तिस्रो वाच उदीरते गावो मिमन्ति धेनव:।
हरिरेति कनिक्रदत् ।। सामवेद।।
ऋषि:-त्रित: = पूरा तरा हुआ, तीन से घिरा हुआ।
(तिस्र:) तीन (वाच) ध्वनियॉं (अ, उ, म्,) (उदीरते) उठ रही हैं। मानों (धेनव:) दुधेला (गाव:) गायें (बछड़ों को) (मिमन्ति) बुला रही हैं। (हरि:) चित-चोर (कनिक्रदत्) गरजता हुआ (एति) आ रहा है।
प्यारे ! तुमने मेरा हृदय चुरा लिया है। मुझे पता भी नही होने दिया और मेरी सारी सुध-बुध हर ली है। यह क्या तुम्हारी आवाज आ रही है? पृथ्वी से, आकाश से, बहती हुई नदियों से, चलती हुई वायु के झकोरों से, गरजते हुए बादलों से, कड़कती हुई बिजली से क्या तुम्हारी आवाज आ रही है? सुनसान रात में, तारों भरे आकाश के नीचे, जब सारा संसार मौन साधे सो रहा होता है, वायु भी थक कर अपने पंख सुकेड़ लेती है, ऐसे सन्नाटे में मैं तुम्हारे नाम के जाप को सुनता हूँ। अ, उ, म्, ओ3म। क्या यह तुम बोल रहे होते हो?
सृष्टि की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक चेष्टा, तुम्हारा गान है, मनोमोहक उद्गीय है। चेष्टा आरम्भ हुई। मानो गायक का गला खुल गया। गला खुलना क्या है? "अ" का उच्चारण। तान उड़ने लगी- "उ-उ-उ" यह तान की उड़ान है, क्रिया का लम्बा क्रियामाण रूप। साधक लय के मजे ले-ले कर अन्त को अपनी ही लय में लीन होने लगा। उसके ओंठ मिल गये, गान के मिठास ने चिपका दिये। यह ओंठो का चिपकना और क्या है? "म्" मूर्त्त रूप।
संसार का अणु-अण ओम् का उच्चारण कर रहा है। क्या मधुर गीत है? उतना ही मधुर जितना जङ्गल से लौटी हुई गौ का रम्भा-गीत। इस रम्भा-गीत को कोई बछड़े के कान से सुनो। गौ के स्तनों में दूध भर रहा है, बछड़े के पेट में भूख उमड़ रही है। रम्भा-नाद दूध के मुँह को भूख के ओंठों से मिला रहा है। बछड़े की मॉं के स्तन के सिवा चैन नहीं। स्तन मानों मॉं के मुख ही बछड़े के कानों में दूध उड़ेल रहा है।
मेरी जङ्गल से लौटी हुई मॉं ! आ ! आ !! रॅंभा ! रॅंभा !! अ...उ...म्। यह तीन अक्षर सुनाये जा। मेरा रोंगटा-रोंगटा इस राग का भूखा है। मेरे रोम-रोम का मुख इस अपने स्तन से लगा ले। दूध के साथ-साथ तेरे वात्सल्य-रस का पान करूँ। यही मेरा सोम-पान है।
मॉं ! मैं तेरा बछड़ा हूँ ! मुझे छोड़ कर तू सारा दिन कहॉं रही? अब तो सॉंझ हो रही है। तेरे पीछे मैंने काफी धूल उड़ाई है। मेरे कुकर्मो की धूल मेरे भाग्यों की धूलि-वेला बन गई है। मॉं, आ ! इस धूलि-वेला में दौड़ती हुई आ ! गरजती हुई आ ! हॉंपती हुई आ ! बच्चे का हृदय तेरे स्तनों में, तेरी छातियों में है। आ ! उस की भूख, प्यास- मैया के दर्शन की भूख, उस विश्वधात्री मॉं के रंभा-नाद की प्यास हर ले। अपने दूध के हाथों, अपने रम्भानाद के हाथों हर ले !
