ओ3म् नयसीद्वति द्विष: कृणोष्युक्थशंसिन: ।
नृभि: सुवीर उच्यसे ।। ऋग्वेद 6।45।6
ऋषि: बार्हस्पत्य: शंयु: ।। देवता इन्द्र:।। छन्द: गायत्री।।
विनय-"सुवीर'-सर्वश्रेष्ठ वीर-किसे कहना चाहिए? अन्त में तो प्रत्येक गुण की पराकाष्ठा भगवान् में ही है। परिपूर्ण वीरता का निवास भी उन्हीं में है । उनकी वीरता का अनुकरण करनेवाले मनुष्य, सच्चे पुरुष उन भगवान् को ही "सुवीर' नाम से पुकारते हैं, पर उनकी वीरता कैसी है ?
अज्ञानी लोग समझते हैं कि अपने शत्रु, द्वेषी को हानि पहुँचाने में सफल हो जाना ही बहादुरी है । यह निरा अज्ञान है । क्रोध के वश में आ जाना तो हार जाना है । क्रोधवश होकर मनुष्य केवल अपने को विषयुक्त करता है और जलाता है । क्रोधी अपने शत्रु का नाश क्या करेगा ? वह तो अपना नाश पहले कर लेता है । ज्यों-ज्यों हम अपने द्वेषी के लिए अनिष्ट-चिन्तन करते हैं, त्यों-त्यों उसमें हमारे प्रति द्वेष और बढता जाता है । उसका द्वेष, उसका शत्रुपना बढता जाता है । शत्रु को हानि पहुँचा लेने पर, उसके शरीर को चोट दे लेने पर, यहॉं तक कि उसे मार डालने पर भी उसकी शत्रुता नष्ट नहीं होती, वह तो और-और बढती जाती है । शत्रु के शरीर का, धन का, मान का एवं उसकी अन्य सब चीजों का नाश करने में हम बेशक सफल हो जाएँ, पर उतना ही उतना वह शत्रु (असली शत्रु) बढता जाता है, उसका शत्रुपना बढता जाता है । यह क्या हुआ ? वीरता (परमात्मदेव से अनुकरणीय सच्ची वीरता) इसमें है कि वह उसकी बाहरी किसी चीज का नाश न करें (और क्रोध से हम अपना भी नाश न करें) किन्तु किसी तरह उसकी शत्रुता का नाश कर दें । उसके अन्दर हम ऐसे घुसें कि वह हमारा शत्रु न रहे, वह मित्र हो जाए । बहादुरी इसमें है कि हम क्रोध को जीतकर,धैर्य रखकर अपने द्वेषी के द्वेषभाव को बिल्कुल निकाल डालें । ऐसा निकाल डालें कि वह हमारी निन्दा करना तो दूर रहा, वह हमारी प्रशंसा के गीत गाने लगे । यह है शत्रु पर विजय पाना । पर ऐसी विजय पाने के लिए अपने में बड़ा भारी बल चाहिए । अपने में बलिदान की न समाप्त होनेवाली शक्ति चाहिए, बड़ा धैर्य चाहिए, बड़ी भारी वीरता चाहिए । हम भी परिमित अर्थ में बोला करते हैं कि वीर वह होता है, जिसकी शत्रु भी प्रशंसा करें। पर हमें तो अपरिमित अर्थ में उस भगवान की सुवीरता का आदर्श अपने सामने रखना चाहिए । जिनके विषय में भक्त लोग समझते हैं कि आज संसार में जो लोग बिल्कुल उल्टे रास्ते जा रहे हैं, वे भी एक दिन लौटकर भगवद्भक्त भगवान् के प्रशंसक बनेंगे और मुक्त होंगे । भगवान् की उस अपरिमित वीरता में से, हृदय-परिवर्तन करने की उनकी इस अनन्त शक्ति में से और उनके अनन्त धैर्य में से हम भी कुछ ले लेवें, हम भी वीर बनें ।
शब्दार्थ- हे इन्द्र ! तू द्विष: द्वेष करनेवाले के द्वेषभाव को इत् उ= निश्चय से अति नयसि=निकाल डालता है । तू तान् = उन्हें उक्थशंसिन:= अपना प्रंशसक कृणोषि=बना देता है । नृभि:=सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर उच्यसे= सुवीर कहाता है । लेखक- आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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