सावरकर ने "संन्यासी की हत्या का स्मरण रखो' नामक लेख में लिखा- "हिन्दू जाति के पतन से दिन-रात तिलमिलाने वाले हे महाभाग संन्यासी! अपना परम पावन रक्त बहाकर तुमने हम हिन्दुओं को संजीवनी दी है। तुम्हारा यह ऋण हिन्दू जाति आमरण न भूल सकेगी। किन्तु हे हिन्दुओ! ऋण का भार केवल स्मरण करने से कम नहीं होता है। हिन्दू समाज में अल्पकाल में सामाजिक क्रांति लाने वाले संन्यासी शंकराचार्य के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द ही निकले। हुतात्मा की राख से अधिक शक्तिशाली भस्म इस संसार में अन्य कोई होगा क्या? वही भस्म हे हिन्दुओ! फिर से अपने भाल पर लगाकर संघटना (संगठन) और शुद्धि का प्रचार और प्रसार करो। और उस वीर संन्यासी की स्मृति और प्रेरणा हम सबके हृदयों मेें निरन्तर प्रज्ज्वलित रहे, इसलिए उनका सन्देश सुनो।''
सन् 1928 में रत्नागिरि में भगतसिंह ने गुप्त रूप से सावरकर से भेंट कर आशीर्वाद लिया और "1857 का स्वातंत्र्य समर' के पुनर्मुदण की स्वीकृति प्राप्त की। बाद में सुखदेव भी गये थे। 23 मार्च 1931 को भगतसिंह आदि की फॉंसी की दुःखद सूचना पाकर सावरकर जी की आँखें डबडबाई, वे बेचैन हुए और हुतात्माओं की श्रद्धांजलि में एक गीत लिखा। गीत का भाव था- "भगतसिंह, राजगुरु! हाय हाय! तुम हमारे लिए फॉंसी पर चढ़ गये हो। जूझते-जूझते समर भूमि पर वीरो, तुमने वीरगति पाई हैै। हुतात्माओ! जाओ, तुम्हारी सौगन्ध लेकर हम प्रण करते हैं कि तुम्हारा कार्य करने के लिए ही हम शेष रहे हैं।'' उन्होंने तुरंत अपने विश्वासपात्र युवकों को यह गीत सिखाया। दूसरे दिन भोर होते ही उन युवकों ने प्रभात फेरी निकालकर वह गीत गाकर सारी रत्नागिरि जगा दी।
आक्षेपकर्ता कहते हैं कि सावरकर यदि वीर थे तो वे जेल से बाहर आने के लिए क्यों छटपटा रहे थे। यदि ये लोग नीति (राजनीति) जानते होते तो शायद ऐसा आक्षेप नहीं करते और दूसरी तरफ भारत के राजनैतिक गगन में चमकने वाले गांधी- नेहरू जैसे नक्षत्रों के विषय में उनका पैमाना क्यों बदल जाता है? केसर-ए-हिन्द और वीर की उपाधि तो इन्हें भी प्राप्त थी। इनके वक्तव्य और आन्दोलन अंग्रेजों को मुसीबत में देखते ही रुक जाते थे। गांधी के असहयोग और खिलाफत आन्दोलन के असफल होने से कितने ही देशभक्त उनसे नाराज होकर अलग हो गये। सरोजिनी नायडू ने तो यहॉं तक कह दिया था कि "महात्मा गांधी को चाहिए कि वे राजनीति में दखल न दें। वे महात्मा हैं और उनको चाहिए कि जनता ने जो श्रद्धा उन पर अब तक व्यक्त की है वे उससे सन्तुष्ट हो जाएँ।''
आवेदन पत्र लिखने के कारण- अब हम उस विषय पर आते हैं कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए आवेदन पत्र क्यों लिखे। यद्यपि इतिहास में यह अपने किस्म की कोई विचित्र घटना नहीं है, तथापि सावरकर ने "मेरा आजीवन कारावास' में इस शंका के समाधान के संकेत भी दिये हैं। अब हम उन्हीं को देखते हैं। जेल की भयंकर यातनाओं व अपौष्टिक भोजन से उनका शरीर रोगी व जर्जर हो गया। जेल में अंग्रेजों की बेगार ही तो करनी पड़ती थी। भारत की स्वाधीनता का कुछ भी कार्य वहॉं रहकर सम्भव नहीं था। दो-चार वर्षों की बात हो तो सोचे भी, पर जिसके सामने पचास वर्षों का अपार समुद्र सा नारकीय जीवन मुँह फाड़े खड़ा हो तो निश्चय ही मृत्यु या मुक्ति ही अधिक प्यारी लगेगी। सावरकर इन दोनों के बीच मेें वर्षों तक जूझे हैं। अपने प्रयासों से ही अण्डमान जेल-यातनाओं को समाचार पत्रों में प्रकाशित कर भारतीय जनता की सहानुभूति पाने और उनके द्वारा किये गए आन्दोलनों से ही वे जेल मेें सुधार व समस्त राजनैतिक बन्दियों को मुक्त कराने में सफल हुए, अन्यथा वे तथा उन जैसे हजारों क्रांतिकारी वहीं सड़-सड़कर मर जाते। आगे चलकर उन्होंने राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए जो कार्य किया, राष्ट्र उससे वंचित रह जाता। यदि शिवाजी नीति से काम लेकर अफजल खान को न मारते और औरंगजेब की कैद से न निकल भागते, तो हिन्दुत्व को सम्मान दिलाने वाला विशाल मराठा साम्राज्य स्थापित न होता। यदि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस नजरबन्दी से न निकल भागते तो आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व कर जो राष्ट्र सेवा उन्होंने की, कदापि नहीं कर पाते।
