्ञान रूपी अन्धकार दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाश फैलाया। इन्हीं महापुरुषों की श़ृंखला मेंउन्नीसवीं शताब्दी में काठियावाड़ के मौरवी राज्य के टंकारा ग्राम में सन् 1824 ई. में वेदों के पुुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। इस समय उनका 125वॉं बलिदान दिवस मनाया जा रहा है। आज से 125 वर्ष पूर्व सन् 1883 में दीपावली के दिन उनका बलिदान हुआ था।
उन दिनों भारत बौद्धिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक गुलामी से जकड़ा हुआ था। लोग अपने ही भाइयों को अछूत समझ रहे थे, वेद पढ़ने का अधिकार सीमित हो गया था, पांच-पांच वर्ष की आयु में बाल-विवाह हो रहे थे, सोलह-सोलह वर्ष की विधवाएं बेसहारा थीं। जब भारतीय विदेशियों के अत्याचार से कुचले जा रहे थे तथा अनेक अन्धविश्वासों में फंसे हुए थे, ऐसे अन्धकारपूर्ण समय में युगपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि दयानन्द वर्तमान युग की ऐसी विभूति हैं, जिन्होंने संसार को अज्ञान, अविद्या एवं असत्य की जगह नया प्रकाश दिया। भगवान् राम, कृष्ण तथा ऋषि-महर्षियों की परम्परा उन्होंने पुनर्जीवित की तथा वेदज्ञान का प्रचार किया।
स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक- भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति का आह्वान करने वाले भी महर्षि दयानन्द प्रथम कर्मयोगी थे।
सन् 1857 की क्रान्ति की विफलता के बाद स्थिति ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि भारतीय जनमानस स्वाधीनता की ललक को ही सर्वथा भूला बैठा। और स्थिति यहॉं तक आ पहुंची कि भारतवासी अंग्रेजी-शासन को ही अपने लिए एक वरदान समझने लग गए। इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया ने जब "ईस्ट इण्डिया कम्पनी' से भारत के शासन की बागडोर अपने हाथ में ली, तब उसकी ओर से एक विज्ञप्ति प्रसारित करते हुए कहा गया कि ""अब भारत का शासन हमने अपने हाथ में ले लिया है और अब मत-मतान्तर के आग्रह से रहित, अपने और पराए के भेद-भाव से शून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान दया और न्याय से युक्त राज्य किया जाएगा।'"
महारानी की इस विज्ञप्ति से भारतवासी फूले नहीं समाए। सर्वत्र उत्सव मनाए जाने लगे तथा महारानी की जय-जयकार होने लगी। उसकी प्रशंसा के गीत बनने लगे। यहॉं तक कि उसे त्रिजटा का अवतार बताया जाने लगा। तात्पर्य यह है कि सभी प्रसन्न और सन्तुष्ट थे। परन्तु एक हृदय उस समय भी भीतर ही भीतर सुलग रहा था। और वह था क्रान्तिदूत दयानन्द का हृदय। जब उससे नहीं रहा गया तो उसने "सत्यार्थ प्रकाश' के अष्टम-समुल्लास में उसका प्रबल प्रतिवाद करते हुए लिखा- "कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अर्थात् मत-मतान्तर के आग्रह रहित अपने और पराये के पक्षपात से रहित, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।''
पाठक विचारें कि क्या इन पंक्तियों को लिखते हुए महर्षि दयानन्द के मस्तिष्क में महारानी विक्टोरिया की उक्त विज्ञप्ति नहीं कौंध रही थी? अतः महर्षि ने उस समय विदेशियों को यह समझाना उचित समझा कि स्वराज्य का स्थान सुराज्य कदापि नहीं ले सकता। जहॉं तक प्रजा के जान-माल की रक्षा, सुखसमृद्धि तथा प्रजा के रंजन का प्रश्न है, महर्षि की मान्यता थी कि- "राजा प्रजा को अपने सन्तान के सदृश सुख देवे और प्रजा अपने पिता सदृश राजा और राजपुरुषों को जाने।'' इस कसौटी को देखें तो भारतवासियों की प्रसन्नता उचित थी। पर इसका परिणाम यह हुआ कि देशवासी स्वाधीनता के भाव को सर्वथा भुला बैठे। अपनी हालत से बेखबर लोगों की स्थिति यह थी कि जिसके बारे में किसी कवि ने कहा था कि-
