जिस समय भारत-भूमि पर परम प्रतिभा सम्पन्न सूर्य समान तेजस्वी और क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ, उस समय एक ओर तो यह देश विदेशियों से पराभूत था तथा दूसरी ओर देश की आभ्यन्तरिक शक्ति छिन्न-भिन्न होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त थी। सामाजिक दृष्टि से रूढ़िग्रस्त मान्यताओं के आधार पर हिन्दू अनेक जातियों-उपजातियों में बंटकर दुर्बल हो गये थे। धर्म के स्थान पर पाखण्ड प्रचलित हो चुका था। लोग सत्य ज्ञान के प्रकाश केन्द्र पावन वेदों को भुलाकर अनार्ष ग्रन्थों को धर्म पुस्तक मान बैठे थे। खान-पान, छुआछूत की भावना आदि रूढियॉं धर्म का आधार बन गई थी। अपने ही भाइयों से घृणा, अन्याय एवं निरादर पाकर तथा बढ़ते हुए ईसाइयत के चक्र में फंसकर सामाजिक संरक्षण की तलाश में अनेकों हिन्दू स्वधर्म को छोड़कर विधर्मी हो रहे थे। राजा-रईस आत्महीन होकर विलासी बन गए थे। चारों ओर अन्धकार, नैराश्य तथा असहायता की भावना का साम्राज्य था। ऐसी विकट परिस्थिति में ऋषिराज प्रकट हुए। उनके समक्ष निर्बल राष्ट्र के निर्माण की समस्या की। परन्तु उससे भी कठिन था इस जटिल समस्या का निराकरण। क्योंकि राष्ट्रशक्ति का ह्रास हो चुका था। एकता थी नहीं। इसलिये विदेशी सत्ता से प्रत्यक्ष टक्कर लेना असम्भव था। अतः महर्षि ने राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध करना चाहा।
परन्तु एकता हो कैसे? भारतीय जीवन के किस अंग पर प्रहार किया जाए, ताकि वह अपने सर्वांङ्ग रूप से आन्दोलित हो उठे? जिस देश का एक राजा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और द्वेष के कारण स्वदेशी राजा को हराने के लिये विदेशी शासकों की सहायता करता हो, जिस देश के लोगों का सामाजिक ढांचा जन्म के आधार पर निश्चित होता हो, सामाजिक गतिशीलता कुण्ठित हो गयी हो, आपस में ही ऊँच-नीच की भावना हो, परम अज्ञानवश नीची कही जाने वाली जाति के लोगों से ऊँची कहलाने वाली जाति के लोग छुआ जाना भी पाप समझते हों, वहॉं एकता कैसे हो ?
ऋषिवर भविष्यद्रष्टा थे। सामाजिक जीवन का उन्होंने सूक्ष्म अध्ययन किया था। उन्होंने देखा कि सब प्रकार की विषम परिस्थितियॉं होते हुये भी भारतवासियों को धर्म के सूत्र में बांधा जा सकता है। धर्म ही एक द्वार है, जिसमें से घुसकर समस्त भारतीय जीवन को स्पर्श किया जा सकता हैतथा विशाल क्रान्ति का प्रणयन किया जा सकता है। ऋषिवर ने अनुभव किया कि धर्म की ध्वजा के नीचे सम्पूर्ण जन समुदाय को एकत्रित किया जा सकता है। अतः राष्ट्र निर्माण के लिये एकता का आधार उन्होंने धर्म को बताया। परन्तु यह धर्मसूत्र भी उस समय अत्यन्त उलझा हुआ था। धर्म के स्वरूप से लोग अनभिज्ञ थे। एक ओर कर्मकाण्ड की जटिलता से धर्मपथ दुरूह बन गया था, तो दूसरी ओर चारित्रिक एवं नैतिक पतन की अवस्था में भी तथाकथित तीर्थों में स्नानादि से और पण्डों की दक्षिणा देने से मुक्ति का लाइसेन्स मिल जाता था। लोग विभिन्न मत-मतान्तरों में भटक रहे थे। परन्तु एक बात थी, जिसका ऋषि की तीक्ष्ण दृष्टि ने अवलोकन किया कि सभी वेद के नाम पर एक हो सकते हैं। क्योंकि सभी के हृदय में वेदों के प्रति श्रद्धा विद्यमान थी। ऋषि दयानन्द ने विचार किया कि यदि वेदों का सत्यधर्म प्रकाश में लाया जाए तो, लोक कल्याण संभव है। इसलिये वेद को धर्म का मूल मानकर भारत को पुनः जगद्गुरु तथा वैभव सम्पन्न बनाने की दृष्टि से उन्होंने परिश्रम किया।
भारतवर्ष में जब मुगल काल अपने पूर्ण विकास के स्तर पर था, स्वदेशीय राजाओं की शक्ति समाप्त हो गयी थी, एकता मिट चुकी थी, सामान्य जन को कहीं कोई शक्ति का आधार नहीं मिल रहा था, इतिहास बताता है कि उस समय भी अनेक सन्त-महात्मा उत्पन्न हुये जिन्होंने जनता को सन्तुष्टि का पाठ पढ़ाया, धर्म और भक्ति का भाव दिया, भगवान के नाम पर समर्पित हो जाने को कहा। परन्तु वस्तुतः यह प्रवृत्ति क्रियाशीलता को दिशा न देकर निष्क्रियता को निमन्त्रण था। जागरण का मन्त्र न देकर कमजोर जनता के लिये नींद की गोलियॉं थी। इसी कारण छुटपुट लड़ाइयों के अतिरिक्त कोई विशाल क्रान्ति उस ऐतिहासिक युग में न हो सकी और राजनैतिक सत्ता चली गयी ब्रिटिश शासकों के हाथ में। ब्रिटिश शासन के बढ़ते हुये प्रभावों के मध्य चरण में महर्षि दयानन्द ने सोये हुए भारत को जगाया। अपने जन-जीवन की त्रुटियों को सुधारा। कुरीतियों के आवरण को चीर-चीरकर फेंक दिया ऋषि दयानन्द ने। विधर्मियों को फटकारा और विदेशियों को ललकारा। भारतीयों को आत्मगौरव दिया और बताया कि भारतवासियो! अपने विशाल रूप को पहचानो। स्वदेशी राज कितना ही बुरा हो, विदेशी राज (पराधीनता) से अच्छा होता है। यही उद्घोषणा थी विशाल क्रान्ति के कार्यक्रम की। फिर क्या था! 1857 में भारत में स्वातन्त्र्य महासंग्राम हुआ। वह असफल जरूर हुआ, परन्तु जो ज्योति जली थी वह बुझ नहीं सकी। जनता के हृदय में स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु हिलोरें उठने लगी। महर्षि दयानन्द सरस्वती के पश्चात् उनके अनुयायी स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिये निरन्तर संघर्ष करते रहे। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानन्द आदि ने अपने परम पुरुषार्थ से संसार को चकित कर दिया। क्रान्तिकारी वीर चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, पं. रामप्रसाद बिस्मिल ने स्वराज्य यज्ञ में अपने प्राणों की हॅंसते-हॅंसते आहुति दी। यह महर्षि दयानन्द का ही तो प्रताप था।
राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से महर्षि ने धर्म को आधार बनाया और धर्म भी वह जो सदा सनातन हो, जो सृष्टि के आदि से चला आ रहा हो, जो शुद्ध वैज्ञानिक सत्यों पर खरा उतरे, वह वैदिक धर्म।
आज देश में पदलोलुपता, स्वार्थ और भ्रष्टाचार बढ़ रहा हो। भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय और जाति के नाम पर विघटन के तत्व पनप रहे हैं। राष्ट्रीय चरित्र गिर रहा है। अनेक कारणों में इन सबका एक कारण है,आत्मशक्ति के ज्ञान का अभाव। विदेशियों के शासन का चक्रजाल हमें ऐसा फंसा गया कि हम अब तक उसी में उलझे हैं। विदेशी शासक तो गये, लेकिन उनकी शासन-पद्धति ज्यों की त्यों हमारे ऊपर हावी है। नौकरशाही का वही ढर्रा अब भी चल रहा है। व्यक्ति बदलने से राष्ट्र निर्माण नहीं होता। हमें विचार बदलना होगा और आदर्श बदलना होगा। इसीलिये ऋषि दयानन्द ने विचारों के जगत में परिवर्तन करना चाहा। सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिये हमेशा उद्यत रहने का सन्देश दिया। ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैन, पौराणिक सबके विचारों को एक तराजू पर रखा तथा दूसरी ओर सत्य धर्म के प्रकाश को।
यदि हमें अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो हमें आज अपने स्वरूप को जानना होगा। विदेशी भौतिक दर्शन की चकाचौंध से दूर रहकर ऋषि दयानन्द के सिखाये हुए वेदों के प्रकाशमय पथ पर चलना होगा। तभी राष्ट्र यज्ञ सफल होगा, तभी भारत अपने प्राचीन वैभव को प्राप्त कर जगद्दुरु बन सकेगा तथा तभी आत्मविस्मृत मानवता का उद्धार होगा। - दिव्ययुग अक्टूबर 2009 इन्दौर Divyayug October 2009 Indore
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