भारतीय अस्मिता एवं आस्था का मूल वैदिक वाड्मय के पारदर्शी विवेचन से ही अनुप्राणित है। भारतीय मनीषा में वेद विहित ही स्वीकार्य और ग्राह्य है। प्रायह्न समानान्तर सिद्धान्त जो अपने को अवैदिक कहते हैं वे भी वेदमूलक ही हैं, क्योंकि उनके केन्द्र में वेद ही रहता है । वेदों का विवेचन समग्र मानवीयता के उद्बोधन, प्रबोधन और पल्लवन के लिए ही है। सुदूर अतीत की अपनी देवभाषा में उपनिबद्ध ये ग्रन्थ सहजता से ग्राह्य नहीं भी हों, परन्तु जनजीवन, बहुविकसित परम्पराएं और मान्यताएं भी वेदानुमोदित ही हैं। वे ही सांस्कृतिक एवं सदाचारनिष्ठ हैं, जिनमें वेदों का भावान्तरण है। ज्ञान का प्रसार भी जाति, वर्ग, लिंग, वय और सीमा को पार करके ही सुशोभित होता है। जो सार्वजनिक, सर्वहिताय और लोकोपयोगी होता है वही राष्ट्रीय होता है। राष्ट्र जीवन देश काल वातावरण के अनुसार अपनी अक्षरा संस्कृति के साथ चतुर्दिंक प्रवाहित होता रहता है। विचार, संरक्षण, संवर्द्धन, पोषण की वृत्तियों में परस्पर समन्वय ही समृद्ध और संगठित राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। जीवन को गतिशील बनाने के लिए पशु-सम्पत्ति, शस्य संपत्ति और वन्य सम्पत्ति की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। यज्ञ प्रधान विविध विवेचनों में भी यजमान को स्वस्ति मंगल के रूप में यजुर्वेद का अभिमत समग्र राष्ट्र का मंगल ही करता है।
वैदिक राष्ट्रगान का मंत्र द्रष्टव्य है-
आ ब्रह्यन् ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्
आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति
व्याधी महारथो जायताम्
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्
योगक्षेमो नः कल्पताम् (यजुर्वेद 22/22)
वैदिक संस्कृति की व्यवस्था में विचारों की उच्च्ता का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यदि विचारों में श्रेष्ठता होगी तो आचरण भी श्रेष्ठ होगा और जनमानस का वैचारिक स्तर उन्नत होगा तथा सर्वाभ्युदय संभव हो सकेगा। वेदों का तेज, ज्ञान का प्रकाश, ब्रह्मचर्य का ओज, संयम की ऊर्जा जिसमें भरपूर रहती है, वही ब्राह्मण राष्ट्र के लिए अपने चिन्तन और विचारों की आहुति दे सकेगा तथा उसके उदात्त चिन्तन से ही राष्ट्रजीवन को ऊर्जा प्राप्त होगी। यज्ञ संस्था की दृढ़ता और व्यापकता में वृद्धि होगी। ब्रह्मवर्चस् की अराधना के बिना न तो ब्राह्मणत्व बचता है और न ही समष्टि चिन्तन को प्रेरणा और गति मिल पाती है। राष्ट्र की रक्षा में राजवंश का उचित विनियोग तभी होगा जब वह शूरवीर हो, परन्तु शूरता तभी सफल होगी जब वह लक्ष्यवेध में प्रवीण हो, लक्ष्यवेध की सफलता भी तभी है जब वह शूर शत्रुनाश कर सके। इस देश का वीरबालक सैनिक ही नहीं सेनानायक अर्थात् महारथी बने। महारथी में शत्रुविनाश, शूरवीरता, लक्ष्यवेधता होने पर ही देश का संकट दूर हो सकेगा।
देश की रक्षा की व्यवस्था के बिना यज्ञ प्रवर्तन संभव नहीं हो सकता। निर्विघ्न यज्ञ संपादन और ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए पुष्ट और प्रसन्न गायों का होना आवश्यक है। उनके दुग्ध के बिना हव्य-कव्य की क्रिया और स्वाहा स्वधा की प्रवृत्ति देश में नहीं हो सकेगी। दोग्ध्री धेनुह्न का भाव है कि धेनु तो अपने सेवक को प्रसन्न ही करती है, दूध भी दे और प्रसन्न भी रहे यह गौमाता का ही कार्य है। पत्र्चगव्य ही देव ऋषि और पितृजनों को तृप्त करते हैं। वैचारिक तर्पण के लिए भी गव्य में ही अपार क्षमता होती है। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य के लिए वोढा अर्थात् प्रापक या प्राप्त कराने वाला, धारण करने कराने वाला भी होना चाहिए और पोषण पालन के बिना राष्ट्र सबल या समर्थ नहीं हो सकता है। गायों के सपूत अगर व्यापार व्यवसाय के माघ्यम हो जाएं तभी देश समृद्ध होगा। वृषभ (बैल) को धर्म का प्रतीक भी माना जाता है। जब इस देश का व्यापारी वर्ग धर्म को वृषभ (बैल) बनाकर वस्तुओं के विनिमय का आधार बना लेगा तो हवाला, घोटाला, तहलका और बोफोर्स की खबरें नहीं होंगी। गमनागमन में यदि प्रमाद नहीं हुआ, इच्छानुसार आवागमन होता रहेगा तो राष्ट्रीय जीवन गतिशील रहेगा। आशु सप्तिह्न कहते हुए ऋषि ने शीघ्रगामी अश्व का संकेत दिया है। यह रक्षकों और पोषकों दोनों के लिए आवश्यक है। रक्षकी की शूरता और पोषकी की पालनीयता अश्व या वाहन या गमनागमन पर ही अवलंबित रहती है। ये सभी वृत्तियां तब व्यर्थ हो जाती हैं, जब देश की नारी कुल का या परिवार का चतुराई से पोषण न करे। परिवार राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई है और उसका पालन, पोषण रक्षण, संवर्द्धन सब नारी पर आश्रित है। ऋषि ने पुरंध्रिर्योषा कहा है। यज्ञ परम्परा के निर्वाहक यजमान होते हैं। वे तभी सफल होंगे जब उनके घर आंगन की शोभा वीर बालक से बढ़ती रहे। यह बालक सभा में बैठने वाला हो और सभा का व्यवहार, आचार और शील जानने समझने में कुशल हो। जो युवक रथी बने, सैनिक बने उसमें देश के लिए जीतने या विजय प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हो, तभी वह विजयी हो सकेगा। मानवीय जीवन ओर उसकी अपेक्षाओं के साथ राष्ट्रीय अभ्युदय के लिए यज्ञों की सफलता से पैदा होने वाले बादलों से यथासमय अपेक्षित बरसात की प्रार्थना की गयी है। शस्य संपत्ति के बिना राष्ट्र का पोषण नहीं हो पाता है। जीवन में विघ्न करने वाले रोगों और टूटते जीवन के क्रम को ध्यान में रखकर ही वैदिक ऋषि ने औषधियों की फलवत्ता के लिए व्यापक देवता से प्रार्थना की है। यह सब होने पर भी देव से यही प्रार्थना की गयी है कि जो हमारे पास नहीं है वह भी मिलता रहे अर्थात् योग बने और उसकी शाश्वतता के लिए क्षेम के लिए भी अपेक्षा की गयी है।
जिस देश में पारदर्शी ज्ञान की ऊर्जा समृद्ध हो, सीमा पर प्रहरी सचेष्ट और लक्ष्यनिष्ठ हों, समाज का पालन-पोषण करने वाले धर्मशील हों, स्त्रियां परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक हों, गौएं देवर्षि पितृ कार्यों में सक्षम हों, युवाजन निर्भयता पूर्वक अपनी शक्ति का देशहित में विनियोग करते रहें, अवर्षा का जहां प्रभाव न हो, कृषि फलवती हो, औषधियां परिणामकारिणी हों, वही राष्ट्र समृद्ध और समर्थ हो सकेगा। गृह, रक्षा, व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा विभाग जहां युक्त होते हैं, वहां प्रत्येक घर-परिवार प्रसन्न, उन्नत और सबल राष्ट्र का अंग बन सकता है। वैदिक राष्ट्र चिन्तन का यह एक उदाहरण मात्र है। यह प्रार्थना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी राष्ट्र के लिए उस समय थी। लेखक- डॉ. मिथिला प्रसाद त्रिपाठी
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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Ved Katha Pravachan - 85 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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