ओ3म् यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः।
स यन्ता शश्वतीरिषः।। ऋग्वेद 1.27..7
ऋषिः आजीगर्तिः शुनःशेपः।। देवता अग्निः।।छन्दः गायत्री।।
विनय- इस संसार में मनुष्य को प्रत्येक अभीष्ट फल पाने के लिए लड़ाइयॉं लड़नी पड़ती हैं। संसार में नाना प्रकार के संघर्ष चल रहे हैं। हे प्रभो ! जिस मनुष्य की तुम इन संग्रामों में रक्षा करते हो अर्थात् जिस तुम्हारे अनन्य भक्त को सदा तुम्हारी सहायता मिलती रहती है, उस मनुष्य को नित्य अक्षय अन्न प्राप्त होते हैं। उसे रोटी के सवाल के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ती पड़ती। वह इससे निश्चिन्त हो जाता है, क्योंकि उसे एक नित्य अन्न मिल जाता है, जिससे वह सदा ही तृप्त बना रहता है। वह जानता है कि जिसे तूने यह शरीर दिया है और जो तू उसके इस शरीर की नाना तरह से रक्षा कर रहा है, वही तू उसके इस शरीर को अन्न भी देता रहेगा। सब दुनिया के पशु-पक्षियों की चिन्ता करने वाला तू उसके शरीर की भी खुद चिन्ता करेगा, नहीं तो शरीर को ही वापस ले लेगा। वह जानता है कि अपने भक्तों के प्रति तेरी यह प्रतिज्ञा है- तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं भजाम्यहम्। भक्तों के योगक्षेम करने की चिन्ता तूने अपने ऊपर ले रखी है। बस यही ज्ञान है जिसके कारण वे निश्चिन्त रहते हैं तृप्त रहते हैं। यही ज्ञान "नित्य अन्न' है। यह रोटी का अन्न तो अनित्य है। आज खाते हैं, कल फिर भूख लग आती है। इससे नित्यतृप्ति प्राप्त नहीं होती, पर उस आत्म-ज्ञान को प्राप्त करके वे सदा के लिए तृप्त हो जाते हैं। वे इसी आत्मज्ञान पर जीते हैं, रोटी पर नहीं जीते। अतएव रोटी न मिलने पर (शरीर छूटने पर) वे मरते भी नहीं, वे अमर हो चुके हैं। हम लोग रोटी पर ही जीते हैं और रोटी न मिलने पर मर जाते हैं। इस अनित्य अन्न (रोटी) के हमेशा मिलते रहने का प्रबन्ध करके यदि इसे नित्य बनाने का यत्न किया जाए तो भी यह नित्य नहीं बनता, नित्यतृप्तिकारक नहीं रहता। क्योंकि हमेशा अन्न मिलते रहने पर भी यह शरीर एक दिन बुढ्डा होकर छूट ही जाता है। रोटी उस समय उसकी तृप्ति व रक्षा नहीं कर सकती। अतः नित्य-अन्न तो ज्ञानतृप्ति ही है। हे परमेश्वर! इस युद्धमय संसार में तुम जिसके सहायक होते हो, उसे यह शश्वत् अन्न देकर इस शश्वत् "इष्' का स्वामी बनाकर उसे अमर भी कर देते हो।
शब्दार्थ- अग्ने=हे अग्ने! तू यं मर्त्यम्=जिस मनुष्य की पृत्सु अवाः=युद्धों में रक्षा करता है और यं वाजेषु जुनाः और जिसकी युद्धों में सहायता करता है सः=वह मनुष्य शश्वतीः=नित्य सनातन इषः=अन्नों को यन्ता=वश करता है, प्राप्त करता है। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार, दिव्ययुग मार्च 2009, Divyayug march 2009
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