ओ3म् तरत् स मन्दी धावति धारया सुतस्यान्धस: ।
तरत् स मन्दी धावति ।। ऋग्वेद 9.58.1।।
ऋषि:वत्सार:। देवता पवमान: सोम:।। छन्द: निचृद्गायत्री।।
विनय- हे दु:ख और पाप से तरना चाहने वाले भाइयो ! देखो, कई हैं, जोकि तर गये हैं। इस दुस्तर दीखने वाले संसार-महासागर से तरा जा सकता है, सचमुच तरा जा सकता है, पर तरता वह है जोकि मन्दी है। क्या तुम भगवान् की भक्ति-स्तुति में रमनेवाले हो? क्या इस भजनरस से तुम्हारा अन्त:करण तृप्त हो गया हैं? क्या तुम्हारा अपना आन्तर (अन्दर) आनन्द से परिपूर्ण हो गया है? अर्थात् तृप्त होकर तुम्हें अब संसार की अन्य किसी वस्तु की, किसी भी वस्तु की, कामना नहीं रही हैं? क्या तुम ऐसे मस्त हो गये हो? ऐसे आत्माराम हो गये हो? मन्दी होने के लक्षण तो ये ही हैं। देखो, ऐसे मन्दी तरते जा रहे हैं और तर गये हैं।
यह अवस्था कैसे प्राप्त होती है? जब भजन करने से अन्दर सोई पड़ी हुई शक्ति जागती है तो वह प्राण,वाणी और मन को उज्जीवित करती हुई ऊपर की तरफ चढने लगती है। हठयोगियों की परिभाषा में इसे कुण्डलिनी का जागरण और प्राणोत्थान कहते हैं। इस कुण्डलिनी का वास्तविक जागरण ही तरना शुरू करना है। प्राण की धारा मूलाधार से उठकर ऊपर चढने लगती है। हैमवती शक्ति नाचती-कूदती हुई, भजन-स्तुति करती हुई मार्ग में प्राण, वाणी, मन के अद्भुत चमत्कार दिखाती हुई ऊपर, अपने शिवरूप स्वामी की ओर चढने लगती है। यह आध्यान अर्थात् मानसिक चेतना से युक्त प्राणधारा के रूप में क्रमश: ऊपर जाती हुई अनुभूत होती है। यही अन्धस् (सोम) की धारा है, जिसके साथ-साथ आत्मा ऊँचा होता जाता है। इसी धारा के साथ मन्दी नामक भक्त की ऊर्ध्वगति होती है। प्रसिद्ध सात लोक सब अन्दर हैं। उन्नत होता हुआ आत्मा इन सब लोकों को पार करता हुआ सत्य लोक में पहुँचकर पूर्ण स्वतन्त्र हो जाता है, बिल्कुल पार तर जाता है। प्राण, वाणी, मन आदि शक्तियॉं शिर के सत्यलोक में जाकर ठहर जाती हैं और समाधि हो जाती है। इस प्रकार देखो! मन्दी (भगवान का भक्त) दु:खसागर को तर जाता है, ऊ पर पहुँच जाता है। अहो ! इस पुण्य घटना का विचार करना, इसे कल्पना की आँखों से देखना भी कितना ऊँचा उठाने वाला है। तरत् स मन्दी धावति।।
शब्दार्थ- मन्दी= जो भक्ति-स्तुति करने वाला, स्वयं तृप्त, आनन्दमग्न पुरुष होता है स:=वह तरत्= तर जाता है स: वह सुतस्य= उत्पन्न की गई अन्धस:= आध्यानयुक्त प्राण व वाणी की धारया= धारा के साथ धावति=ऊपर वेग से उठता जाता है । स: मन्दी= वह आनन्द तृप्त तरत्= तर जाता है,धावति= ऊर्ध्वगति द्वारा ऊपर चढ जाता है । व्याख्याकार-पण्डित अभयदेव विद्यालंकार
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