अपने अनुज नारायण सावरकर की चर्चा आने पर सावरकर ने सुपरिंटेंडेंट को यही तो कहा था- "शत्रु को मात देकर उसके चंगुल से घूटने की युक्ति करना भी तो शूरवीरों का कर्त्तव्य है।''
चौथी हड़ताल (अण्डमान में) में पंजाब के वीर राजपूत पृथ्वीसिंह पूरे छह माह तक बिना खाये, बिना कपड़े पहने और बिना एक शब्द बोले डटे रहे। उनका शरीर हड्डियों का ढॉंचा बनकर रह गया था।
आखिरकार एक दिन सावरकर उनके पास जाने मे सफल हो गये। सावरकर ने उन्हें महान स्वातन्त्र्य सेनानी तथा अकबर से जूझते रहने वाले हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप की कथा सुनाई कि "किस प्रकार अनेक बार उन्हें रणनीति के अनुरूप युद्ध के मैदान से चार-पॉंच मील तक पीछे भी हटने को विवश होना पड़ता था। किस प्रकार हल्दी घाटी युद्ध में वीर शिरोमणि प्रताप को दुश्मन से जूझते हुए इधर-उधर जाने को विवश होना पड़ा था। परिस्थिति के अनुरूप कुछ पीछे हटना भी शूरता का ही लक्षण है।'' यह सुनकर पृथ्वीसिंह सहमत हो गया।
जेल के उच्चाधिकारियों ने राजबन्दियों को विचलित करने के उद्देश्य से महान क्रांतिकारी नेता लाला हरदयाल द्वारा लिखित एक सन्देश क्रांतिकारियों को पढ़ने के लिए दिया। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद लालाजी ने समाचार पत्रों ने यह वक्तव्य दिया था- "मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि क्रांतिकारियों से सम्बन्ध विच्छेदकर शांतिपूर्ण वैध मार्ग से हमें इंग्लैंड के सहयोग से ही हिन्दुस्थान को दैशिक स्वराज्य प्राप्त कराने के लिए प्रयास करने होंगे।'' इसे पढ़कर सावरकर ने कहा- "मैं भली भॉंति जानता हूँ कि लाला हरदयाल जी एक उत्कट राष्ट्रभक्त तथा बहुत समझदार नेता हैं। उन्होंने जो कुछ कहा होगा, वह पूर्ण ईमानदारी तथा उनकी समझ के अनुरूप ही होगा।'' बाद में कहा- "लालाजी अनेक बार विपरीत परिस्थितियों में कुछ समय के लिए कुण्ठाग्रस्त तथा निराश से हो जाते हैं। समय-समय पर उन्हें अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ता है, किन्तु उनकी उत्कट राष्ट्रभक्ति तथा दृढ़ता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता।''
नारायण सावरकर के हस्ताक्षर अभियान के परिणामस्वरूप बहुत से राजबन्दियों की मुक्ति होनी थी। इन मुक्त किये जाने वाले राजबन्दियों से एक करार-पत्र पर लिखवाया जाता था- "मैं आगे चलकर पुनः अमुक अवधि तक न राजनीति मेें भाग लूंगा, न राज्य क्रान्ति में। यदि मुझ पर पुनः राजद्रोह का आरोप सिद्ध हो जाए तो मैं आजीवन कारावास की सजा प्राप्त करने को तत्पर रहूँगा।''
सावरकर ने लिखा है- "इस करार पर हस्ताक्षर करने या न करने के प्रश्न पर भी राजबन्दियों में गरमागरम चर्चा छिड़ी। सशर्त रिहा होना चाहिए या नहीं, इस पर विचार विमर्श हुआ। मेरा स्पष्ट मत था कि राष्ट्रद्रोह तथा विश्वासघात को छोड़कर नीति के अनुसार परिस्थितिवश युक्ति से काम लेना ही "राजनीति' है। मैंने इस कथन के समर्थन में शिवाजी-जयसिंह, शिवाजी-अफजल खॉं, गुरु गोविन्दसिंह तथा भगवान श्रीकृष्ण आदि के अनेक प्रसंग प्रस्तुत किये। किन्तु मैं यह देखकर दंग रह गया कि हमारे बीच ऐसे-ऐसे साहसी, स्वाभिमानी, हठी तथा प्रखर संकल्पी भी थे, जो इतने अमानवीय कष्ट झेलकर भी तिलभर भी नरम नहीं बन पाये थे। इन वीरों ने जब मेरे मत का विरोध करते हुए करार-पत्र पर हस्ताक्षर न करने का अपना मत व्यक्त किया, तो मेरा मस्तक उनके प्रति श्रद्धा से झुक गया। मुझे लगा कि ऐसे दृढ़ संकल्पी राष्ट्रभक्तों के रहते हमारे देश का भविष्य अत्यन्त गौरवपूर्ण होगा। परन्तु अन्त में वे मेरे आग्रह और तर्कों से सहमत हो गए कि जेल की चारदीवारी में सड़ते रहने की अपेक्षा बाहर निकलकर राष्ट्र की ज्यादा और रचनात्मक सेवा कर सकते हैं। तब कहीं सबने उस करार-पत्र पर हस्ताक्षर किए और कारागार की काल कोठरियों और प्राचीरों से उन्हें मुक्ति मिली।'' (जारी) लेखक- राजेश कुमार 'रत्नेश', दिव्ययुग पत्रिका - अगस्त 2008 (Divya yug - August 2008)
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