अपनी हालात का तो, कुछ अहसास नहीं है मुझको।
मैंने औरों से सुना है, कि परेशां हूँ मैं।
महर्षि दयानन्द उत्तम राज्य के प्रबल पक्षधर थे। सत्यार्थप्रकाश का सम्पूर्ण छठा समुल्लास इसका साक्षी है। वे ऐसी राज्य व्यवस्था के पक्षधर थे जिसमें राजा और प्रजा के परस्पर मधुर सम्बन्ध हों। राजा प्रजा की रक्षा और पालन करे एवं प्रजा भी राजा की व्यवस्था का समुचित आदर करे। महारानी की उक्त विज्ञप्ति के पश्चात् भारत में ऐसा वातावरण बनने भी लगा था कि महर्षि दयानन्द ने तभी यह मन्त्र दिया- "सुराज्य स्वराज्य का स्थानापन्न कदापि नहीं हो सकता।" इसीलिए राष्ट्रीय एकता के जागृति हेतु उन्होंने अपना महान् ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश' हिन्दी भाषा में लिखा। महर्षि दयानन्द ही थे, जिन्होंने फिर से भारत में प्रसुप्त स्वाधीनता के भावों को उद्दीप्त कर दिखाया। और सत्य तो यह है कि हैनरी केम्पबेल बेनरमेन से वर्षों पूर्व महर्षि ने उक्त शब्दावली लिखकर संसार को बता दिया कि सुराज्य "स्वराज्य' का स्थानापन्न कदापि नहीं हो सकता। उस समय जब स्वदेशीय राज्य की बात कहना अपने को घोर संकट में डालने से किसी प्रकार कम नहीं था, महर्षि ने बड़े ही निर्भीक भाव से यह बात लिख डाली। इस पवित्र वाक्य का गौरव तब और भी बढ़ जाता है, जब हमें यह ज्ञात होता है कि यह वाक्य उस समय लिखा गया था कि जब अत्याचारी अंग्रेज शासकों के विरुद्ध बोलना मृत्यु को निमन्त्रण देना था। इससे दयानन्द की निर्भीकता का आभास मिल जाता है। इसीलिए दयानन्द को जो लोग वर्तमान स्वराज्य आन्दोलन का सूत्रपात करने वाला कहते हैं, वे निराधार नहीं कहते हैं।
महर्षि दयानन्द जी महाराज ने स्वराज्य और स्वायत्तशासन के सार-मर्म के अति स्पष्ट सूत्र "सत्यार्थ प्रकाश' में उस समय लिख दिए थे, जब "राष्ट्रीय महासभा' (कांग्रेस) का जन्म भी नहीं हुआ था तथा शासन सुधारवादियों ने "स्वराज्य' शब्द का स्वप्न भी नहीं देखा था। "सत्यार्थ प्रकाश' से ही प्रेरणा पाकर लोकमान्य तिलक ने घोषणा की थी कि ""स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।''
भ्रान्त इतिहास - निवारक - जिस समय लार्ड मैकाले की बनाई योजना के अनुसार अंग्रेज भारत का इतिहास तोड़-मोड़कर लिखा रहे थे तथा इस देश के मूल निवासी आर्यों को मध्य एशिया के आक्रमणकारी के रूप में आए हुए बतला रहे थे, ऐेसे समय में ऋषि दयानन्द ने डंके की चोट से घोषणा की- ""भारत आर्यों का बसाया हुआ है, ये ही उसके आदिवासी हैं तथा सृष्टि के आदि से ये ही यहॉं निवास करते हैं।''
महर्षि दयानन्द की इस घोषणा से अंग्रेज बौखला उठे और उन्होंने महर्षि को विष देकर मरवाने के षड्यन्त्र रचे। अन्ततः उनका षड्यन्त्र सफल हुआ और महर्षि दयानन्द का बलिदान राष्ट्र को सावधान कर गया तथा चेतावनी दे गया कि इन विदेशी लुटेरों की चाल में मत आना। फलतः महर्षि के शिष्यों एवं अनुयायियों के बलिदान के परिणामस्वरूप भारत स्वतन्त्र हुआ।
