ओ3म् यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे।
त्वे इद्धूयते हविः।। ऋग्वेद. 1.26.6, साम. उ. 7.3.1।।
ऋषिः आजीगर्तिः शुनःशेपः।। देवता अग्निः।। छन्दः-गायत्री।।
विनय- हे देवाधिदेव, एक देव! इस जगत् में दो प्रकार के नियम काम कर रहे हैं। एक शाश्वत् सनातन नियम हैं जो सब काल और सब देशों में सत्य हैं, सदा लागू हो रहे हैं। दूसरे वे नियम हैं जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में ही सत्य हैं, जो स्थानिक हैं, स्वल्पकालिक होते हैं। शश्वत् नियमों के अनुसार चलने से हे प्रभो! तुम्हारा पूजन होता है और अशश्वत् अविस्तृत नियमों के अनुसार चलने से केवल उस-उस देव की तृप्ति होती है, उस-उस देव का यजन होता है,पर हे प्रभो! इस परिमित अशाश्वत संसार में रहने वाले हम परिमित अशाश्वत शरीरधारी प्राणी तुम्हारा यजन भी सीधा कैसे कर सकते हैं? हम तुम्हारा यजन इन देवों द्वारा ही कर पाते हैं। फिर तुम्हारे यजन में और इन देवों के यजन में भेद यह है कि हम जो यज्ञ विस्तृत और सनातन दृष्टि (भावना) से करते हैं, वह तो इन देवों द्वारा तुम्हें पहुंच जाता है और जो यज्ञ परिमित भावना से करते हैं, वह इन देवों तक ही पहुँचता है। यदि हम अग्निहोत्र अपनी वायुशुद्धि के लिए करते हैं, तो यह अग्नि व वायुदेवता का यजन है। पर यदि हम यही अग्निहोत्र संसार चक्र को चलाने में अंगभूत बनकर करते हैं, तो इस अग्निहोत्र से तुम्हारा यजन होता है। यदि हम विद्या का संग्रह अपने सुख के लिए करते हैं, तो यह सरस्वती देवी का यजन है। पर यदि यह हमारा ज्ञान तुम्हारी ही प्राप्ति के प्रयोजन से है, तो यह सरस्वती देवी द्वारा तुम्हारा पूजन है। इसी तरह अपनी मातृभूमि देवी का पूजन भी केवल स्वदेशोद्धार के लिए या जगत्-हित के लिये दोनों तरह का हो सकता है। यहॉं तक कि यदि हमारे अपने देह की रक्षा, हमारा नित्य का भोजन करना भी सचमुच तुम्हारे ही लिये है, तो यह दीखने वाली देह-पूजा भी असल में तुम्हारा ही यजन है। इसलिए सब बात भाव की है, हवि के प्रकार की है। हम सनातन और विस्तृत भावना से जिस भी किसी देव का यजन करते हैं, उन सब देवों के नाम से दी हुई हमारी हवि तुम्हें ही जा पहुंचती है। तब हमारा लक्ष्य तुम्हारी ओर हो जाता है। अतएव जब हमारा एक-एक कार्य शश्वत् दृष्टि से, सनातन नियमों के अनुसार होता है, तब हमारे कर्म से जिस किसी भी देव की पूजा होती दीखती है, वह सब पूजा असल में तुम्हारे ही चरणों में पहुंच जाती है।
शब्दार्थ- शश्वता तना=सनातन और विस्तृत हवि से यत् चित् हि देवं देवम्=यद्यपि हम भिन्न-भिन्न देवों का यजामहे=यजन करते हैं हविः=पर वह हवि त्वे इत्=तुझमें ही हूयते=हुत होती है, तुझे ही पहुँचती है।l - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार, दिव्ययुग फरवरी 2009 divyayug february 2009
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