श्रीमन्ममहात्मा रामचन्द्र "वीर' महाराज का महानिर्वांण
दिव्ययुग के पाठकों द्वारा यह वृत्त अत्यन्त दुःख के साथ पढ़ा जाएगा कि वर्तमान युग के दधीचि, जीवित हुतात्मा, असंख्य मूक प्राणियों के रक्षक, अनेकों दिव्य व्यक्तित्त्वों के निर्माता एवं प्रेरणा स्रोत, धर्म एवं राष्ट्र की रक्षार्थ अपने यौवन और जीवन को समर्पित करने वाले, अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा, महान गोभक्त, परम तपस्वी, विराट एवं दिव्य व्यक्तित्व के स्वामी, महान् आध्यात्मिक विभूति, परम पावन, प्राणिवत्सल सन्त श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र "वीर" महाराज दिनांक 24 अप्रैल 2009 को अपनी तपःस्थली विराट नगर (राजस्थान) में अपनी नश्वर देह का त्याग कर महानिर्वांण को प्राप्त हो गए।
अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द के अत्यल्प सान्निध्य और उनके बलिदान से प्रेरणा ग्रहण करके सम्पूर्ण जीवन देश-धर्म और समाज के लिये समर्पित करने वाले युगपुरुष प्रातःस्मरणीय श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज ने करोड़ो हिन्दुओं को प्रेरित तथा प्रभावित किया। उन्होंने अपने शताधिक अनशनों और सत्याग्रहों से 1100 देवमन्दिरों से पशुबलि के कलंक को समाप्त किया तथा करोड़ों पशुओं के प्राण बचाए।
18 वर्ष की भरी जवानी में महाराजश्री ने गोहत्या बन्द न होने तक अन्न और नमक ग्रहण न करने का संकल्प लिया। 15 अगस्त 1947 को स्वाधीनता से पूर्व ही देश का विभाजन होने पर महाराजश्री ने एक और संकल्प लिया कि जब तक भारत पुनः अखण्ड नहीं होगा तब तक वे अन्न और नमक का सेवन नहीं करेंगे। इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते हुए वे आजीवन गोदुग्ध, फलों और शाकों के आहार पर निर्भर रहे। जीवन के अन्तिम समय तक भी महाराजश्री अपने उत्तराधिकारी यशस्वी सुपुत्र आचार्यश्री धर्मेेन्द्र जी से समय-समय पर पूछते रहे कि पाकिस्तान का क्या हुआ? समाप्त हुआ कि नहीं? इस प्रकार अन्तिम समय तक महाराजश्री भारत के पुनः अखण्ड होने की कामना करते रहे।
महाराजश्री का अन्तःकरण गंगाजल के समान निर्मल तथा देह चन्दन के समान पवित्र थी। पूज्य महाराजश्री का स्वास्थ्य सर्वथा सामान्य और प्रकृति आनन्दपूर्ण तथा स्फूर्ति सम्पन्न थी। 16 अप्रैल से उन्हें आंशिक ज्वर होने लगा था, जो औषधोपचार से सीमित हो गया था। वे धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहे थे। 24 अप्रैल 2009 को प्रातःकाल से ही महाराजश्री पूर्णतया प्रसन्नचित्त थे। देह पिछली रात से ही ज्वर से मुक्त था। शरीर में कोई पीड़ा नहीं थी।
महाराजश्री शान्तभाव से लेटे थे। दोपहर से पूर्व उन्होंने गोदुग्ध और शहद प्रसन्नता से ग्रहण किया तथा अनार का रस भी लिया। 12 बजे हल्की निद्रा में उनसे निवेदन करने पर उन्होंने कहा- "मैं ठीक हूँ, चिन्ता मत करो। मुझे सोने दो।'' फिर 12 बजे के पश्चात् उनकी श्वास गति धीमी होने लगी तथा 1 बजकर 15 मिनट पर बिना किसी पीड़ा या बेचैनी के उन्होंने अत्यन्त सहजता से अपनी तपःपूत दिव्य देह का त्याग कर दिया। उनके सुपुत्र आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी ने नाड़ी देखी तो वह निस्पन्द थी, अन्यथा महाराज की मुखमुद्रा पर निधन का कोई चिह्न नहीं था। इस दिव्य महानिर्वांण के समय उनके मुखारविन्द पर पूर्ण दिव्यता, परम शान्ति और विश्राम का सन्तोष विराजमान था। उनकी देह दो घण्टे तक गर्म रही तथा शरीर की कोमलता भी बनी रही, मानो कुछ हुआ ही न हो।
महाराजश्री के महानिर्वांण की सूचना अप्रत्याशित थी। जिसने सुना अवाक् रह गया। क्षेत्र की जनता महाराजश्री को अपने माता, पिता, गुरु, संरक्षक और भगवान के रूप में देखती थी। उसके हठपूर्ण आग्रह के सम्मुख कोई तर्क व्यर्थ था। महाराजश्री को सिंहासन पर विराजमान करके समारोहपूर्वक पर्वत शिखर से उतारकर नगर में लाया गया और उनके पूर्व तपस्या स्थल भूरामल्ल भवन के प्रांगण में दर्शनार्थ विराजमान किया गया।
रातभर पूरे क्षेत्र के श्रद्धाभिभूत नर-नारी, वृद्ध, बालक-किशोरादि दर्शनार्थ उमड़ते रहे। सारा क्षेत्र भक्ति, श्रद्धा और करुणा का समुद्र बन गया प्रतीत होता था।
महाराजश्री के सुपुत्र स्वयं आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी रातभर महाराज के दिव्य स्वरुप को निहारते, अश्रुपात करते, नाम संकीर्तन कराते रहे। वह सारा दृश्य अनिर्वचनीय है। 25 अप्रैल 2009 को प्रातः शास्त्रीय विधि से गंगा जल, पंचगव्यादि से महाराजश्री का अभिषेक करके उन्हें नये दिमाज में विराजमान किया गया। सन्तों, राजनेताओं, वरिष्ठ नागरिकों से सामान्य दलितों तक के समूह अंतिम प्रणामांजलि अर्पित करने उमड़ते रहे। 9.30 बजे महायात्रा प्रारंभ हुई। वह अक्षरशः महायात्रा ही थी।
सभी मार्गों, चौराहों, छतों पर दूर तक असंख्य जनसमूह नाचते, गाते, रोते, आँसू बहाते, जय-जयकार करते नर-नारी चल नहीं रहे थे बह रहे थे तथा अनवरत पुष्प वर्षा हो रही थी और चढ़ाए गए पुष्पों की एक चुटकी अपने पास सहेजकर रखने के लिए आतुर-आकुल-व्याकुल हो रहे थे। श्रीराम जयराम जय जय राम के अखण्ड कीर्तन के बीच जयघोष तथा महाराजश्री का संकल्प हजारों-हजारों कण्ठों से आकाश में गूँज रहा था-
हिन्दू धर्म प्रचण्ड हो ।
भारतवर्ष अखण्ड हो।।
ऐसी अभूतपूर्व यह महायात्रा भीमगिरी पर्वत के नीचे पावन प्रकल्प परिसर पहुंचकर समाप्त हुई, जहॉं असंख्य भक्तों, शिष्यों, अनुयायियों, वरिष्ठ राजनैतिक हस्तियों, धर्माचार्यों तथा विभिन्न दलों एवं संगठनों के सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं सहित लगभग पचास हजार के जनसमूह की उपस्थिति में महाराजश्री के तेजस्वी एवं यशस्वी सुपुत्र पंचखण्डपीठाधीश्वर आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी महाराज द्वारा उनकी वज्रदेह को अग्निदेव को समर्पित कर दिया गया।
दिव्य मानव मिशन के संस्थापक तथा महाराजश्री के परम भक्त आचार्यश्री डॉ. संजयदेव जी ने उनके महानिर्वांण को राष्ट्र एवं हिन्दुत्व की ही नहीं, अपितु स्वयं अपनी भी अपूरणीय क्षति बताया है। ऐसी विलक्षण एवं दिव्य आध्यात्मिक विभूति युगों-युगों के बाद ही वतरित होती है। दिव्ययुग परिवार की ओर से महाराजश्री को हार्दिक श्रद्धांजलि एवं कोटिशः नमन ! शोकाकुल दिव्ययुग परिवार, Divyayug June 2009 (दिव्ययुग जून 2009)
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
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दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म।
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