स्त्री और शूद्रों के उद्धारक- स्त्रियों और शूद्रों के लिए महर्षि दयानन्द मसीहा थे। उन्होंने "स्त्री शूद्रो नाधीयताम्' का खण्डन करके "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' की स्थापना का मण्डन किया तथा "सत्यार्थ प्रकाश' में लिखा- "स्त्रियां भी व्याकरण, धर्म, चिकित्सा विज्ञान, गणित, शिल्पविद्या आदि अवश्य ही सीखें।" उन्होंने महिलाओं को वेद पढ़ने का अधिकार दिया।
उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को जन्म से नहीं, कर्म से माना और सब वर्णों के लिए समान अधिकार का प्रतिपादन किया। उनका कहना था "यदि परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि को पढ़ाने-सुनाने का न होता, तो उनके शरीर में वाक् और श्रवण इन्द्रिय क्यों रचता? जहॉं कहीं भी निषेध किया है, उसका यह अभिप्राय है कि जिसे पढ़ने-सुनने से कुछ भी न आए, वह निर्बुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र कहलाता है।" उन्होंने न केवल शूद्र, बल्कि अतिशूद्र की सन्तान को भी गुण, कर्म स्वभावानुसार प्राचीन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य बनने का अधिकार दिया।
आर्यसमाज के संस्थापक- कांगेस की स्थापना से दस वर्ष पूर्व सन् 1875 में महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी। कांग्रेस के इतिहास लेखक डॉ. पट्टाभि सीतारमैया के शब्दोें में ""स्वराज्य के जो स्वर 1906 में कांग्रेस के मंच से मुखरित हुए, उसकी सम्पूर्ण योजना और कार्यक्रम आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1875 में ही देशवासियों के सामने रख दिया था।'" अपने प्रमुख ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश' में स्वराज्य को सुराज्य में बदलने की रूपरेखा भी महर्षि ने उन्हीं दिनों लिख दी थी।
सुविख्यात क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा को विदेश में भेजकर स्वराज्य के लिए भूमिका तैयार करने में भी स्वामी जी की दूरदृष्टि थी। 1857 की क्रान्ति में चुप बैठे रहे भारत के देशी राजाओं को कर्त्तव्य का बोध कराने के लिए महर्षि कई बार देशी रियासतों में गए। उनके महाबलिदान के पश्चात् आर्यसमाज के अनेक नेता राष्ट्रीय आन्दोलन की अगली पंक्ति में रहे। उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व किया। अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द, पंजाब केसरी लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि नेता उसी पीढ़ी के थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन में भी सरदार भगतसिंह और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे अनेक उभरते हुए युवा व्यक्तित्व आर्यसमाज ने देश को दिए। स्वाधीनता आन्दोलन में जेल जाने वालों में अस्सी प्रतिशत आर्यसमाजी अथवा आर्यसमाज से जुड़े हुए लोग थे।
अन्त में हम यहीं कहेंगे कि महर्षि दयानन्द स्वराज्य के मन्त्रदाता ऋषि एवं भारतीय स्वाधीनता के अग्रदूत थे। कांग्रेस के कलकत्ता-अधिवेशन में श्रीमती ऐनी बीसेन्ट ने महर्षि की इसी भूमिका को देखते हुए उन्हें निम्न शब्दोें में श्रद्धान्जलि दी थी- "जब स्वराज्य मन्दिर बनेगा तो उसमें बड़े-बड़े नेताओं की मूर्तियां होंगी और सबसे ऊंची मूर्ति दयानन्द की होगी।" वस्तुतः महर्षि दयानन्द भारतीय स्वतन्त्रता के अग्रदूत थे।l
आचार्य डॉ. संजय देव, दिव्ययुग फरवरी 2009 divyayug february 2009
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना
Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव