राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता के विषय में महर्षि दयानन्द के विचारों का महत्व
भारतीय नवजागरण के अग्रदूत महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रतिपादित विचारों की भारत की राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने तथा देश की अखण्डता की रक्षा में क्या उपयोगिता है, इस पर विचार करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि किसी राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता से क्या अभिप्राय है? यदि हम संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेदों का अवलोकन करें तो हमें विदित होता है कि वैदिक वाङ्मय में सर्वप्रथम राष्ट्र की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। अथर्ववेद के 12वें काण्ड का प्रथम सूक्त जो भूमि सूक्त या मातृभूमि की वन्दना के नाम से जाना जाता है, हमारे समक्ष राष्ट्र की परिपूर्ण तथा सुविचारित कल्पना प्रस्तुत करता है। इसे आप वेद का राष्ट्रीय गीत भी कह सकते हैं। वेदों में राष्ट्र के प्रति जैसी धारणा व्यक्त की गई है तथा उसके प्रति नागरिकों के जिन कर्त्तव्यों का निर्धारण किया गया उसे ही इन 63 मन्त्रों में सुस्पष्ट ढंग से परिभाषित किया गया है। इस सूक्त के सभी मन्त्र इतने गम्भीर तथा व्यापक हैं कि किसी भी देश का वासी इनके अर्थों का चिन्तन कर एक सच्चा और अच्छा नागरिक बन सकता है। यहॉं यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यद्यपि एक देश के निवासियों के आचार-विचार, खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा-भाषा आदि में भिन्नता हो सकती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इन्हीं विभिन्नताओं के कारण राष्ट्र और धरती की एकता तथा अखण्डता पर आंच आए।
जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्।।
यह धरती नाना प्रकार की बोलियों को बोलने वालों तथा नाना पेशों से जीविका चलाने वाले लोगों को उसी प्रकार धारण करती है मानो वे एक ही घर के लोग हों। भाषा तथा व्यवसायगत भेद पृथ्वी के नागरिकों में भिन्नता तथा अनेकता नहीं लाते। महर्षि दयानन्द ने वेद प्रतिपादित इसी तथ्य को हृदयंगम किया था और वे पृथ्वी के समस्त नागरिकों को एक ही परिवार का सदस्य मानते थे। इसलिए उन्होंने अपने द्वारा स्थापित आर्यसमाज का उद्देश्य किसी देश, सम्प्रदाय तथा वर्ग, वर्ण का कल्याम करना नहीं बताया अपितु संसार के उपकार को ही इस संस्था का लक्ष्य ठहराया था।
राष्ट्र की परिभाषा अनेक प्रकार से की गई है। किन्तु अधिकांश विचारकों की राय में राष्ट्र उस भौगोलिक इकाई का नाम है, जिसकी सीमाएं बहुत कुछ प्राकृतिक होती है तथा जिसके निवासियों के इतिहास, संस्कृति, परम्परा, जीवनदर्शन तथा आचार व्यवहार में एकरूपता दिखाई देती है। यों तो कोई भी राष्ट्र धरती का एक टुकड़ा ही होता है जिसमें नदी, पर्वत, नाले, झरने, वन, मैदान आदि के अतिरिक्त मनुष्यों द्वारा निर्मित बस्तियॉं भी होती हैं किन्तु उस भूभाग की सांस्कृतिक एकता ही वह मूलभूत तत्व है जो इस भूखण्ड को राष्ट्र की संज्ञा प्रदान करता है। इस प्रसंग में पृथ्वी सूक्त का निम्न मन्त्र मननीय है-
शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता।
अर्थात् प्रत्यक्षतया तो यह धरती विभिन्न चट्टानों मिट्टी के कणों, प्रस्तर खण्डों तथा बालू रेत का ही समष्टि रूप है किन्तु जब यही भूखण्ड देशवासियों द्वारा सुसंस्कृत बनाकर सम्यक्तया धारण किया जाता है तो उसके साथ देश की गौरवमयी संस्कृति तथा इतिहास के गरिमामय प्रसंग जुड़ जाते हैं। तब प्रस्तरमयी शिलाओं तथा धूल के कणों वाली यह धरती हमारे लिए वन्दनीय तथा रक्षणीय राष्ट्र बन जाता है। इसी वैदिक तथ्य को अनुभव कर महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में सर्वत्र स्वदेश आर्यावर्त का कीर्तिगान किया है और इसके विगत ऐश्वर्य, वैभव तथा गौरव का