ओ3म् ईशावास्यमिदं सर्वं-यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
वैदिक अर्थ व्यवस्था में स्वयं अपने पर अनुशासन करने हेतु अधिक बल दिया गया है। स्वयं जनता इस सुशिक्षा से जागृत होकर आर्थिक समता को स्थापित करती है। जबकि आज विश्व में अर्थ की विषमता को दूर करने हेतु अनेक वादों का प्रादुर्भाव हुआ है। साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, व्यक्तिवाद आदि अनेक वाद बने हैं।
यजुर्वेद के इस मन्त्र में यह प्रश्न पूछा गया है कि- कस्य स्वित् धनम्। अर्थात् यह धन किसका है? आज भी विश्व में सर्वत्र यही प्रश्न पूछा जा रहा है कि व्यापारी कहते हैं यह धन हमारा, शासक कहते हैं यह धन हमारा है, श्रमिक भी कहते हैं यह धन हमारा है और बुद्धिजीवी भी जोर से कहते हैं कि धन हमारा है। तो आखिर यह धन किसका है?
जब सभी व्यक्ति किसी वस्तु को अपनी बतायें, तो इसका अर्थ यह हुआ कि या तो यह धन किसी का नहीं है अथवा सबका उस पर समान अधिकार है। धन समाज का है, यह उसका स्वयं सिद्ध
तात्पर्य है।
इस मन्त्र में इसका उत्तर भी दिया हुआ है "स्वित्' का अर्थ "निश्चय" भी होता है तथा "क" का अर्थ "प्रजापति' भी है अर्थात् प्रजापति का यह धन है। प्रजापति से तात्पर्य राजा और उसकी जनता से है। प्राचीन काल में राजा प्रजापति होते थे। राजसूय यज्ञों में जनता उनका चयन करती थी। राजा का अर्थ ही यह था कि जो प्रजा का रंजन करे। वेदों में प्रजापति को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे प्रजापति को रखने का वर्णन है। तात्पर्य यह है कि धन को प्रजा का मानकर प्रजापति उसका विनियोग करता था । प्रजा या समाज स्थायी तत्व है और प्रजापति गौण। "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः' अर्थात् धन का भोग त्यागपूर्वक करो। भोग मनुष्य के लिए आवश्यक है, यह पहली बात है। भोेग दो प्रकार से होता है- आसक्ति से भोग और त्याग से भोग।
वेद ने आसक्ति से भोग को वर्जित ठहराया है। इसकी वैसे भी अपनी मर्यादायें है। मान लीजिए, कोई व्यक्ति मिठाई का भोग करता है तो वह एक निश्चित मर्यादा से अधिक मिठाई नहीं खा सकता। यदि वह उससे अधिक मिठाई खाएगा तो परिणाम में मिठाई ही उसका भोग करने लगेगी । जो भोग प्रकृति द्वारा ही वर्जित है, उसका समर्थन कौन करेगा?
इसलिए वेद ने कहा कि त्याग से भोग करो। ध्यान देने योग्य बात है कि त्याग से भोग की मर्यादा नहीं है। वह अपरिमित है। आप अन्नदान, विद्यादान, औषधिदान, धनदान आदि जितना चाहेें कर सकते हैं। फिर त्यागपूर्वक भोग में ही सच्चा आत्मसुख है। यह समाज सेवा है।
अर्थनीति पर राज्य का नियन्त्रण न होते हुए भी अर्थ के वितरण और बहाव की यह कैसी व्यवस्था है! इसमें स्वयं व्यक्ति को ही अपने आप पर, अपने आर्थिक व्यवहार पर नियन्त्रण रखना
पड़ता है।
सब धन यज्ञ के लिए है, यह वैैदिक विचारधारा है । यह कहने का भी यही तात्पर्य निकलता है कि सब धन प्रजा के लिए ही है और उसके पालन में लगना चाहिए। यज्ञ का अर्थ किया गया है-
1. जिससे श्रेष्ठों का सत्कार हो।
2. प्रजा का संगठन हो तथा
3. असहायों को सहायता मिले।
दानात्मक कर्म यज्ञ कहलाता है। यज्ञ की कल्पना मूलतः किस सिद्धान्त से उत्पन्न हुई है यह देखना चाहिए। वेद ने मानव समाज की व्यवस्था दो शब्दों में कही है।
जगत्यां जगत्। इस वचन का पदशः अर्थ है- जगती के आधार से जगत रहता है। जगत का अर्थ है- गच्छति इति जगत्। अर्थात जो गतिमान है चलता है प्रगति करता है, वह जगत है। सब विश्व गतिमान है, अतः उसे जगत कहते हैं। परन्तु यह सब विश्व अपनी धुरी पर ही घूमता है। देखना यह है कि जगत के अंगोपांगों अर्थात् प्राणियों में सच्ची प्रगति कौन करता है, आगे कौन बढ़ता है। मनुष्य ही अपनी बुद्धि व शक्ति के कारण सब चराचर प्राणियों से अधिक गतिमान है। इसलिए सामान्यतः समस्त विश्व जगत कहलाता है। परन्तु पूर्णरीति से मनुष्य ही जगत है।
एक व्यक्ति को "जगत्' कहा जाता है तथा अनेक जगतों की समष्टि को "जगती' कहते हैं। जगत और जगती में यह भेद है कि जगत मरता है, जगती स्थायी है। व्यक्ति मरता है, समाज स्थायी है। धन भी मरने वालों का नहीं हो सकता है, अमर का ही हो सकता है। जगत्यां जगत् के अनुसार जगती के आधार पर जगत है अथवा समष्टि के आधार पर व्यष्टि है या समाज के आधार पर व्यक्ति है।
व्यष्टि, समष्टि के आधार पर रहती है। अतः उसके लिए उचित है कि वह समष्टि के लिए अपने भोग का त्याग करे। यज्ञ की मूल कल्पना वेद के इसी सिद्धान्त में है।
प्राचीन काल में जो अनेक प्रकार के यज्ञ किए जाते थे, उनमें एक सर्वमेघ यज्ञ होता था। इस यज्ञ में सब धन जनता के लिए दे दिया जाता था। इस यज्ञ को करने वाले धनहीन हो जाते थे।
सम्राट भी दूसरे दिन से मिट्टी के पात्र व्ययवहार में लाने लगते थे। सर्वमेघ यज्ञ का अर्थ ही यह था कि किसी के पास धन संग्रहित न हो। वह समय-समय पर वितरित होता रहे। आज ऐसा नहीं होता। इसी कारण भारत, अमेरिका, यूरोप आदि के व्यक्ति के पास धन संग्रहित हो रहा है। यह यज्ञीय जीवन नहीं है। यही दुःखों के बढ़ने का कारण है।
अब यह देखें कि धन के स्वामित्व के विषय में वेद क्या कहता है ? इस मन्त्र में ही कहा गया है-
ईशावास्यम् इदं सर्वं यत् किञ्च। अर्थात् यहॉं पर जो कुछ भी है, उस पर ईश का स्वामित्व है। अनीश का उस पर कोई अधिकार नहीं । जिसमें ईशन् शक्ति अर्थात् शासन करने, शक्तिमान होने, समर्थ होने की शक्ति होती है उसे "ईश' कहते हैं। स्वामित्व का सिद्धान्त सब देशों में दिखाई देता है। प्रभावी वीर ही स्वामी होने योग्य है। ऐसे व्यक्ति ही सदा स्वामी बनते भी हैं। यही नहीं अपितु जो राष्ट्र प्रबल होते हैं वे दूसरे राष्ट्रों के भी स्वामी बन बैठते हैं। राज्य शासन के मुख्य स्थान पर अथवा छोटे-छोटे अधिकारियों के स्थानों पर ऐसे ईशन् शक्ति वालों की ही नियुक्ति करनी चाहिये। अनीशों के हाथ में अधिकार होने पर शासन शिथिल हो जायेगा और दुराचारियों की प्रबलता बढ़ेगी।
वैदिक ऋषियों ने धन के महत्व को भली-भांति समझ लिया था। सब झगड़े, कलह-स्पर्धा, युद्धादि धन के कारण ही होते हैं। यह उनके सामने स्पष्ट था। इसलिए उन्होंने युद्ध का एक नाम "महाधन', भी दिया । वेदों ने युद्ध का मूल कारण धन माना है। वेद के युद्ध नामों में "वाजसाती' भी एक नाम है। वाजसाती का अर्थ है, धन का बंटवारा ही झगड़ों का कारण होता है।
दिसम्बर 2008 (Divya Yug 2008)
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