एक बार महान दार्शनिक सुकरात से किसी ने पूछा, आपके गुरु कौन हैं ? सुकरात ने हॅंसते हुए उत्तर दिया कि दुनियॉं भर के जितने मूर्ख हैं, वे सब मेरे गुरु हैं । मूर्ख आपके गुरु कैसे हो सकते हैं ? उस व्यक्ति ने आगे जानना चाहा । सुकरात ने स्पष्ट किया, मैं यह देखने का प्रयास करता हूँ कि किसी व्यक्ति को उसके जिस दोष के कारण मूर्ख कहा जा रहा है, वह दोष मुझ में न आने पाये। इसी प्रकार मैं धीरे-धीरे दोषरहित होता गया हूँ । लोग उसकी मूर्खता पर हॅंसते रहे और मैं पवित्रता का वरण करता रहा।
कहा जाता है कि दार्शनिक सुकरात बहुत कुरूप थे । फिर भी वे अपने पास एक दर्पण रखते थे और उसमें बार-बार अपना मुँह देखते रहते थे । एक मित्र ने व्यंग्यपूर्वक इसका कारण जानना चाहा, तो उन्होंेने कहा-""दर्पण देखकर मैं अपनी कुरूपता का प्रतिकार अच्छे कामों से करता हूँ । जो सुन्दर हैं, उन्हें भी ऐसे ही दर्पण देखते रहना चाहिये और सोचना चाहिये कि इस प्रभु प्रदत्त सौन्दर्य में कहीं दुष्कृत्यों का धब्बा न लग जाये ।
लेखक ने महात्मा आनन्दस्वामी जी की निकटता का आभास किया है और उनके सकारात्मक हास-परिहास का उल्लास भी पाया है । एक बार स्वामीजी किसी परिवार में वे ठहरे। दिन भर बच्चों के साथ खूब खेले । जब बच्चों के पिता घर आने लगे तो वे सब बच्चे छिपने लगे । स्वामी जी ने इन महाशय से इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि मैं जरा रोब से रहता हूँ । तब स्वामी जी ने उन्हें समझाया कि यह आपका घर है केन्द्रीय कारागार नहीं । आपके आते ही बच्चों का प्यार फूट पड़े, कोई कन्धे पर चढे, कोई पैरों से लिपटे, कोई बात करने लग जाये । बच्चों को गोद मिले, मोद मिले, थकावट दूर होकर आपको भी आमोद-प्रमोद मिले । स्वामी जी के घूंसे का स्पर्श और अधरों का हर्ष, मुझे आज भी अपने भाग्य का उत्कर्ष प्रतीत होता है।
ओ3म् सुनृतावन्त: सुभगा इरावन्तो हसामुदा:।
अतृष्या अक्षुध्या स्त,गृहा मास्मद बिभीतन।। (अथर्ववेद 7.69.6)
अर्थात् हे परिवार के लोगो ! तुम सत्यवादी, सौभाग्यशाली, अन्नादि समृद्धि से सम्पन्न, सर्वथा हॅंसने-खेलने वाले प्रसन्नचित्त, भूख-प्यास के कष्ट से रहित रहो। तुम हमसे भयभीत न हो । जैसे ईश्वर स्वयं से न डरने को कह रहा है, परिवार के पिता को भी ऐसा वातावरण बनाना चाहिये कि बच्चे उससे डरें नहीं ।
श्रीमती जी के लघु भ्राता के बच्चे ग्रीष्मावकाश में मेरे यहॉं आये । कनिष्ठ कन्या बड़ी चंचल थी । दो दिन बाद नि:संकोच मुझसे बोली, फूफाजी ! मैं डरते-डरते यहॉं आई हूँ । आप मेरे पिताजी से बहुत बड़े हैं, हमारे पिताजी से अधिक शुष्क व गम्भीर रहते होंगे । जब आप हम लोगों के साथ खेलने-हंसने-बोलने लगे, तो वह डर दूर हो गया । यदि परिवार में सर्वसम्पन्नता हो, पर हास्य माधुर्य की विपन्नता हो,तो वह सम्पन्नता भी चुभने वाले स्वर्णाभूषण के समान होगी । और यदि हास्य-माधुर्य की सम्पन्नता हो, तो विपन्नता भी फूल सी हल्की होगी तथा एक दिन उड़ जाएगी और रिक्त स्थान को सुख-सौम्यता से भर जायेगी।वेदभक्त की यही तो प्रार्थना है मधुजनिषीय मधु वंशिषीय (अथर्व 9.1.14) हे प्रभो ! मैं मधु उत्पन्न करूँ।अन्यों से भी मधु की याचना करूँ । एकपक्षीय प्रयास से माधुर्य वर्षा संभव नहीं । यदि हम अन्यो के प्रति व्यवहार माधुर्य बरसायेंगे तो वे भी हमारे प्रति मधु स्रोत बहाएंगे ।
दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे ।
जो रंज की धड़ियॉं भी खुशी में गुजार दे।
दिन प्रतिदिन की अति साधारण अवांछित घटनाओं की पीड़ा को पहाड़ समान बनने से तो हम रोक ही सकते हैं । ऐसा न हो कि रोते हुए जन्मने वाला आदमी शिकायतें करते हुए जिये और निराश मर जाये।किसी विचारक ने ठीक ही कहा है कि प्रभु ने तुमको अपार प्रेम दिया,तब तुम घुट-घुट कर क्यों जीते हो। प्रेम से जीओ। जब आप किसी से मिलते हो,तब आप खूब हॅंसते व प्रसन्न होते हो । इसके लिये आपने कोई प्रयत्न नहीं किया,यह सब अपने आप हो गया । प्रेम मांगने से कम होता है और देने से बढता है । प्रेम हर व्यक्ति चाहता है, पर चाहने से नहीं होता, प्रेम देने से होता है ।
एक आदमी एक मुनि के पास गया और बोला, महाराज ! कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे यह सारी दुनिया मेरे वश में हो जाये । मुनि ने पूछा कि तुम्हारे परिवारजन, पत्नी-बच्चे व नौकर-चाकर तुम्हारे वश में हैं ? उसने कहा नहीं । अच्छा, तो अपना मन तो तुम्हारे वश में गा ? उसने कहा, नहीं । इधर-उधर भागता रहता है, कहना नहीं मानता । मुनि ने उसे अपने पास से भगाते हुए कहा, जाओ ! पहले अपने मन को वश में करो।
एक लड़का फटी-पुरानी कमीज पहने कक्षा के बाहर खड़ा था । अध्यापक ने चिल्लाते हुए कहा, तुम फिर देर से आये। चले जाओ । लगभग दो घण्टे बाद अध्यापक की दृष्टि बाहर गयी, तो देखा कि वह लड़का वहीं खड़ा हुआ कक्षा में पढाये जाने वाले पाठ को सुन रहा है। अन्दर बैठे लड़के इतना ध्यान नहीं दे रहे थे, जितने मन से वह पढ रहा था । आखिर उन अध्यापक जी ने उसे कक्षा में बुला लिया । वह बालक रोज कई किलोमीटर चलकर पाठशाला में आता था । वही बालक बाद में के.आर.नारायणन भारत के महामहिम राष्ट्रपति के रूप में जाना गया । स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा-""कल किसने देखा है ? आएगा भी या नहीं, वर्तमान में भविष्य का निर्माण करो ।'' सन्त उडिया बाबा का कथन है, मानव में इच्छा है, सामर्थ्य नहीं । भगवान में सामर्थ्य है, इच्छा नहीं । इच्छाओं को सीमित कर हम उन्हें पाने की सामर्थ्य प्राप्त कर सक ते हैं । असीमित इच्छायें पूरी नहीं हुआ करती ।
एक सम्राट बीमार पड़ा । राजवैद्य ने पूरी चिकित्सा की, पर ठीक नहीं हुआ । राजपुरोहित ने बताया जी, यदि सम्राट को हॅंसी आ जाये तो ठीक हो जायेंगे । विदूषक भी सम्राट को नहीं हंसा सके । राजकुमारों ने कहा कि चाहे आधा राज्य भले ही चला जाये, पिताजी को हॅंसना चाहिये । राजपुरोहित ने फिर उपाय बताया कि किसी प्रसन्नमन हॅंसने वाले व्यक्ति का कुर्ता राजा को पहनाया जाये, तो यह हॅंस जायेंगे और स्वस्थ हो जायेंगे । बड़ी कठिनाई से राज्य में एक प्रसन्नमन हॅंसने-खेलने वाला व्यक्ति मिला तो, पर उसके पास कुर्ता ही नहीं था। पं.देवनारायण भारद्वाज
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
वेद सन्देश- विद्या एवं ज्ञान प्राप्ति के चार चरण
Ved Katha Pravachan - 35 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव