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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम-2

विभीषण के साथ भी मर्यादा पुरुषोत्तम की आत्मीयता थी। लंका के युद्ध में मेघनाद के द्वारा वीर लक्ष्मण के आहत और मूर्च्छित होने पर राम ने जहॉं और अधूरे काम को देखकर खिन्नता प्रकट की तो वहॉं विभीषण को दिये वचन का पूर्ण न होना उन्हें (राम जी) सबसे अधिक खटक रहा था। विभीषण का ध्यान कर उन्होंने कहा-

यन्मया न कृतोराजा लंकायां हि विभीषणः।

अर्थात्‌ मैं लंका का राज्य विभीषण को न दे सका, इसका मुझे बहुत खेद है। ऐसे मित्र भला आज कहॉं मिलेंगे। आज तो पेट में छुरा घोंपने वाले मित्र रूप में शत्रु चहुं ओर विचरण करते दीख पड़ते हैं।

भगवान श्री राम बड़े नीतिमान, पारखी और अपनी दूरदर्शिता से चुटकियों में विषम परिस्थितियों को सुलझाने में बड़े कुशल थे। लंका में रावण के मरने पर राम की सेना में जब विजय के बाजे बजने लगे, तो अकस्मात्‌ ही बालि पुत्र योद्धा अंगद आवेश में भरा हुआ राम को आकर बोला कि ""यह विजय के बाजे बन्द कर दिये जायें, यह विजय आपकी न होकर मेरी अपनी विजय है।'' आवेश में आये अंगद ने कहा कि ""मेरे पिता के दो शत्रु थे- एक लंकापति रावण, दूसरे उनकी हत्या करने वाले आप। मैंने आपको पूर्ण सहयोग देकर एक योग्य पुत्र के नाते अपने पिता के एक शत्रु रावण को समाप्त कर दिया। इस प्रकार पिता का आधा ऋण तो मैंने चुका दिया, शेष आधा आपको युद्ध में पराजित करके चुकाना है। अतः अब मेरा और आपका युद्ध होगा।'' राम ने बड़ी दूरदर्शिता से इस विकट परिस्थिति को चुटकियों में सुलझा दिया। उन्होंने अंगद की पीठ थपथपाते हुए कहा कि ""निश्चय ही तुम वीर पिता के अनुव्रत पुत्र हो और सचमुच मैं इस विजय को तुम्हारी ही विजय स्वीकारता हूँ। परन्तु मैं भी अपने को इस विजय का भागीदार समझता हूँ।'' राम ने कहा- ""अंगद! तुम्हें स्मरण हो कि जीवन के अन्तिम क्षणों में तुम्हारे पिता ने तुमको मुझे सौंपते हुए मुझसे वचन लिया था कि मैं तुम्हें अपने पुत्र की तरह संरक्षण दूं। इस प्रकार तुम मेरे पुत्र हो और शास्त्रों का यह कहना है कि-

सर्वस्माज्जयमिच्छेत्‌ पुत्रादिच्छेत्‌ पराजयम्‌।

सबसे जीतने की इच्छा करे, परन्तु पुत्र से हारने की कामना करे। इस रूप में तुम जीते और मैं हारा। तुम्हारी इस जीत में मैं भी सम्मिलित होता हूँ। मुझे दूसरी प्रसन्नता यह है कि मैं तुम्हारे पिता को दिये गए वचन का पालन कर सका।""

रामचन्द्र जी बड़े पारखी भी थे और शरणागत को निर्भयता भी प्रदान कर दिया करते थे। जब रावण ने अपने भाई महात्मा विभीषण द्वारा कही गई सीता जी को आदरपूर्वक लौटाने की बात न मानी तो रावण से अपमानित होकर जब विभीषण राम के दल में राम से मिलने आया तो केवल रामचन्द्र जी को छोड़कर शेष सबका यही मत था कि यह शत्रु का भाई है। अतः इसका कुछ भी विश्वास न करना चाहिए। बड़ी तर्क-वितर्क के बाद राम ने विभीषण के अभिवादन करने के बारे में कहा-

आकारश्छाद्यमानोऽपि न शक्यो विनिगूहितुम्‌।

बलाद्धि विवृणोत्येव भावमन्तर्गतं नृणाम्‌।।

अर्थात्‌ मनुष्य अपने आकार को छिपाने की कोशिश करने पर भी नहीं छिपा सकता, क्योंकि अन्दर के विचार बलपूर्वक आकर आकृति पर प्रकट होते रहते है। अतः राम ने विभीषण का स्वागत करके उसको लंकेश कहकर, उसके भावों का जाना और आगे चलकर शत्रु के इसी भाई ने राम की पूरी सहायता की।

गीता के शब्दों- "समत्वं योग उच्यते' के अनुसार रामचन्द्र जी पूरे योगी थे। हर्ष-विषाद में वह एक समान रहते थे। राज्याभिषेक का समाचार पाकर वह फूलकर कुप्पा नहीं हुए अैर वन जाने की आज्ञा पाकर किसी तरह के विषाद के कारण उनकी आकृति पर कोई विकार नहीं आया।

न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुन्धराम्‌।

सर्वं लोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया।।

सर्वो ह्यभिजना श्रीमान्‌ श्रीमतः सत्यवादिनः।।

नालक्ष्यत हि रामस्य किञ्विदाकारमानने।।

यह तो सर्वविदित है कि वह कितने महान्‌ आज्ञाकारी पुत्र थे और भाई भरत से तथा माता केकैयी से भी कितना प्रेम करते थे। एक प्रसंग में राम ने कहा कि ""मैं अपने भाई भरत के लिए हर्षपूर्वक सीता, राज्य, प्राप्य, इष्ट पदार्थ एवं धन सब कुछ स्वयं ही दे सकता हूँ। फिर राजा के कहने पर और तुम्हारा (केकैयी) प्रिय करने के लिए तो क्यों नहीं दूंगा।'' यही नहीं केकैयी को राम ने यह भी कहा कि मैं पिता जी की आज्ञा से अग्नि में भी प्रवेश कर सकता हूँ। हलाहल विष का पान कर सकता हूँ और समुद्र में कूद सकता हूँ। राम एक बात कहकर दूसरी बात कभी नहीं कहा करता-

अहं सीता हि राज्यं च प्राणानिष्टान्‌ च हृष्टो हि।

भ्रात्रे धनं स्वयं दद्याम्‌ भरतायाप्रचोदित।।

किं पुनर्मनुजेन्द्रेण स्वयं पित्रा प्रचोदितः।

तत्र च प्रियकार्यार्थं प्रतिज्ञामनुपालयन्‌।।

अहो धिङ्‌नाहसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः।

अहं हि वचनाद्राज्ञ पतेयमपि पावके।।

भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं मज्जेयमपि चार्णवे।

तद्‌ ब्रूहि वचन देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्‌।

करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विनाभिभाषते।।

श्रीराम जी प्रजा को पुत्र समान प्यार करते थे और प्रजा जन भी उनको पिता से भी अधिक पालन-पोषण करने वाले मानते थे। उनके राज्य की विशेषताएं महर्षि वाल्मीकि तथा सन्त तुलसीदास जी ने बड़े मनोहर भाव भरे शब्दों में वर्णित की हैं। यही कारण था कि महात्मा गांधी स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात्‌ भारत में भी रामराज्य सा राज्य स्थापित करने के स्वप्न लिया करते थे। परन्तु दुःख है कि कालान्तर में कुछ लोगों की स्वार्थपरता के कारण वह स्वप्नमात्र ही बनकर रह गया।

आज देश विघटन और अराजकता, नेताओं की स्वार्थपरता तथा भ्रष्टाचार के गहरे खड्डे में जा पड़ा है। मानवता दानवता में बदल गई है। सब रावण, हिरण्यकश्यप और अराष्ट्रवादी बने हुए हैं। कोई भी देश हितैषी तथा प्रजाजनोें का हितचिन्तक दिखाई नहीं देता। कहने को तो सत्ताधारी महान्‌ देश हितैषी अपने आपको कहते हैं।

ऐसे विकट समय में मातृभूमि और जनता की भलाई व रक्षा के लिए राम जैसे महान्‌ योद्धा और नीतिनिपुण तथा परोपकारी शासक नेता की नितान्त आवश्यकता है।

अतः इस वर्ष रामनवमी (राम जन्मदिवस) के अवसर पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि हम अपने ध्येय से कितने नीचे चले गए हैं और अभी भी जा रहे हैं। हमें राम के जीवन का विधिवत्‌ निष्ठापूर्वक अध्ययन करके उसके अनुकूल अपना आचरण बनाना चाहिए। केवल जुलूसों, कीर्तनों, जलसों और भाव भरे भाषणों से अब काम चलने वाला नहीं है। ठोस कदम उठाकर तथा सक्रिय होकर ही हम देश के नैतिक मूल्यों की रक्षा कर पायेंगे। समय रहते हमें चूकना नहीं चाहिए। यही समय जागरूक होकर अन्तरराष्ट्रीय दूषित वृत्तियों का साहसपूर्वक सामना करके उनको और उभरने से रोकने का है। दिव्ययुग अप्रैल 2009, Divyayug April 2009

 

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