उन्मुक्त कण्ठ से गान किया है। देशवासियों को स्वराष्ट्र के प्रति कर्त्तव्योन्मुख किया है। उनके अनुसार जिस देश के अन्न-जल से हमारा पालन हुआ है, क्या उसके प्रति हमारा कोई दायित्व और कर्त्तव्य नहीं है? स्वदेश में स्वराज्य की स्थापना का अपना पावन कर्त्तव्य बताते हुए उन्होंने लिखा था, ""चाहे कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतामतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याय-युक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता।'' सत्यार्थप्रकाश, अष्टम समुल्लास।
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि राष्ट्र की सुस्पष्ट धारणा से पुराकालीन आर्य लोग सर्वथा परिचित थे। इस प्रसंग में यह लिखना भी आवश्यक है कि हमारे विदेशी शासकों ने इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं किया कि भारत सुसंगठित तथा सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोया एक राष्ट्र है। इस विचारधारा को देश के नागरिकों में प्रचारित करने के पीछे उनका एक गुप्त एजेण्डा था। उनके निहित गोपनीय स्वार्थ। वे नहीं चाहते थे कि भारत के निवासी अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को पहचानें तथा एकता के सूत्र में बन्धकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए सामूहिक उद्योग करें। अपने इस स्वार्थ की पूर्ति के लिए वे वहॉं के निवासियों को सदा यही पाठ पढ़ाते रहे कि भारत के आदिम निवासी तो कोल, भील, द्रविड़ जातियों के लोग थेजो कबीलों में रहते थे और उन्नतिशील आर्यों से उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं था। महर्षि दयानन्द ने पश्चिमी लोगों द्वारा प्रवर्तित इस मिथक को तोड़ा तथा इस बात को बलपूर्वक प्रतिपादित किया कि आर्य लोग ही आर्यावर्त के आदि निवासी थे। उनके बसने के पहले इस देश में अन्य किसी जाति का निवास नहीं था। उन्होंेने आर्यों और द्रविड़ों में धर्मगत भेद को नहीं माना। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा लिखे गये इतिहासों से उत्पन्न भ्रान्तियों का प्रबल खण्डन किया और भारत के वास्तविक इतिहास के अनेक गौरवपूर्ण प्रसंगों को उजागर किया।
यदि हम आर्यों के विगत इतिहास को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस देश के विदेशी दासता के काल को छोड़कर अत्यन्त प्राचीन काल में देश की एकता को मजबूत करने का प्रयत्न यहॉं सदा होते रहे हैं। महाभारत काल को ही देखें। उस समय इस देश को विखण्डित करने के अनेक कारण उत्पन्न हो गये थे। अन्यायी, अत्याचारी, पराये स्वत्व को छीनने वाले क्षुद्रमनस्क शासकों के पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष के वशीभूत होकर हमारी प्रजा अत्यन्त पीड़ा तथा त्रास का अनुभव कर रही थी। उस समय कृष्ण जैसे महामनस्वी, नीतिज्ञ प्रज्ञापुरुष ने आर्य राष्ट्र के संरक्षण तथा नवनिर्माण की कल्पना को साकार किया। उन्होंने ही धर्मराज युधिष्ठिर को आर्यावर्त का एकछत्र सम्राट् घोषित कराने का पुरुषार्थ किया तथा आसेतु हिमाचल भारत को एक अखण्ड राष्ट्र बनाया। महर्षि दयानन्द ने उस युगपुरुष को अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए सर्वथा उपयुक्त ही लिखा था- ""देखो! महाभारत में कृष्ण का जीवन अत्युत्तम रीति से वर्णित हुआ है। उन्होंने जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कोई अधर्म का काम नहीं किया था।''
इसी प्रकार समय-समय पर देश की आजादी तथा अखण्डता को सुरक्षित रखने के लिए महामति चाणक्य तथा समर्थ रामदास जैसे मनस्वी पुरुषों ने सम्राट् चन्द्रगुप्त तथा हिन्दू पद पादशाही के आदर्श को क्रियान्वित करने वाले शिवाजी महाराज को प्रेरित किया। उधर महाराणा प्रताप, वीर दुर्गादास तथा दशम गुरु गोविन्दसिंह ने अत्याचारी केन्द्रीय शासकों से अपने राज्यों को स्वाधीन रखने के लिए सर्वोच्च वीरता तथा त्याग के अप्रतिम आदर्श रखे। ऋषि दयानन्द ने इन सभी इतिहास पुरुषों के राष्ट्रीय एकता में योगदान को आदर के साथ स्मरण किया है।
