ओ3म् मह्यं यजन्तां मम यानीष्टाकूतिः सत्या मनसो मे अस्तु।
एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वे देवा अभि रक्षन्तु मेह।। (अथर्ववेद 5.3.4)
शब्दार्थ- (मम) मेरे (यानि) जो (इष्टानि) इच्छित सुखदायक पदार्थ और किये हुए देवपूजन, सत्संग और दान आदि कार्य हैं वे (मह्यम्) मुझे (यजन्ताम्) प्राप्त हों। (मे मनसः) मेरे मन का (आकूतिः) दृढ़-संकल्प (सत्या, अस्तु) सत्य हो (अहम्) मैं (कतमत् चन) किसी भी (एनः) पाप को (मा निगाम्) प्राप्त न होऊँ। (विश्वेदेवाः) विद्वान् लोग (इह) इस विषय में मेरी (अभि, रक्षन्तु) पूर्णरूप से रक्षा करें।
भावार्थ- मन्त्र में निम्न कामनाएँ प्रकट की गई हैं-
1. मेरे इच्छित सुखदायक पदार्थ मुझे प्राप्त होते रहें।
2. मैं देवपूजा-सत्संग और दान इन यज्ञ कर्मों को सदा करता रहूँ, इनसे पृथक् न होऊँ।
3. मेरे मानसिक संकल्प सदा सत्य हों, मैं कभी असत्य संकल्प न करूँ।
4. मैं कभी भी कोई पापकर्म न करूँ।
5. ये सभी बातें कब सम्भव है? जब विद्वान् लोग मेरी रक्षा करते रहें। जब मैं सुपथ को त्यागकर कुपथ की ओर प्रवृत्त होऊँ, तब वे अपने सदुपदेशों से मेरी रक्षा करते रहें। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, दिव्ययुग जनवरी 2009 (Divya Yug 2009)
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