भगवान कृष्ण का जीवन विश्व की निखिल अलौकिक विभिूतियों में अप्रतिम है। कृष्ण द्वैपायन व्यास रचित महाभारत में दिव्य पुरुष के व्यक्तित्व को जो विस्तार मिला है, वह सर्वथा अद्वितीय है। शैशव से लेकर कुरुक्षेत्र के महासमर तक के सम्पूर्ण आयामों में उनके सत्यशोभन स्वरूप का वैविध्य अभिसरित है। शिशुवय कृष्ण की समस्त बाल लीलायें अथवा क्रियाकलाप लोकमंंगल की पूत भावना से विरत नहीं। उनकी प्रत्येक गतिविधि में कर्मभाव की मनोरम कड़ी जुड़ी मिलती है। जीवन के उषःकाल में ही कर्मचेतन के नयनोन्मीलन हुए। एक बार खुले तो निरन्तर खुले ही रहे। निमीलन की स्थिति में पहुँचने का अवसर ही नहीं मिला। देश और समाज को वैषम्य का गरल पिलाने वाली पूतना उन्हें प्रवंचित नहीं कर सकी, अत्याचार और उत्पीड़न के दुर्दान्त प्रतीक शकटासुर तथा तृणावर्त्त उनसे अभिहत हुये। इन वृतान्तों से ऐला लगता है कि उनके जीवन का अर्थ कर्मभाव का अनाहत पथ और शपथ है।
मुरलीधर की मनोरम बाल लीलाओं में सामान्य शैशव की अन्विति नहीं, प्रत्युत उनमें लोक-मंगल जनित कर्म-नद का अजस्र प्रवाह मिलता है। माखन चोर की बालसुलभ उद्दण्डता, दधि-माखन-चोरी, दधिनवनीत-पात्रभंजन अत्याचारी कंस के विरुद्ध खुली चुनौती थी। कंस के राजकुल तथा सैन्यबल का पोषण ब्रजभूमि के दूध-दही और मक्खन से होता था। कृष्ण नहीं चाहते थे कि अत्याचार के पोषण का माध्यम और केन्द्रबिन्दु ब्रजभूमि बने। यही कारण था कि वह स्वयं दधि-मक्खन इत्यादि का उपभोग करते, ग्वालों-बालों को कराते और मधुपुर जाने वाले गोरस को बीच में ही विनष्ट कर देते, उनकी आपूर्ति नहीं होने देते थे। अतः दधि-नवनीत चोरी के गर्भ में क्रान्तिदर्शी वृत्ति की सृष्टि जन्म ले रही थी।
किशोर वय में प्रवेश करते-करते कृष्ण अतिशय विश्रुत हो चुके थे और अत्याचारी कंस के लिये बहुत बड़ी चुनौती बन चुके थे। इधर कर्म भी ब्रजभूमि छोड़ने के लिये विवश कर रहा था और मधुपुर में प्रवेश की चुनौती दे रहा था। कंस का काल आमन्त्रण बनकर ब्रजभूमि पहुँचा और कृष्ण को मधुपुर पहुँचने में विलम्ब नहीं हुआ। प्रमुख सहचरों और योद्धाओं सहित कंस का वध हुआ।
संघर्ष और कर्मरत किशोर ने यौवन में प्रवेश किया, दुःखसंतप्त विश्व की ओर आँखें उठाकर देखा....शिशुपाल का अत्याचार और जरासन्ध का आतंक। इनका समाधान अभी हुआ ही था कि कुरुवंश विद्वेष, विघटन और विध्वंस के मार्ग पर चल पड़ा। जन्मान्ध धृतराष्ट्र के विवेकशून्य सहित स्नेहातिरेक ने दुर्योधन को उच्छृंखल और निरंकुश बना दिया। उसकी हठवादिता भीष्म, द्रोण और अन्य गुरुजनों के अनुशासन बन्धन को तोड़ चली। उसने पाण्डुपुत्रों पर बहुत अत्याचार किया। छल प्रवंचना पूर्ण द्यूतक्रीड़ा ने उनका स्वनिर्मित राज्य छीन लिया। उन्हें बनवास और अज्ञातवास मिला। वनवास और अज्ञातवास की अवधि समाप्त हो जाने पर भी वे अपना स्वत्व नहीं पा सके। बासुदेव स्वयं दूत बनकर मात्र पॉंच गॉंव की याचना करने हेतु दुर्योधन के पास गये। हठधर्मी ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की- ""हे केशव, बिना युद्ध के सूक्ष्माग्र भूमि भी पाण्डवों को नहीं दूँगा।'' केशव दुर्योधन को चेतावनी देकर चले आये कि इसका निराकरण और समाधान कुरुक्षेत्र की समर भूमि में होगा।
वह दिवस भी आ गया जब उभय सेनायें कुरुक्षेत्र की रणभूमि में आमने-सामने खड़ीं थीं। पितामह, पितृव्य, मातुल, बन्धु तथा अन्य परिजनों को प्रतिपक्ष में युयुत्सु देखकर परन्तप अर्जुन का हृदय आत्मग्लानि से भर गया। अपने आयुध स्पन्दन में रखकर केशव से बोले- ""हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा वाले स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है और शरीर प्रकम्पित हो रहा है। मेरा मन भ्रमित हो रहा है, त्वचा जल रही है तथा लक्षण विपरीत दिखाई दे रहे हैं। युद्ध में अपने ही कुल का वध श्रेयस्कर एवं कल्याणप्रद नहीं है। हे सखे! मुझे विजय सुख और राज्य की कामना नहीं। जिनके लिये राज्य भोग और सुखादि अभिलषित हैं, वे धन और जीवन की आशा त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहूंगा।'' समरभूमि में उत्पन्न अर्जुन के मोह एवं अज्ञान को वृथा बताते हुए कृष्ण ने कहा- ""हे पार्थ! आत्मा नित्य है, इसलिये शोक करना उचित नहीं। जीवात्मा की देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है। तदनन्तर अन्य देह की प्राप्ति होती है। इसलिये तत्वज्ञ धीर पुरुष को इस विषय में मोह नहीं करना चाहिये। आत्मा अव्यक्त, अजर और अमर है। वह नित्य, शाश्वत और पुरातन है। जैसे मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्र को त्यागकर नवीन वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार आत्मा जर्जर शरीर का परित्याग कर नवीन शरीर में प्रवेश करता है। यह आत्मा अच्छेद्य, अपाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है। इसलिये तुम सुख-दुःख, लाभ-हानि, विजय-पराजय को समान समझकर युद्ध करो और इस प्रकार के युद्ध से तुम पाप के भागी नहीं बनोगे।'' आत्मा के पावन स्वरूप पर प्रकाश डालने के उपरान्त कर्म के प्रति प्रेरित करते हुये कृष्ण कहते हैंः-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते सङ्गोऽस्त्व कर्मणि।।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
फल की कामना से विपरीत होकर कर्म करो। अनासक्ति पूर्ण कर्मण्य भावना फल के उत्तरदायित्व को समाप्त कर देती है। यदि तुम योग की स्थिति में होकर कर्म करते हो, तो कर्म के प्रति सम्भूत आसक्ति समाप्त हो जाती है। आसक्ति मनुष्य को कर्म पथ से विरत करती है तथा अपने-पराये के विभेद को जन्म देती है। जहॉं अपने-पराये का भाव होगा वहॉं कर्म के प्रति सहज प्रवृत्ति सम्भव नहीं। कर्म-बन्धन से छूटने का सहज उपाय समत्व बुद्धि योग है। समत्व बुद्धियुक्त मनुष्य पुण्य-पाप दोनों से विरत रहता है। बुद्धियोग युक्त ज्ञानी पुरुष कर्म से उत्पन्न फल को त्यागकर मृत्यु के बन्धन से विमुक्त हो परम पद को प्राप्त करते हैं।
कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ तथा ज्ञान की स्थिति में अवस्थित होकर कर्म करने पर बल दिया है। वह कर्म में ज्ञान की श्रेष्ठता को स्वीकारते हैं। ज्ञान प्रकृति का सहज गुण है और कर्म की गति भी नैसर्गिक है। कमेन्द्रियॉं प्रवृत्ति से उत्प्रेरित और संचरित हैं। जो वशी होकर कमेन्द्रियों से कर्मयोग पर गमन करता है वह महान है। स्वधर्म का पालन कर्म है, बन्धन के भय से कर्म का त्याग उचित नहीं। कर्म न करने से मनुष्य पाप का भागी बनता है। ब्रह्मा ने प्रथम कल्प में यज्ञ का विधान किया था। वह यज्ञ ही कर्म है। इसी दिशा में संकेत करते हुये कृष्ण कहते हैंः-
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्।।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।