यों तो इस्लामी आक्रमणकारियों के समय से ही देश की एकता तथा अखण्डता को क्षति पहुंचने लगी थी, क्योंकि इन विदेशी हमलावरों की असहिष्णु नीति के कारण यहॉं के निवासी हिन्दुओं में असुरक्षा के भाव पैदा हो गये थे। जो हिन्दू अपने मत का त्याग कर इस्लाम को स्वीकार कर लेते, उन्हें सुरक्षा दी जाती थी, जबकि स्वधर्म पर स्थित रहने वालों को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनने के लिए मजबूर किया जाता। उन्हें जजिया नाम का कर देना पड़ता तथा अपनी मर्जी के अनुसार पूजा उपासना के उनके मौलिक अधिकार भी छीने जाने लगे। इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखकर महर्षि दयानन्द ने मध्यकाल के असहिष्णु इस्लामी शासकों की कठोर साम्प्रदायिक नीतियों का विरोध किया। अपेक्षाकृत उन्होंने अंग्रेजी राज्य की इसलिए सराहना की है कि इस राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुकूल धर्मपालन करने की स्वतन्त्रता है तथा राजनैतिक पराधीनता होने पर भी देशवासी बहुत कुछ सुरक्षित जीवन बिता रहे हैं।
शताब्दियों के पश्चात् राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता को साकार करने का एक अवसर हमें तब मिला जब यूरोपीय जातियों के सम्पर्क में आकर भारत में नवजागरण की स्फूर्तिमयी लहर उत्पन्न हुई। राजा राममोहन राय को नवजागरण का अग्रदूत कहा गया है। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में वैदिक एकेश्वरवाद की पुनः स्थापना की। उन्होंने मध्यकालीन पौराणिक विश्वासों से उत्पन्न बहुदेववाद का प्रबल खण्डन किया तथा वेदों में निहित एकेश्वरवाद के सिद्धान्त को ही आर्यों का मूलभूत सिद्धान्त ठहराया। आलोचकों का तो कहना है कि राम मोहन राय द्वारा एकेश्वरवाद का प्रतिपादन एक मजबूरी थी, क्योंकि उन्हें ईसाइयत तथा इस्लाम में स्वीकृत एकेश्वरवाद की प्रतिद्वन्द्विता में हिन्दू एकेश्वरवाद को सिद्ध करना था। किन्तु यह आक्षेप सर्वथा मिथ्या तथा अन्यायपूर्ण है। ईसाइयत में तो पिता-पुत्र तथा पवित्रात्मा का त्रैत स्वीकार किया गया है, जबकि इस्लाम में अल्लाह की एकता पर जोर देने के साथ-साथ मोहम्मद के पैगम्बर होने की स्वीकृति आवश्यक समझी गई है। यथार्थतः राममोहन राय ने जिस एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया था वह वैदिक, औपनिषदिक तथा वेदान्त दर्शन पर आधारित एक सर्वोच्च सच्चिदानन्द सत्ता को स्वीकार करना ही था, किन्तु वह शंकर के एकेश्वरवाद तथा अद्वैतवाद से सर्वथा भिन्न था। ऋषि दयानन्द ने भी इसी प्रकार के एकेश्वरवाद को आर्य दर्शन के सर्वथा अनुकूल ठहराया तथा इसे देश की एकता के लिए अनिवार्य बताया।
राममोहन राय के प्रारम्भिक प्रयत्नों के पश्चात् महर्षि दयानन्द ने ही देश की स्वतन्त्रता, एकता तथा अखण्डता के स्वर्णिम सूत्रों को प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वधर्म, स्वसंस्कृति तथा स्वभाषा की एकता को राष्ट्रीय एकता के मजबूत स्तम्भ माना। उदयपुर प्रवास के समय पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या द्वारा पूछने पर उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि जब तक देश के निवासियों में भाषागत, उपासनागत तथा विचारगत एकता नहीं होगी तब तक समग्र राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता स्वप्नवत अयथार्थ ही रहेगी। महर्षि दयानन्द के इस मन्तव्य का चिन्तन तथा तदनुकूल आचरण आज की प्रबल आवश्यकता है। -आचार्य डॉ. संजय देव, दिव्ययुग अक्टूबर 2011 इन्दौर, Divyayug October 20011 Indore
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वेद के चार काण्ड हैं।
Ved Katha Pravachan - 87 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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