देवा इवामृतं रक्षमाणः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु। (अथर्ववेद 3-30-7)
यदि हमने यह निश्चय कर लिया है कि हमें कोई ज्ञान प्राप्त होगा उसे हम अवश्य ग्रहण करेंगे, तो हमें अब स्वभावतः यह जानने की इच्छा होगी कि उस ज्ञान को, उस उपदेश को धारण करने, अपने में स्थिर करने का उपाय क्या है?
इसका एक ही उपाय है और इस बात में किसी भी मतभेद नहीं है, इस उपाय को यदि मैं ठीक-ठीक शब्दों में प्रकट करना चाहूँ तो इन दो शब्दों में रख सकता हूँ एकान्त विचार। हमें जो कुछ उपदेश मिले, एकान्त में होकर उस पर बार-बार विचार करना चाहिए। इस प्रकार उसे हम अपने में स्थिर कर सकते हैं। जैसे कि मुझे ज्ञान हुआ कि सत्य बोलना चाहिए, तो किसी समय बैठकर मुझे सोचना चाहिए कि यह बात कहाँ तक ठीक है? यदि ठीक है तो मैं सत्य क्यों नहीं बोलता हूँ? किन-किन प्रलोभनों अथवा भयों के कारण असत्य बोलता हूँ? उनके जीतने का उपाय क्या है? असत्य से मेरी क्या हानि हुई है? सत्य का जीवन में किन-किन वस्तुओं से सम्बन्ध है? इत्यादि-इत्यादि। सत्य पर खूब विचार करना चाहिए। इस प्रकार यह वस्तु मेरी हो जाएगी। नहीं तो यदि मैं सत्य पर एक बड़ी भारी पुस्तक पढ़ डालूँ, परन्तु इस पर कभी स्वयं विचार न करूँ तो मेरा सत्य से कभी भी कोई भी सम्बन्ध नहीं स्थापित होगा, सत्य मेरे जीवन में नहीं आएगा। जैसे कि बाहर रखे हुए भोजन का मेरे शरीर से कुछ सम्बन्ध नहीं है, ऐसे ही पुस्तक पढ़ लेने पर भी मेरा सत्य से कुछ सम्बन्ध नहीं होगा। इसके लिए तो विचार करना चाहिए, मनन करना चाहिए। और जो मनुष्य मनन करने वाला है, उसे तो इतना ही ज्ञान मिलना पर्याप्त है कि सत्य बोलना चाहिए। वह मनन द्वारा उसका स्वयंमेव विस्तार कर लेगा और इसे अपने में धारण भी कर लेगा।
हममें से कइयों को बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़ने या लम्बे-लम्बे व्याख्यान सुनने का व्यसन होगा, परन्तु यदि एक बात को लम्बा ही करना है तो मैं यह सलाह दूँगा कि वे उसे अपने मन द्वारा उस पर मनन कर उसे लम्बा कर लिया करें, इसकी अपेक्षा कि वे एक लम्बी पुस्तक पढ़ें या लम्बा व्याख्यान सुनें, अपने को अपने-आप व्याख्यान देना चाहिए। स्वंय विचार करते समय वस्तुतः यही क्रिया होती है। जिनको ऐसा व्यसन नहीं है उन्हें भी जब कभी कोई विस्तृत उपदेश पढ़ने का अवसर आए तो उन्हें चाहिए कि वे उस विस्तृत कथन को संक्षेप से मन में रखें और फिर एकान्त में अपने मन द्वारा उसका पुनः विस्तार करें। इस दूसरे अपने मन में किए विस्तार से वह उपदेश उमसें गृहीत हो जाएगा, उसका अपना बन जाएगा। ज्ञान को धारण करने का, मानसिक भोजन को हजम करने यही उपाय है- एकान्त विचार।
यहाँ एकान्त कहने से क्या मतलब है? हम प्रायः सदैव ही बाहर के प्रभावों से प्रभावित होते रहते हैं, अपने से अतिरिक्त बाहर की वस्तुए, हमारा ध्यान आकर्षित करती रहती हैं और हमारा मन उन ही का चिन्तन करता रहता है। इन प्रभावों और बाह्य विचारों को कुछ समय के लिए हटाकर अपने आम में अकेले होकर बैठिए। एकान्त होने से ही मतलब है। इस अवस्था में बैठने से ही अपने पर ठीक प्रकार से विचार किया जा सकता है।
मनुष्य असल में है ही अकेला। अपने कर्मफल पाने में उसका कोई और हिस्सेदार नहीं है। जब हमें कोई कष्ट-क्लेश होता है तो हमारे परम-से-परम हितकारी भी हमारी कुछ सहायता नहीं करत सकते, जब कि कि महारे अपने कर्मानुसार वैसा होना सम्भव न हो। इसलिए, मनुष्य ने अपना असली मार्ग अकेले ही तय करना है। दूसरा मनुष्य थोड़ा-सा सहायक हो सकता है, पर चलना उसने अपने-आप है। इसलिए एकान्त होना अपने को अपनी स्वाभाविक अवस्था में लाना है। इसी को स्वस्थ होना कहते हैं, अपने- आप में स्थित होना। कैवल्य का भी अर्थ यही है, केवल होना, अकेला होना। इसलिए प्रतिदिन अकेले होकर, अपनी आत्मा के पास बैठकर, अपने पर विचार करना चाहिए।
इसी का नाम आत्मनिरीक्षण है। जैसे एक बनिया अपने हानि-लाभ का हिसाब करता है, वैसे ही प्रत्येक मनुष्य को अपने परम हानि- लाभ का प्रतिदिन हिसाब- किताब करना चा हिए। मैं कमा रहा हूँ या खो रहा हूं, इसका हिसाब न करने वाले पुरुष का यदि प्रतिदिन घाटा हो रहा हो, तो भी उसे इसका पता नहीं लगेगा। तो वह घाटे को कैसे पूरा करेगा? बिना आत्म-निरीक्षण के अपना उद्धार कैसे करेगा?
आत्मनिरीक्षण प्रारम्भ करने पर कइयों को बड़ी घबराहट होती है। अपनी अनगिनत त्रुटियाँ दिखाई पड़ती हैं, बड़ा भारी घाटा हुआ अनुभव होता है। इस घबराहट के मारे कई भाई आत्मनिरीक्षण करना छोड़ देता हैं, पर उन्हें यदि यह पता लग जाए कि इस घबराहट को सहना चाहिए तो बड़ा भला होगा, क्योंकि इस घबराहट के सह लेने पर अपने अन्दर से उन्हें बड़ी शान्तिदायिनी सात्वनां मिलेगी और फिर दिन-प्रतिदिन आत्मनिरीक्षण में इतना आनन्द आने लगेगा कि वे उम्रभर इस एकान्त को नहीं छोड़ सकेंगे।
इस विचार के लिए स्वाभाविक समय है प्रातःकाल और सायंकाल। हमारी दो अवस्थाओं के ये अन्त के समय हैं। जागरितान्त और स्वप्नान्त से आत्मा को जाना जा सकता है, ऐसा उपनिषद् में कहा है। प्राकृतिक दृष्टि से भी यह समय हमारे मनन के लिए बहुत अनुकूल है। स्वाभावतः इन समयों में आत्मा के पास बैठा जाता है। इन्हीं समयों में प्रतिदिन बैठकर हमें अपने लाभ और हानि पर, अपनी अवस्था पर विचार करना चाहिए। यदि कोई मनुष्य अपने में से कोई दुर्गुण हटाना चाहता है तो वह कभी नहीं हटा सकता है, यदि वह कभी अपने पर विचार नहीं करता, चाहे वह कितने उपदेश सुनता रहे। यदि मैं क्रोध छोड़ना चाहता हूँ तो मुझे प्रतिदिन सायं-प्रातः विचार करना चाहिए कि मैंने आज कितनी बार क्रोध किया, क्यों क्रोध किया और फिर दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि कल ऐसा नहीं करूँगा। इसी प्रकार हम दुर्गुणों हटाने और सद्गुणों को धारण करने में कृत-कार्य हो सकते हैंस उपदेश का धारण करने का यही एकमात्र उपाय है। श्रवण के बाद मनन करना चाहिए चाहिए।
इस उपदेश को मैंने निम्न वेदमन्त्र से ग्रहण किया है-
देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु (अथर्ववेद 3.20.7)
हे मनुष्यों! जैसे देवता अपने अमरपन की रक्षा करते हैं वैसे तुम सायं-प्रातः सौमनस को प्राप्त होओ देवता न मरने वाले हैं। यही देवों का देवत्व है। हम उनके अमृत की रक्षा करते हैं, वैसे ही हमें सायं-प्रतः सौमनस को रखना चाहिए । सौमनस का अर्थ है मन का अच्छा होना, अच्छा मनन। यह मनन ही मनुष्य का मनुष्यत्व है, जैसे देवों का देवत्व अमरपन है। मननात् मनुष्यः मनुष्य इसीलिए मनुष्य कहाता है कि वह मनन करता है। यही उसकी पशुओं से भिन्नता है। यदि वह अपना मनन करना, विचार करना त्याग दे तो वह मनुष्य नहीं रहता। उसे सायं-प्रातः अपना विचार नहीं करता वह मनुष्यत्व से गिर जाता है। इस प्रकार हमारे लिए एकान्त विचार का महत्व है। जब मनुष्य अपने पर इस प्रकार विचार करता है, तब वह उस समय के लिए अपने अन्दर चला जाता है। यह अपने अन्दर जाना मुझे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि एक किले के अन्दर बैठ जाना। जिस प्रकार एक किलेवाला लड़ाकू योद्धा सदा लाभ में रहता है, उसी तरह जो मनुष्य एकान्त में जाना जानता है, वह इस दुनिया की लड़ाई में कभी हारता नहीं। आप प्रातः किले में से निकलिए और दिन-भार लड़कर फिर शाम को अपने किले में जाकर अपनी अवस्था देखिए, फिर दूसरे दिन तैयार होकर लड़िए। दिन में भी जब भी अपने पर बहुत घाव लगे देखें, तो उस समय भी कुछ देर के लिए इस किले में चले आईए। यहाँ एक विचाररूपी वैद्य आपके सब घावों की मरहम-पट्टी क्षण-भर में कर देगा। मुझे इस एकान्त विचार से बहुत सुख मिला है, इसीलिए मैं आग्रह करता हूँ कि अन्य भी इसका परीक्षण करें। मुझे तो यह निश्चय है कि मुझे घोर-से-घोर दुःख मिले, तो भी यदि मुझे कुछ देर के लिए एकान्त में होना मिल जाए तो मेरा तीन-चौथाई दुःख तो निश्चय से उसी समय दूर हो जाएगा।
इसलिए दूसरा वेदोपदेश हमें यह ग्रहण करना चाहिए कि हम आज से दोनों समय प्रातःकाल और सायंकाल, कुछ देर के लिए संसार को अपने से जुदा करके अपने पर विचार किया करे और इस समय में जो कुछ उपदेश व ज्ञान हमें दिनभर में मिला हो, उसका अपने जीवन से सम्बन्ध जोड़ लिया करें। इसी प्रकार हम उपदेश को ग्रहण कर सकेंगे, क्योंकि मन ही एक स्थान हैं,क् जहाँ कि हम ज्ञान-रत्न को लाकर रख सकते हैं। यदि हम ज्ञान-धनी बनना चाहते हैं तो हमारे पास धन रखने के लिए स्थान होना चाहिए। इस धन के रखने का कोष बनाने के लिए भगवान् ने हम सबको हृदय दिया है। अब तक हमने मूर्खता के कारण इसका उपयोग नहीं किया। अब से जो कुछ हमें ज्ञान मिले, हमें चाहिए कि हम एकान्त में जाकर मनन की क्रिया द्वारा उसे अपने इस दिव्यकोष (हृदय) में संभालकर रख लिया करें। इसी प्रकार हमारी कमाई सुरक्षित रह सकती है। नहीं तो हम लोगों में कहावत प्रसिद्ध ही है- एक कान से सुना, दूसरे कान से निकाल दिया। यदि ऐसी ही अवस्था है तो हम ज्ञानरत्न को एक हाथ से उठाकर भी उसी समय दूसरे हाथ से उसे खो देंगे। इसलिए दूसरा आवश्यक कदम यह कि हम धन को संभालकर रखना भी जान जाएँ।
पिछली बार हमें ज्ञानरत्न का उठाना सीखा था, यदि आज हमने यह दूसरा उपदेश भी ग्रहण कर लिया तो हम अब इन रत्नों को सुरक्षित रखना भी सीख जाएँगे। अब और क्या चा हिए। अब तो हम देखेंगे कि जहाँ तक हमें इन दोनो प्रारम्भिक उपदेशों को सीख लिया है, वहाँ तक हम दिनोंदिन ज्ञान-धनी होते जा रहे हैं, यह हम जरूर अनुभव करेंगे। - स्व. आचार्य अभयदेवजी
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