साधक की मस्तानी जागृति
प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा।
अंशो: पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम्।। सामवेद ।।
(सोम) ऐ मेरे प्राण ! तुम (देववीतये) देवताओं की तृप्ति के लिए (अंशो: पयसा पिप्ये) इस नई फूटी कोंपल के रस से इस प्रकार बढे हो (सिन्धुर्न अर्णसा) जैसे नमी पानी से। तुम (जागृवि: मदिरो न) जागते हुए मस्ताने की तरह (मधुश्चुतं कोशम् अच्छ) मिठास टपका रहे कोष की ओर (बढ रहे हो।)
नदी सूख रही थी, सिकुड़ रही थी। पहाड़ पर बदली बरस गई । नाले फूट-फूट कर बहने लगे। नदी में बाढ आ गई। अब वह किनारों तक भर-भरकर उनसे ऊपर उछल-उछलकर बह रही है।
मेरा नन्हा सा प्राण तङ्ग था। उसका सङ्कीर्ण स्वार्थमय जीवन नीरस था, शुष्क था। उसे अपने ही में बन्द रहकर मजा नहीं आता था। स्वार्थ में आनन्द कहॉं? देवताओं को खुशी तो परोपकार में है।
मेरी देहपुरी के देव भोगों में रत थे। आँखें सुन्दर दृश्यों पर मस्त थी। कान सुरीले रागों में मग्न थे। उन्हें क्षण भर के लिये हर्ष प्राप्त हो जाता था। फिर न मीठी लय में ही आनन्द आता था, न रङ्ग-बिरङ्गे चित्रों में। मन ऊ ब जाता था। मीठा रस कुछ मात्रा तक रसीला प्रतीत होता था। उसके पीछे वह स्वयं कड़वा लगने लगता था।
सान्त उपभोग, क्षणिक आनन्द, भौतिक विलास-यह एक मृग तृष्णिका थी। उसमें चमक थी, रस न था। इस चमकती रेत में एक विचित्र कोंपल फूटी, मरुस्थल में हरियाली दीखने लगी। वह कोंपल भक्ति की थी, श्रद्धा की थी, आस्था की आध्यात्मिक अनुभूति की थी । भौतिक सुन्दरता की ओट में किसी अनन्त, असीम सुन्दर की झॉंकी दिखाई दी। सीमित ध्वनियों की परिधि में असीम सन्देश सुनाई दिया। कोंपल की पत्तियों में रस ठाठें मार रहा था। वह उमड़ा। मेरी अध्यात्म की गङ्गा में बाढ आ गई। मेरी देह-पुरी के देव इस बाढ में डूब गए। वे भक्ति-रस में भीग गये। अब आँख भौतिक रङ्गों को नहीं, इन रङ्गों की आत्मा को देखती है। आत्मा निस्सीम है। उसकी सुन्दरता की भी हद नहीं। कान शब्द को नहीं, शब्द की ओट से झॉंक रहे आकाश का श्रवण करता है। आकाश अनन्त है। उसकी रमणीयता का भी अन्त नहीं। आँखों को, कानों को, देहपुरी के सभी देवताओं को तृप्ति अब मिली है। न तृप्त होने वाली असीम तृप्ति।
इस नई कोंपल के नशे में मेरे शरीर और आत्मा दोनों को मस्त कर दिया है। मैं अपनी सुध-बुध खो बैठा हूँ। मैं वह देखता हूँ जो देखने में नहीं आता। मैं वह सुनता हूँ। जो सुनने की परिधि से बाहर है। मस्ताना हूँ, पर जाग रहा। नीरसता को भूल गया हूँ। स्वार्थ का ध्यान ही नहीं रहा। संकीर्णता विस्मृत सी हो गई है। पर वह मिठास का स्रोत जिसकी बूँद-बूँद से अमन्त मधुरता टपक रही है, मेरी आँखों से ओझल नहीं हुआ। मेरा प्रत्येक पग उस मधु के कोष की ओर उठ रहा है। अनजाने में भी प्रगति आनन्द-सागर की ओर है। यह मस्ती ही तो वास्तविक जागृति है। जागती हुई मस्ती ! मस्तानी जागृति !! -पं. चमूपति
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