ओ3म् आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये।
सखा सख्ये वरेण्यः।। ऋग्वेद 1.26.3।।
ऋषिः आजीगर्तिः शुनः शेपः।। देवता अग्निः।। छन्दः गायत्री।।
विनय- संसार में पिता पुत्र-वात्सल्य से प्रेरित होकर पुत्र के लिए क्या नहीं करता ! बन्धु, बन्धु के लिए जी-जान से पूरी सहायता करता है। श्रेष्ठ मित्र अपने मित्र के लिए सब कुछ अर्पण करने को उद्यत रहता है। पर हे प्रभो! तुम मेरे सब-कुछ हो। तुम्हारे होते हुए मुझे किसी चीज की क्यों कमी रहनी चाहिए। तुमसे मेरा जो सम्बन्ध है वह घनिष्ठ, अटूट सम्बन्ध है, तुम्हें मैं किस नाम से पुकारूँ? उस परिपूर्ण सम्बन्ध का वर्णन नहीं हो सकता। मैं संसार की भाषा में तुझे कभी पिता, कभी बन्धु, कभी सखा पुकारता हूँ, पर हे प्यारे ! हे मेरी आत्मा ! इन शब्दों में मेरा-तेरा वह सम्बन्ध व्यक्त नहीं हो सकता। जब मैं देखता हूँ कि तुम मेरे पैदा करने वाले और लगातार पालने वाले हो, तब मैं अपनी भक्ति और प्रेम को प्रकट करने के लिए तुम्हें "पिता-पिता' पुकारने लगता हूँ और तुमसे पुत्र-वात्सल्य पाने के लिए रोने लगता हूँ। जब मुझे तुम्हारे घनिष्ठ सम्बन्ध की याद आती है, उस अटूट सम्बन्ध की जो मेरा संसार में और किसी से भी नहीं है, तब मैं बन्धु-भाव में विभोर होकर तुमसे बातें करने लगता हूँ और जब देखता हूँ कि मैं भी तुम्हारी तरह आत्मा हूँ और चेतन हूँ, तुम भले ही मुझसे बहुत बड़े "वरेण्य' होओ, तो मैं सखा बनकर तुम्हे "वरेण्य सखा' नाम से सम्बोधित करता हूँ। हे प्रभो! तुम मुझे पुत्र मानो, बन्धु या सखा मानो, कुछ मानो, हर तरह मैं तेरा हूँ और तुम मेरे हो। हे मेरे! तो मुझ अपने को तुम कैसे छोड़ सकते हो? मैं अपूर्ण, अशक्त बालक तेरा हूँ इसलिए मेरी सहायता किये बिना तुम कैसे रह सकते हो? तुम परिपूर्ण हो, तुम्हें सदा मुझे देते रहने के सिवा और कार्य ही क्या है? यही मेरे लिए तुम्हारा यजन है। तुम मुझे देते रहो और मैं लेता रहूँ, यही तुम्हारी ओर से मेरा यजन है। तुमसे मेरा सम्बन्ध इसी रूप में स्थिर है। बड़ा छोटे को दिया ही करता है, इसलिए मैं क्या मॉंगूँ? मेरी आवश्यकता को समझना और पूरी तरह पूर्ण करना। हे मेरे! तुम स्वयं ही करोगे। बस, मैं तेरा हूँ और क्या कहूँ! हे मेरे सर्वस्व! हे मेरे सब-कुछ! मैं तेरा हूँ।
शब्दार्थ- पिता सूनवे=पिता पुत्र के लिए हि स्म आयजति=सर्वथा सहायता प्रदान करता है, उसकी कमी को पूरी करता है आपिः आपये=बन्धु, बन्धु के लिए वरेण्यः सखा सख्ये=श्रेष्ठ मित्र, मित्र के लिए सर्वथा सहायता प्रदान करता है। व्याख्याकार- आचार्य अभयदेव विद्यालंकार, दिव्ययुग जनवरी 2009 (Divya Yug 2009)
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