ब्रह्म की विद्या 'ब्रह्म' अर्थात् वेद ही है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इनमें चार विषय क्रमशह्न ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। यहां एक-एक वेद से एक-एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है-
1. मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् (ऋग्वेद 10.53.6)-ऋग्वेद तृण से लेकर परमब्रह्म तक का ज्ञान कराता है। उसके ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्च मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात् सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। मनुष्य, मनुष्य तभी बन सकता है, जब उसमें पशुताओं का प्रवेश न हो। आकार, रूप, रंग से कोई प्राणी मनुष्य दिखाई देता है, किन्तु उसके अन्दर भेड़िया, श्वान, उल्लू गृद्ध आदि आकर अपना डेरा जमा लेते हैं। ऋग्वेद हमें वह सब ज्ञान प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति एक प्रबुद्ध मानव रहता है, वह न पशु और न दानव बनने पाता है।
2. आयुर्यज्ञेन कल्पताम् (यजुर्वेद 18.29)- तांबे का कोई भी तार प्रकाश नहीं कर सकता है, किन्तु जब उसमें विद्युत का प्रवाह होने लगता है तो उससे प्रकाश, गति, उर्जा ओर ध्वनि सभी प्राप्त होने लगते हैं। देखने में तार पहले जैसा ही लगता है। इसी प्रकार देखने में सभी मनुष्य एक से लगते हैं, किन्तु जिनमें यज्ञरूपी विद्युत का प्रवाह हो जाता है, वही दिव्य हो जाते हैं। पंच महायज्ञ की बात तो पृथक ही है। सामान्यतया यज्ञ से तीन कर्मों का बोध प्राप्त होता है-देवपूजा, संगतिकरण और दान। सभी सच्च्े जड़-चेतन देवताओं के प्रति पूजा-भाव रखते हुए समाज में समन्वय-संगति बनाये रखने के लिए सर्वसुलभ संपदाओं को सुविधानुसार दान करना और कराना, यही सब कार्य यज्ञ कहलाते हैं। यही कर्म मनुष्य को महामानव बना देते हैं। आहार, निद्रा, भय व मैथुन तो हर पशु तथा मानव की आवश्यकता है। पशु केवल इन्हीं के लिए जीता है। किन्तु मनुष्य इनसे ऊपर उठता है। इनको भी धर्म के कर्म अर्थात् यज्ञ का रूप प्रदान करता हुआ जीता भी है और बलिदान भी हो जाता है। अगर हमने किसी को प्रेम नहीं दिया, किसी की सेवा नहीं की, किसी की पीठ नहीं थपथपाई, किसी को सहारा नहीं दिया, किसी को सान्त्वना नहीं दी, तो हमारा जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है, एक व्यथा है। अयोग्य हैं हम। केवल अपने लिए जी रहे हैं, यह तो पशु का जीवन है। यही पशु प्रवृत्ति है कि केवल अपना ही ध्यान रखे । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
3. सदावृधः सखा (सामवेद 169-682) - इस यज्ञ भावना, कामना एवं कर्मणा को हम सामवेद के इस उपासना परक मन्त्र से प्राप्त कर सकते हैं। हम सदैव उन व्यक्तियों को अपना मित्र बनायें, जो अपने क्षेत्र में बढे हुए हैं, वृद्ध हैं। उनकी सदसंगति से, उनके वचन व उनके अनुकरण से पढे-बेपढे सभी को सद्ज्ञान-सद्कर्म की प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। उनके समीप बने रहने से मानव में यज्ञ की विद्युत का प्रवाह संचार करता रहेगा, जो इस लोक में तो उपयोगी होगा ही, परलोक में भी 'सदावृधः' जो आदि से ही सर्व वृद्धिपूर्ण परमब्रह्मा है, उसका भी सखा बना देगा, समान ख्याति का अधिकारी बना देगा। बड़ों की समीपता व उनका सम्मान सदैव आयु, विद्या, यश एवं बल का स्त्रोत होता है। इससे कोई वंचित न हो, अपितु सब सिंचित हों। यही वेद का मधुर सामगान है।
4. माता भूमि पुत्रोहम् पृथिव्याः (अथर्ववेद 12.1.12)- ज्ञान, कर्म, उपासना इन अवयवों के समन्वित रूप से निर्मित रसायन ही अथर्ववेद का विज्ञान है। पश्चिम प्रभावित विज्ञान अपने आविष्कारों से अति विचित्र यन्त्र-उपकरणों का निर्माण कर सकता है। कम्प्यूटर, दूरदर्शन,दूरभाष, इण्टरनेट और न जाने क्या क्या। इन सबसे भौतिक सुख समृद्धि का विस्तार तो होता दिखाई देता है, किन्तु आन्तरिक शान्ति तिरोहित हो जाती है। आविष्कार तो अत्यन्त विस्यमकारक अदभुत लगते हैं, किन्तु इन सबका प्रारम्भ प्रीतिकर, किन्तु परिणाम प्राणहर सिद्ध होता है। आधुनिक भोगवादी विज्ञान के चमत्कार चीत्कार में नित्य परिणत होते देखे जाते हैं। इनमें सर्वाधिक स्थूल पृथ्वी है, जो सम्पूर्ण प्रकृति का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती है। वेद के अनुसार यह हमारी सृजन-पालन व आधार देने वाली माता है, साथ ही हम इसके पुत्र हैं। इसके साथ हमारा व्यवहार माता-पुत्र की भांति होना चाहिए। माता यदि जन्म देकर सन्तान का पालन पोषण करती है, तो सन्तान भी माता का सम्मान और उसकी सेवा में अपने जीवन की बाजी लगाने को प्रस्तुत रहती है। आज की भांति सागर, धरातल, पर्वत, आकाश में पाये जाने वाले पदार्थ यथा रत्न, राशि, जल, वृक्ष-वनस्पति, पत्थर, वायु सभी का भरपूर दोहन करना ही मानव का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। दोहन भी ऐसा कि इन प्राकृतिक पदार्थों का समूल विनाश होता चला जाये तथा पर्यावरण भयंकर रूप से प्रदूषित हो जाए प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देने वाली मुर्गी से सन्तुष्ट न होकर एक बार में ही मुर्गी के पेट को फाड़कर सोने के सारे अण्डे एक साथ निकालने वालों को सोना तो मिलता ही नहीं, मुर्गी से भी हाथ धोना पड़ता है।
भूमि की भांति मानव की अन्य मातायें भी हैं। उनमें से एक माता गाय भी है। उसके पोषणकारी स्वर्णिम दुग्ध से जब जी न भरा तो मानव ने उसके मांस को ही खाना प्रारम्भ कर दिया। कृत्रिम विषैले दूध से मानव सन्तान इधर रोग ग्रस्त होती है, उधर हजारों वधशालाओं में गौओं की हत्या करके गोमांस को भारत से निर्यात किया जाता है। दैनिक जागरण (23.07.2000) के अनुसार दिल्ली के भोजन गृहों में गोमांस परोसे जाने के विरोध में जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया गया, वह भी मुस्लिम समुदाय के जागरूक व्यक्तियों के द्वारा। अमर उजाला दिनांक (24.07.2000) के अनुसार अमेरिका में शेर के मांस को परोसे जाने पर लोगों द्वारा आपत्ति की गई। यह तो समझ में आता है कि गाय को अंगूर, अन्न, मेवा खिलाकर अधिक गुणवत्ता पूर्ण दुग्ध प्राप्त किया जाए, किन्तु यह समझ में नहीं आता है कि शाकाहारी पशु गाय के अधिक मांस को प्राप्त करने के लिए उसे धोखे से चारे में मांस मिला कर खिला दिया जाये। इस अस्वाभाविक क्रियाकलाप से जब 'मैडकाव' बीमारी से मनुष्य प्रभावित हुए, तो बड़ी संख्या में उन गायों को मार कर अपनी जान बचायी। इतना भोगते हुए भी वनस्पतियों की स्वाभाविक प्रोटीन से अतृप्त मानव इनके जनन गुण सूत्र (जीन्स) में जन्तुओं की प्रोटीन प्रविष्ट करके न जाने और कौन सी असाध्य व्याधि बुलाना चाहता है। यह है कभी न पूरी होने वाली मनुष्य की हत्यारी हवश !
अथर्ववेद इस हवश पर नियन्त्रण करके 'वरदा वेदमाता' के ऐसे विज्ञान की प्रेरणा देता है, जिससे मानव को जीते जी आयु, प्राणश्क्ति, प्रजा, पशु, कीर्ति एवं ब्रह्मवर्चस्व तो मिलें ही, मरने के बाद ब्रह्मलोक का दिव्य आनन्द भी मिले। ऋग्वेद के ज्ञान के पदों से धर्म का बोध होता है। यजुर्वेद के कर्म सृजित अर्थ से मिलकर पद से पदार्थ बन जाते हैं। सामवेद की सात्विक कामनाओं से यह पदार्थ जगहितार्थ समर्पित हो जाते हैं। यही समर्पण अथर्ववेद के विज्ञान द्वारा मानव को मोक्ष की ओर अग्रसर कर देता है। इस प्रकार मानव ''धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष'' रूपी पुरूषार्थ चतुष्टय के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान-चार वेदों के ये प्रधान चार विषय हैं, किन्तु सामान्य रूप से चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र में इन विषयों का अनुपम सामंजस्य रहता है। बिना किसी भेदभाव के मनुष्य मात्र स्वसामर्थ्यानुसार ''वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना'' परमधर्म का अनुगमन कर अपने जीवन को देदीप्यमान कर सकता है तथा वेद की 'मनुर्भव' भावना का जीवन्त स्वरूप बन सकता है। लेखक- पं. देवनारायण भारद्वाज
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
मर्यादा पालन से सुख होता है।
Ved Katha Pravachan - 82 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव