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परिवार के सद्व्यवहार से संसार का श्रृंगार

यजुर्वेद अध्याय 33 में एक मन्त्र आता है जिसके अनुसार सब वेदानुयायी चाहते हैं कि -

उप नः सूनव गिरः श्रृण्वत्वमृतस्य ये।

सुमृडीका भवन्तु नः॥ (यजुर्वेद 33.77)

जो हमारी सन्तान हैं, पुत्र- पौत्रादि है, वे अमृतस्वरूप परमेश्वर की वेद वाणियों को गुरु चरण में बैठकर या ज्ञानी वेदज्ञ उपदेशक या संन्यासी महात्माओं के समीप बैठकर श्रवण करें, जिससे कि वे हमारे लिए सुखकर हों ।

इस मन्त्र से एक उपदेश हमें यह मिलता है कि वेद के स्वाध्याय को अपना परमधर्म मानकर नित्य प्रति उसका स्वाध्याय करें, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें । समय-समय पर ज्ञानी वेदज्ञ विद्वानों एवं संन्यासी महात्माओं को अपने परिवारों में बुलाकर उनके प्रवचन कराएं, जिससे कि हमारी आने वाली संतति उन्हें सुने-समझे और उनके अनुकूल आचरण करे। इस प्रकार आचरण करने वाली सन्तति निःसन्देह हमारे लिए सुखकर होगी, यशस्कर होगी।

वेद में पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए सामूहिक रूप में तथा व्यक्तिगत रूप में भी बहुत सी सुन्दर प्रेरणाएं दी गई हैं। इस प्रसंग में अर्थववेद के ''सांमनस्य सूक्त'' पर विचार किया जा रहा है। इस सूक्त में परस्पर मिलकर द्वेष भाव को छोड़कर इस प्रकार कार्य करने का उपदेश दिया गया है, जिससे हम सब में 'सांमनस्य' उत्पन्न हो, सबके मन में एकीकरण की भावना हो, सहृदयता हो । अर्थात्‌ एक दूसरे के दुःख में दुःख और सुख में सुख अनुभव करने की भावना सदा बढ़ती रहे। इस प्रकार के विस्तृत सामाजिक जीवन का आरम्भ घर से होता है।

परिवार जन किस प्रकार परस्पर सहृदयता, सामंजस्य और अविद्वेष की भावना को अपने में उत्पन्न करें, इसका इस सूक्त के प्रथम मंत्र में वेद हमें उपदेश देता है-

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।

अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥ (अथर्ववेद 3.30.1)

हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे विद्वेष भाव को दूर करता हूं और उसके स्थान पर तुममें सहृदयता तथा सांमनस्य को उत्पन्न करता हूं जिससे कि तुम्हारी एक-दूसरे के प्रति भावना और तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति किया हुआ चिन्तन आत्मीयतापूर्वक हो। तुम परस्पर एक-दूसरे को ऐसे चाहो, ऐसे सेह करो, जैसे नवजात बछड़े को गौ माता स्नेह करती है।

इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हारे अन्दर किन्हीं भी कारणों से एक-दूसरे के प्रति वैर भाव आ गया है, जिसके कारण परस्पर में एक-दूसरे को देखकर तुम्हारे अ्रन्दर प्रीति या तृप्ति नहीं उत्पन्न होती, ऐसे विद्वेष भाव को मैं सर्वथा बाहर निकालकर तुम्हारे अन्दर वे भाव भरना चाहता हूं जिनके परिणामस्वरूप तुम्हें एक-दूसरे को देखकर ऐसी प्रीति, ऐसी तृप्ति अनुभव हो जैसी कि ग्रीष्म ऋतु में एक प्यासे को शीतल जल के प्राप्त हो जाने से मिल जाती है। इसके लिए मैं तुममें 'सहृदयता' लाना चाहता हूं। सहृदयता क्या है ? परिवार में एक-दूसरे के दुःख को देखकर दुःख और सुख को देखकर सुख अनुभव करना ही सहृदयता कहलाती है। जिस परिवार के सदस्यों में सहृदयता नहीं होती उस परिवार के सदस्यों में प्रीति अर्थात्‌ एक-दूसरे को देखकर तृप्ति का अनुभव होना असंभव है। इसलिए जो महानुभाव अपने परिवार में प्रीति की बेल बोना चाहते हैं, उन्हें उसकी जड़ों को सहृदयता के जल से सींचना होगा। तभी वह बेल हरी-भरी अर्थात्‌ फल-फूल सकेगी।

जहां सहृदयता होगी, वहीं पर सांमनस्य पनप सकेगा अर्थात्‌ एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक रूप से मन में शुभ विचारों की सृष्टि होंगी। चूंकि मन के अधीन सम्पूर्ण इन्द्रियां होती है इसलिए जैसे मन के विचार होते है वैसे ही अन्य सब इन्द्रियों के व्यवहार होते हैं। अतह्न अन्य सब इन्द्रियों से उत्तम और प्रशस्त व्यवहारों की सृष्टि उत्पन्न करने के लिए मन में शुभ विचारों का होना आवश्यक है तथा शुभ विचारों के लिए परस्पर मे सहृदयता की आवश्यकता होती है और सहृदयता तब उत्पन्न होती है जब मनुष्य विद्वेष को छोड़कर एक दूसरे के दुःख और सुख में दुःख और सुख का अनुभव करने लगे। ऐसा करने पर हमारे जीवन में अगला उपदेश सहज ही समा सकेगा। वह यह है कि तुम एक दूसरे को ऐसे चाहो-एक दूसरे से ऐसा सेहपूर्ण व्यवहार करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से करती है।

पारिवारिक जीवन में आगे वेद परस्पर व्यावहारिक जीवन पर प्रकाश डालता है-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुवर्तीं वाचं वदतु शांतिवाम्‌॥ (अथर्ववेद 3.30.2)

पुत्र पिता का अनुव्रती-अनुकूल कर्म करने वाला अर्थात्‌ आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।

इस मन्त्र में वेद ने आदेश दिया है कि परिवार में पुत्र का कर्तव्य है कि वह पिता का अनुव्रती हो। इस वाक्य से पुत्री भी पिता के अनुकूल आचरण करे, ऐसा ग्रहण कर लेना चाहिए।

वेद के इस उपदेश से मनुष्य के मन में यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या पिता की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए ? अनेक बार ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं, जिनमें एक पिता पुत्र को गोदी में बिठाकर स्वयं बीड़ी पीता हुआ उसे भी पीने को प्रेरित करता हुआ प्यार से उसके मुख में अपने ही हाथ से बीड़ी रखता है। इसी प्रकार एक पिता अपने बेटे को अच्छे साहित्य के पड़ने और सत्संग में जाने से रोकता है,एक बेटे को मांस अण्डे खाने को प्रेरित करता है- यह सोचकर कि बेटा शक्तिशाली बनेगा इत्यादि। इस प्रकार के संदेहों का वेद ने बहुत ही सुन्दर रूप से निवारण कर दिया है। वेद ने यहां 'अनुव्रत' शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके पिता के जीवन में जो व्रत हों, श्रेष्ठ कर्म हों या उनके जो आदेश श्रेष्ठ हों ''व्रतमनु इति अनुव्रत'' उन्हीं के अनुकूल चलना, उन्हीं को मानना ही पुत्र का धर्म है। इसके विपरीत अपने पिता के असद् उपदेशों और उलटे कार्यों का शिष्टाचार एवं मधुरता पूर्वक समझा-बुझाकर परित्याग करना ही उसका कर्तव्य है। इसी प्रकार पुत्र एवं पुत्री अपनी माता के मन से अपना मन एक करके अर्थात्‌ उनकी मनोभावनाओं का यथेष्ट सम्मान करते हुए व्यवहार करें।

परिवार में जहां माता-पिता अपनी आने वाली सन्तान से यह आशा रखें वहां उनका स्वयं का भी कर्तव्य है कि उनके सम्मुख जीवन में पग-पग पर अपने व्यवहार द्वारा ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि जिसे देखकर उन्हें अर्थात्‌ बालकों को अपने माता-पिता पर गर्व अनुभव हो और वे अपने आपको भाग्यशाली समझें तथा प्रभु का हृदय से धन्यवाद करें, जिसने उन्हें ऐसे अच्छे आदर्श धार्मिक माता-पिता प्रदान किये। उनका संतान के प्रति उपदेश शब्दों से नहीं अपितु व्यवहारों से प्रस्फुरित हो। इसलिए वेद ने कहा कि पत्नी को पति से मधु के समान मधुर शान्तिमय सम्भाषण करना चाहिये और ऐसा ही पति को भी। पति-पत्नी का परस्पर का यह आदर्श दिव्य व्यवहार आने वाली सन्तति के लिए जीवन में पग-पग पर प्रेरणा का स्त्रोत बनता रहेगा । ऐसा आदर्श जीवन होने पर समय-समय पर यदि आवश्यकता पड़ने पर कुछ उपदेश भी माता-पिता द्वारा दिया जायेगा तो सन्तान उस उपदेश को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करने में सुख अनुभव करेगी ।

इसके अनन्तर परिवार में एक पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने के पश्चात यदि दूसरा पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो, तो उसका माता-पिता के प्रति तो वही व्यवहार रहना चाहिये जो उपर्युक्त मन्त्र में निर्देश किया गया है। परंतु उनका परस्पर में कैसा व्यवहार होना चाहिये, इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश देता है-

मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्‌ मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥ (अथर्ववेद 3.30.3)

भाई भाई से द्वेष न करें, बहिन बहिन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर सम्मान करते हुए परस्पर मिल जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एक मत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर सम्भाषण करो।

इस मन्त्र में जहां यह बतलाया गया है कि भाई, भाई से और बहिन, बहिन से द्वेष न करें, वहां इससे यह उपदेश भी ग्रहण करना चाहिए कि भाई, बहिन से और बहिन, भाई से भी द्वेष न करें। भाई-भाई को, बहिन-बहिन को, भाई-बहिन को और बहिन-भाई को परस्पर में ऐसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे वे एक दूसरे को देखकर तृप्त हों, गद् हों। वे सदा एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए सेहपूर्वक मिलजुल कर कार्य करें और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समान रूप से प्रयत्नशील रहें। उनके व्रत-कर्म समान हों, श्रेष्ठ हों। यह समान कर्म और समान भाव से उनका किया हुआ पुरुषार्थ उनको निश्चित रूप से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर करता रहेगा।

इस प्रकार पारिवारिक अभ्युत्थान में संलग्र भाई-बहिनों को परस्पर में सम्भाषण भी ऐसा करना चाहिये, जो भद्र भाव से परिपूर्ण हो अर्थात्‌ बोलते समय यह विचारकर सब बोलें कि हमारे बोलने में कल्याण हो। अपवाद को छोड़कर दुर्भाग्य से आज परिवारों में भाई-भाई आदि वह वाणी भी नहीं बोल पाते, जो उनके इस लोक को ही सुखमय बना सके, परलोक की बात तो क्या कहें? फिर भी आश्चर्य है कि आज हम अपने आपको सभ्यता के उच्च् शिखर पर विराजमान अनुभव करते हैं।

वास्तव में इन वैदिक दिव्य व्यवहारों से जो परिवार सम्पन्न रहेगा, वह कितना धन्य होगा !

सूक्त के अग्रिम मन्त्र में वेद उपदेश देता है कि-

येन देवा न वियन्ति नच विद्विषते मिथाः।

तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः॥ (अथर्ववेद 3.30.4)

हे मनुष्यो! जिससे देवजन परस्पर पृथक-पृथक नहीं होते और न ही परस्पर विद्वेष करते है अर्थात्‌ जिसको पाकर देव जन सदा संगठित रहते हैं और एक दूसरे को देखकर फूले नहीं समाते, वह परस्पर एकता उत्पन्न करने वाला दिव्य ज्ञान तुम्हारे घर में सबके लिए समान रूप से प्राप्त हो।

इस मन्त्र से यह भाव निकलता है कि जो दिव्य ज्ञान सदा देवों को एक सूत्र में पिरोए रखता है, उनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहाए रखता है, जिसके कारण न तो वे एक दूसरे के विपरीत आचरण करते हैं और न ही परस्पर में वे द्वेष करते हैं । तब वह दिव्य पावन ज्ञान हम एक ही कुटुम्ब के वासी मनुष्यों को, जो रक्त सम्बन्ध से वैसे ही एक दूसरे के साथ अपनत्व अनुभव करते है, क्यों नहीं संगठन और सेह के पावन सू.त्र में हमें पिरो सकेगा ? अवश्य ही वह दिव्य ज्ञान हमें परस्पर इतना निकट ले आएगा, ऐसे सेह सूत्र में पिरो देगा कि यह परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में खड़ा होकर दूसरों को लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन जायेगा।

वेद पुनः आगे उपदेश देता है -

ज्यायस्वन्तश्चितिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।

अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्‌ वः संमनसस्कृणोमि (अथर्ववेद 3.30.5)

हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो ! परिवार में वृद्धों का सम्मार करने वाले, सम्यक्‌ ज्ञान के धनी, एक साथ मिलकर कार्य को सिद्ध करने वाले, एक धुरी के नीचे रहकर कार्य करने वाले अर्थात्‌ कार्य भार को मिलकर आगे बढाने वाले तुम लोग परस्पर पृथक्‌ मत होवो। तुम सब कार्य करते हुए एक दूसरे से सदा सेह आदि सम्मान पूर्वक बातचीत करते हुए आगे बढो। मै तुम सबको, एक साथ मिल-जुलकर कार्य करने वालों को समान मन वाला बनाता हूं, जिससे तुम अपने उद्देश्य में सदा सफल होते रहो।

इस प्रकार एक परिवार में वृद्धों को सम्मान मिलता रहे, छोटों को प्यार, आशीर्वाद तथा उत्साह मिलता रहे और सब मिल जुल कर प्रेमपूर्वक परिवार के अभ्युत्थान में कृतसंकल्प हो जायें, तो उस परिवार के सुख-सौभाग्य में सन्देह रह ही नहीं सकता।

परन्तु इस प्रकार परिवार में मिल जुलकर प्रेमपूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप घर में जो वैभव आए, उसके उपभोग में यदि कहीं भी भेदभाव आ गया, तो परिवार के संगठन को ठेस लगने की सम्भावना

हो सकती है। अतः वेद अग्रिम मन्त्र (अथर्व.-3.30.6) में उपदेश देता है-

हे परिवार में प्रेमपूर्वक निवास करने वाले मनुष्यो ! तुम्हारा दुग्धादि पदार्थों का पान समान हो, तुम्हारा भोजन एक जैसा हो और साथ-साथ हो अर्थात्‌ तुम्हारा खानपान एक जैसा हो, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव न हो। प्रेमपूर्वक सब एक साथ मिलकर खाओ-पीओ, भले ही तुम्हारे पात्र पृथक्‌-पृथक्‌ हों। क्योंकि इस प्रकार मिलकर साथ बैठकर खाने का भी एक अपने ढंग का आनन्द है। एक जुए में, मैं तुम सबको साथ -साथ जोड़ता हूं अर्थात्‌ तुम सब अपने आपको एक ही परिवार के संगठन में ऐसे बंधा हुआ समझो, जैसे कि रथ की नाभि के चहुं ओर अरे जुडे हुए होते हैं। इस प्रकार तुम सब मिलकर एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए प्रकाश स्वरूप प्रभु की पूजा करो, अग्रिहोत्र अर्थात्‌ यज्ञ करो अथवा मिलजुल कर एक जैसी संकल्पाग्रि को मन में प्रज्ज्वलित करो और उसमें अपनी-अपनी सेवा की आहुति प्रदान कर घर के वातावरण को सुगन्धित करो।

