महर्षि दयानन्द सरस्वती भारतीय इतिहास के एक गौरवपूर्ण अध्याय हैं। वे भारत व भारतीयता के लौहस्तम्भ तथा एकात्मकता के अग्रदूत थे। भारतीय जन-गण उनके सदा कृतज्ञ रहेंगे। अठारहवीं सदी में इस महानायक का प्रादुर्भाव अत्यन्त विपरीत संकटापन्न स्थिति में हुआ। दीन-हीन, असहाय व ब्रिटिश साम्राज्यवाद के थपेड़ों ने इस देश के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राष्ट्रीय जीवन को जर्जरित कर दिया था। चारों ओर से अविद्या-अन्धकार, अन्याय व छुआछूत, जातिभेद जैसी सामाजिक विषमताओं, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, बहुदेवतावाद, मृतक श्राद्ध जैसी मिथ्या आडम्बरयुक्त रूढ़ियों और कुप्रवृत्तियों के कुटिल पाशों से सारा देश बुरी तरह जकड़ा हुआ था। पाश्चात्य विचारों की प्रबल आंधी से बाह्य-आन्तरिक दृष्टि से भारतीय जीवन व्याकुल व अस्त-व्यस्त हो चुका था। ऐसे समय में समाज व देश में एकात्मकता भाव स्थापित करना अपरिहार्य था। लोगों के वैयक्तिक नैतिक चरित्र का ह्रास होता जा रहा था। सदियों की परतन्त्रता से राष्ट्र की आत्म-चेतना को जंग लग चुकी थी। देश का आत्म गौरव व स्वाभिमान सो चुका था। परन्तु इस भारत भूमि, पुण्यभूमि, देवभूमि के अन्दर आत्म चेतना के बीजांकुर अब भी विद्यमान थे। आर्यों का पराभव व पतन उस अदृश्य सत्ता को कब सह्य था? क्योंकि "अहं भूमिमददामार्याय' (ऋग्वेद 4.26.2) यह भूमि मैंने (जगत्पिता ने) आर्यों को दी है, अनार्यवृत्ति वाले दस्युओं को नहीं। आदिम ज्ञान व सभ्यता की पहली किरण भी इसी भूमि, आर्यावर्त की भूमि पर ही पड़ी थी। महर्षि दयानन्द का कथन है कि इस आर्यावर्त देश के समान भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। तभी तो स्मृतिकार भगवान मनु ने कहा- "स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।''
महर्षि दयानन्द का युग भारतीय नवोदय का ऊषाकाल था। यह भूमि महानात्माओं की कर्मभूमि है और दयानन्द एक ऐसे द्रष्टा व कर्म के अजेय योद्धा बनकर आये, जो सुषुप्त भारतीयों के प्राणों में ऊष्मा का संचार कर सके। फ्रेंच विचारक रोमां रोला ने लिखा है कि ""वे सिंह के समान तेजस्वी व्यक्तियों में से थे, जिन्हें यूरोपवासी भारत के सम्बन्ध में विचार करते हुए प्रायः भूल जाते हैं। परन्तु अपने को हानि पहुंचाकर भी उन्हें सम्भवतः एक दिन याद करना ही होगा। कारण दयानन्द उन महापुरुषों में से थे, जिनमें कर्म की विचारशक्ति और नेतृत्व की प्रतिभा का अद्भुत सम्मिश्रण होता है.....वे इलियड व गीता के नायक के तुल्य थे, जिसमें हरक्यूलिस जैसा अतुल शारीरिक बल था।'' आगे रोमां उनकी सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं, ""वे अपने प्रयत्न में इतने सफल हुए कि पॉंच वर्ष में ही उन्होंने उत्तरी भारत का रूपान्तरण कर दिया.... उन पर विजय पाना प्रायः असम्भव था। कारण उनका संस्कृत व वेदों का ज्ञान अद्वितीय था और उनके अग्निवर्षक शब्दबाण शत्रुओं को बेकार कर डालते थे। शंकर के बाद उन जैसा वेदों का पण्डित नहीं हुआ।''
इतना होते हुए भी भारतीय मन यह प्रश्न करने का अधिकार रखता है कि हमें आखिर दयानन्द ने क्या दिया? इसी प्रश्न के प्रति उत्तर में एक प्रश्न और है कि दयानन्द ने हमें क्या नहीं दिया? प्रिय बन्धुओ! दयानन्द ने इस पराभूत हिन्दू (आर्य) जाति के लिए वे अमूल्य रत्न दिये, जिनका लगभग 125 विगत वर्षों का इतिहास साक्षी है। सच कहें तो उस दिव्यात्मा ने इस जाति के अभ्युदय-उत्कर्ष के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन आहूत कर दिया। अब जरा अपने आपको पूछें तो हमने उन्हें क्या दिया? तो कहना पड़ेगा कि हमने उन्हें ईंट-पत्थर मारे, अपमानजनक गालियां भी दीं, जूते उछाले, कीचड़ उछाला, हर अवसर पर अपमानित करने का कुकृत्य किया। पर वे हमें फूल दे रहे थे, तो हम उन्हें विष के प्याले भी दे रहे थे और एक बार नहीं, अनेकों बार विष प्रयोग किया। पर इतने से हम सन्तुष्ट कब थे? क्रूर अहंकारी व्यक्तियों ने उस सिंह पुरुष पर प्राणघातक तलवारों के हमले भी किये, पर आखिर उस तलवार को भी पराजित होना पड़ा।
दयानन्द वास्तव में दया के सागर थे। दया और करुणा ही उनका आनन्द था। तभी तो अपने को प्राणान्तक विष देने वाले जगन्नाथ को भी अपने पास रखी कुछ मुद्राएं और अभयदान देकर तुरन्त नेपाल चले जाने को कहते हैं, ताकि किसी को पता न चल जाये। वाह री कृतघ्न हिन्दू जाति! जरा अपने किये पर प्रायश्चित तो कर!
हम महर्षि को भुलाकर समर्थ भारत व समृद्ध राष्ट्रीय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। वे जीवन की सर्वांगीण समुन्नति चाहते थे। उन्होेंने हमें एक परिपूर्ण जीवन दर्शन दिया, जो हमारे अभ्युदय के लिए आवश्यक है। ऋषि ने हमें वैदिक ढंग से जीवन जीने की एक दिशा दी, एक पद्धति व सूत्र दिया। आर्यों के प्राचीन आदर्श को हमारे जीवन में स्थापित किया। वे सच्चे अर्थों में वैचारिक क्रान्ति के प्रथम सूत्रधार व युगनायक ऋषि थे। जीवन का कोई ऐसा विषय अछूता नहीं छोड़ा जिस पर महर्षि ने अपना चिन्तन वा दर्शन नहीं दिया हो। एक वीतराग संन्यासी होने पर भी अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का एक अध्याय (समुल्लास) राजधर्म पर लिखा। सत्यार्थप्रकाश के माध्यम से ऋषि ने समग्र चिन्तन की रूपरेखा हमारे समक्ष प्रस्तुत कर मानवता की बहुत बड़ी सेवा की है। यह वही ग्रन्थ रत्न है, जिसमें सर्वप्रथम प्रयोग किए गए "स्वराज्य' व "स्वदेशी' जैसे शब्दों से प्रेरित होकर मातृभूमि की परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने हेतु सहस्रों अमर शहीदों ने भारत का एक नया इतिहास रचा। महर्षि का यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा का सर्वप्रथम लेखन था। हिन्दी भाषा व साहित्य को महर्षि का बहुत बड़ा योगदान है।
स्वातन्त्र्य वीर सावरकर ने अण्डमान के क्रूर कारागृह के वाचनालय में सत्यार्थप्रकाश को मंगवाकर सभी बन्दी राजनैतिक कैदियों को इसे पढ़ने का आह्वान किया था। उनका मानना था कि- ""स्वामी दयानन्द जी का यह ग्रन्थ हिन्दू संस्कृति के उच्चतम तत्व मन पर अंकित करता है। वह हिन्दू धर्म का राष्ट्रीय स्वरूप व्यक्त करता है और अदम्य व उत्साही मन का प्रचारक है।'' इस ग्रन्थ पर अपनी आस्था व्यक्त करते हुए वीर सावरकर कहते हैं- ""सत्यार्थप्रकाश की विद्यमानता में कोई विधर्मी अपने मजहब की शेखी नहीं बघार सकता।'' इस ग्रन्थ की वैचारिक क्रान्ति ने समस्त मत-पन्थों को जर्जरित कर दिया है। आज कुरान, पुराण व बाईबल आदि पन्थाई ग्रन्थों की व्याख्याएं बदल रही हैं, ताकि इन मजहबों पर लगे कलंकों को धोया जा सके। यह सत्यार्थप्रकाश की महान विजय का ही प्रभाव है। इसने हमें अदम्य साहस, नया उत्साह और सुदृढ़ संकल्प बल दिया। ऐसी संकटमयी घड़ी में दयानन्द नहीं आते तो पता नहीं भारत का भविष्य क्या होता? इसी विचार पर श्री अरविन्द योगीराज लिखते हैं- ""वे ऐसी महान आत्माओं और महाप्रभावशाली व्यक्तियों के रूप में स्मरण किये जायेंगे, जो भारत की आत्मा में निवास करते हैं। वे हमारे अन्दर हैं और उनके बिना निःसन्देह हम वह न होते जो आज हैं।''
महर्षि दयानन्द ने ही समग्र राष्ट्र को एकसूत्रता में पिरोने हेतु वर्षों से विस्मृत परम प्रभु के दिव्य विधान दिव्य ज्ञान के स्रोत "वेद' हमारे हाथों में दिये। दयानन्द का जीवन वेद के लिये था। वे वेद के लिये जिये और इन्हीं वेदों की विश्वव्याप्ति हेतु अपने समग्र जीवन को आहूत कर दिया। उनके धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राष्ट्रीय एकता के आधार भी वेद थे। महर्षि के सुदृढ़ विचार थे कि ""एक धर्म, एक भाषा और लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और जातीय उन्नति का होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्र स्थान ऐक्य है। जहॉं भाषा, भाव और भावना में एकता आ जाए, वहॉं सागर में नदियों की भांति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं।'' अपने इस ध्येय की सफलता हेतु सन् 1877 ई. में दिल्ली में एक आयोजन के अवसर पर तत्कालीन धार्मिक नेताओें तथा सार्वजनिक कार्यकर्ताओं की एक सभा बुलाई, जिसमें मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खां, ब्रह्म समाज के नेता केशवचन्द्र सेन और नवीनचन्द्र राय भी उपस्थित हुए। महाराष्ट्र के हरिश्चन्द्र चिन्तामणि, पंजाब के मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी और वर्तमान उत्तर प्रदेश के मुंशी इन्द्रमणि को भी इस समय आमन्त्रित किया गया। राष्ट्रीय एकता के महान उद्देश्य की सिद्धि के लिए सम्मेलन की कार्यवाही में महर्षि दयानन्द ने एक प्रस्ताव रखा था- ""यदि हम सब लोग एकमत हो जाएं और एक ही रीति से देश का सुधार करें तो आशा है कि देश शीघ्र ही सुधर सकता है।'' परन्तु दुर्भाग्य से उनका यह प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हो सका।' लेखक- महावीर आर्य
दिव्य युग अक्टूबर 2009 इन्दौर Divya yug October 2009 Indore
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
इच्छा आत्मा की होती है, शरीर की नहीं
Ved Katha Pravachan - 94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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