ओ3म् त्वं च सोम नो वशो जीवातुं न मरामहे।
प्रियस्तोत्रो वनस्पतिः ।। ऋग्वेद 1.91.6
ऋषिः राहूगणो गोतमः।। देवता सोमः।। छन्दः गायत्री।।
विनय- हे हृदयेश ! हे देव ! हे सोम ! जब तुम्हारी इच्छा हमें जीवित रखने की है तब हमें कोई मार नहीं सकता। यह अन्धा, अज्ञानी इंसान बहुत बार तेरे भक्तों से द्वेष करने लगता है, उन्हें सताता है और उन्हें मारना तक चाहता है। भक्त प्रह्लाद को मारने की कितनी चेष्टाएँ की गई! भक्त मीरा की जान लेने के लिए राजा ने कई बार यत्न किया, भक्त दयानन्द को लोगों ने कई बार जहर दिया। पर तेरी इच्छा के बिना कौन मर सकता है ? भक्त लोग इस तत्व को जानते होते हैं, अतः वे आनन्दित रहते हैं। मरने से डरने वाला यह संसार, तेरे ईश्वरत्व को न जानने वाला यह संसार यों ही भयत्रास और मरणाशंका से मरा जाता है। पर भक्त देखते हैं कि जब तक तेरी इच्छा नहीं है तब तक उन्हें कोई मार नहीं सकता। और जब तेरी इच्छा होगी तब तो मरना भी उनके लिए उतना ही आनन्ददायक होगा जितना कि तेरी इच्छा से जीना आनन्ददायक है। ओह, इस ज्ञान के कारण वे भक्त जीवित ही अमर हो जाते हैं, अभिनिवेश के क्लेश से पार हो जाते हैं। वे संसार की किसी भयंकर से भयंकर वस्तु से भी न डरते हुए, तेरे स्तोत्र गाते हुए निर्भय फिरते हैं। प्यारे स्तोत्रों से तुझे रिझाना या तेरे स्तुतिगान से जगत् में भक्ति का प्रसार करना, यही उनका कार्य होता है। अपनी रक्षा व अरक्षा की चिन्ता वे तुझ पर छोड़ बेफिक्र हो जाते हैं। तू तो भजन करने वालों की रक्षा करने वाला मौजूद ही है, तो उन्हें क्या चिन्ता? आह! कैसी बेफिक्री और निरापदता की अवस्था है! अमृत्युता (अमरता) का कैसा आनन्द है!
शब्दार्थ- सोम=हे सोम ! त्वं च=तुम यदि नः=हमारे जीवातुम्=जीवित रहने की वशः=इच्छा करते हो तो न मरामहे=हम पर नहीं सकते। प्रियस्तोत्रः=तुम प्रिय स्तोत्रवाले हो और वनस्पतिः=भजन करने वालों के रक्षक हो। -आचार्य अभयदेव विद्यालंकार, दिसम्बर 2008 (Divyayug 2008)
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