इस मन्त्र के आधार पर जिस परिवार में सभी मनुष्य प्रातह्नकाल उठकर नहा धोकर एक साथ बैठकर जब संध्या उपासना और भजन करते होंगे, सब मिलकर वेद के पावन मन्त्रों से अग्रि देवता के चारों ओर बैठकर यज्ञ करते होंगे, अपने-अपने भाग की आहुति देते होंगे, सब मिलकर परिवार के अभ्युत्थान के लिए मनों में संकल्पाग्रि को प्रज्ज्वलित करते होंगे, पुनह्न सब एक साथ बैठकर दुग्धादि पदार्थों का पान एवं भोजन करते होंगे, मिलकर कार्य करते होंगे, मिलकर स्वाध्याय-सत्संग तथा शयनादि के पावन मन्त्रों का पाठ करने के उपरान्त जब सो जाते होंगे, तो उनका केवल मात्र दैनिक व्यवहार ही प्रसन्नता और प्रेरणा का स्त्रोत नहीं रहेगा, बल्कि उनका चैन से सोना भी सबको अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहेगा।

वेद आगे कहता है कि -

सध्रीचीनान्‌ वः सम्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्‌।

देवा इवाअमृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौमनसो वो अस्तु॥ (अथर्ववेद-3.30.7)

इस प्रकार परस्पर मिलजुल कर पदार्थों के सेवन से या उत्तम सेवा भाव से तुम सबको एक साथ मिलकर पुरुषार्थ करने वाला, एक मन होकर विचार करने वाला तथा परिवार में एक को अपना बड़ा मानकर उसकी आज्ञा में चलने वाला या एक ध्येय को लेकर कार्य करने वाला बनाता हूं। अपने अमरत्व की रक्षा करते हुए देवों के समान प्रातह्न सायं तुम सबका सौमनत्व बना रहे।

इस मन्त्र का भाव यह है कि परिवार के सभी सदस्य जब एक साथ मिलकर बिना भेदभाव के परिवार के पदार्थों का उपभोग करते हैं, तो वे सब उस घर के अभ्युत्थान के लिये अपनी-अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार समान रूप से एक पताका के नीचे उद्योग करते रहते हैं। ऐसा करते हुए वे सब अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते हैं।

सूक्त के उपसंहार में वेद हमें एक सारगर्भित उपदेश देता है, वह यह कि हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो! जैसे देवजन ज्ञानी महानुभाव सभी प्रकार से अपने अमरत्व की रक्षा करते हैं अर्थात्‌ जगत्‌ से विदा हो जाने के उपरान्त भी अपने कार्यों से अपने को अमर बनाकर सुदीर्घ काल तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने रहते है, वैसे ही तुम्हारे इस वैदिक आदर्श परिवार का मूल मन्त्र 'सौमनस' हो। यदि तुममें 'सौमनस' बना रहा तो सुमन के परिणामस्वरूप तुम सुमन (पुष्प=फूल) के समान खिल जाओगे, प्रसन्नता से विभोर हो जाओगे और अपने परिवाररूपी वाटिका के सुमनों के खिल जाने के परिणामस्वरूप अपने सत्कर्मों की पावन सुगन्धि से सारे वातावरण को सुगन्धित कर सकोगे।

भगवान हर मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि और सामर्थ्य प्रदान करे, जिससे कि वह अपने परिवार को आदर्श परिवार के रूप में खड़ा कर सके, क्योंकि ऐसा करके ही वह परिवार स्वयं सुखी हो सकेगा और अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन सकेगा ।  लेखक- प्रो. राम प्रसाद वेदालंकार

 

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