प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से सम्भूत है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म का जन्म वेद से तथा वेद का उद्भव परमशक्ति से और वह परमशक्ति सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित है। इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि कर्म ब्रह्म स्वरूप है। सच्ची कर्मसाधना ब्रह्मोपासना है। अनासक्त पुरुष निरन्तर कर्म साधना करता हुआ परमात्मा को प्राप्त करता है। आगे चलकर कृष्ण स्पष्ट करते हैं-
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगत ज्वरः।।
आशारहित और ममताविहीन होकर कर्म स्वरूप ब्रह्म में सम्पूर्ण कर्मों को समर्पित कर निःसंताप युद्ध स्वरूप कर्म करो। जो व्यक्ति कर्म में अकर्म का, अकर्म में कर्म का दर्शन करता है, वह बुद्धिमान और योगी है तथा सभी कर्मों का कर्ता है। कर्मयोगी कामना और संकल्प को ज्ञान रूपी अग्नि में भस्म कर देता है। द्रव्यमय यज्ञ की तुलना में ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है और सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में विसर्जित हो जाता है।
सर्वाधिक पाप करने वाला पापी भी ज्ञानपोत पर बैठकर पाप सागर को पार कर लेता है। ज्ञानरूपी अग्नि निखिल कर्मों को भस्म कर पवित्र बना देता है। ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं। कर्म योेग के द्वारा ज्ञान शुद्ध अन्तःकरण में सहज रूप में उद्भासित होता है। कर्मयोग के द्वारा जिसने सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पित कर दिया, ऐसे पुरुष को कर्म का बन्धन नहीं बॉंधता। जो किसी से द्वेष नहीं करता, किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं करता, वह कर्मयोगी और संन्यासी है। राग-द्वेष से दूर रहने वाला ऐसा व्यक्ति सांसारिक बन्धन से मुक्त रहता है। कर्मयोग के बिना संन्यास सम्भव नहीं, जो वशी और शुद्ध अन्तःकरण वाला है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं रहता। वस्तुतः ज्ञानयोग, कर्मयोग और ध्यानयोग एक दूसरे के पूरक हैं, इनके संयोजन से ही कर्मरूपी ब्रह्म की प्राप्ति होती है। कृष्ण गीता के 18वें अध्याय में कहते हैं- सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेक शरणं व्रज।
कृष्ण ज्ञानी और कर्मयोगी हैं। कर्म की शरण में जाने पर बन्धन से मुक्ति और परमतत्व के सहज स्वरूप की प्राप्ति होती है। कर्म से विरत कोई उपासना सम्भव नहीं। महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु किये गये प्रयासों एवं क्रियाकलापों को कर्म नहीं कहा जा सकता, ऐसे प्रयास अकर्म भी नहीं हैं, उन्हें दुष्कर्म अवश्य कहा जायेगा। कर्मच्युत पार्थ को कर्म युद्ध के लिये उत्प्रेरित करने के लिये ही द्वारिकाधीश ने सारथी का दुरूह कार्य भार सम्भाला था। अनुचित और अन्याय के विरुद्ध उचित और न्याय को विजयी बनाने के लिये पाञ्चजन्य का उद्घोष किया था। महाभारत के युद्ध के उपरान्त इस अनासक्त कर्मयोगी ने विलासी तथा अनीति पथगामी यदुवंशियों का भी विनाश किया। इस कर्मयोगी के सभी कर्म व्यष्टि से दूर हटकर समष्टि की आराधना में किये गये। -जगपति सिंह, दिव्य युग अगस्त 2012 इन्दौर, Divya yug August 2012 Indore
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