शिव और शव- "शव' और "शिव' में इकार का अन्तर है। इकार शक्ति का प्रतीक है। शव मुर्दे को कहते हैं। मुर्दे में यदि जीवनी शक्ति हो तो शिव हो जाता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शिवतर बनकर शवों में शक्ति संचार कर दिया, उसने सोई हुई जाति को जगाया।
भारतवर्ष और विश्व- भारतवर्ष योगियों के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में भारतीयों का तीन चौथाई समय योग साधन में ही व्यतीत होता था। रघुवंशियों में तो अन्त में योग द्वारा ही प्राण-विसर्जन की प्रथा थी।
वेद के अनुसार- उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत। पर्वतों की गुफाओें में, नदियों के संगम पर, विप्र-उत्पत्ति बुद्धि द्वारा होती है। अस्थियों के भीतर हृदयाकाश में इडा, पिंगला और सुषुम्णा के संगम में बुद्धि से विप्रत्व उत्पन्न होता है। ब्राह्मी बुद्धि उपलब्ध होती है।
ये सब परम्पराएं योग साधन की परिचायिका हैं। यहॉं प्रत्येक व्यक्ति को शिव बनाया जाता था। वह देश-जाति एवं प्राणिमात्र के लिए सच्चा शिव प्रमाणित होता था। प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य था कि वह शिव बने और अपनी सन्तान को शिव बनावे।
आज वह कला हमारे हाथ से निकल गई। आज हम हस्तकला-कुशल रह गए। पर मन से शिवनिर्माण की भावना दूर न हुई और इसी आधार पर उस योगीनिर्मात्री हिमालय की प्रत्येक प्रस्तरकृति को शिव मान बैठे। शिव का सच्चा स्वरूप भूल गए और एक दिन फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी की अर्द्धरात्रि में गुर्जर प्रदेश के टंकारा ग्राम में शिवव्रत के दिन, जिसमें शिवनिर्माण हेतु स्त्री-पुरुष मिलकर विचार करते थे, वहॉं केवल प्रस्तर-प्रतिमा को ही शिव मानकर करशन जी (कृष्ण जी) अपने पुत्र मूलशंकर के साथ बैठे निन्द्रा में निमग्न थे और बालक शंकर की मूर्ति के सामने जागरूक शिव की सत्यता में व्यग्र था।
गणेश-वाहन के शिव-सिर चढ़ते ही शिव की सत्यता समझने का सुअवसर हाथ आया जान पिताजी को जगाकर प्रश्न किए। परन्तु कोई सन्तोषजनक उत्तर न पाकर वह सत्य का पुजारी सत्यान्वेषक सच्चे शिव की खोज में वनों, पर्वतों, गिरिगुहाओं में मारा-मारा फिरा और अन्ततोगत्वा वह स्वयमेव शिवनिर्माता कुशल कलाकार गुरु विरजानन्द के हाथों में पड़कर सच्चा शिव बन गया। वह यहीं नहीं रुका, वह और आगे बढ़ा।
शिवरूप दयानन्द- कामदेव को तीसरे नेत्र से भस्म करने वाला त्रिनेत्र, आजन्म ब्रह्मचारी रहा और पार्वती (ब्रह्मविद्या) से पाणिग्रहण किया। मनुष्य समाज के सिर से पैर तक ब्राह्मण से शूद्र तक ज्ञान गंगा को बहाया। सोमरस का पान करने वाला, तीनों शूलों (त्रिशूल) को अपने एक हाथ में रखने वाला और दूसरे हाथ में वेद लेकर वेद का घोष घर-घर करने वाला "ओ3म्' के नाद पर सवार, संसार के कल्याण के लिए एक बार नहीं अनेकों बार विषपान करने वाला पूर्ण दयालु शिव से भी शिवतर पूर्ण योगी महर्षि दयानन्द परमकारुणिक रूप में जनता के समक्ष आया।
उसने शिव बनाने वाली पद्धति का पुनः उद्धार किया "मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद' के रूप में। इसीलिए उसने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया, गुरुकुल प्रणाली को प्रोत्साहन दिया, वेदों की शिक्षा पुनः प्रचलित की। निर्जीवों को जीवन दान दिया। वह था सच्चा शिव, जो शिव को खोज में निकला और स्वयं शिव बन गया। कबीर के शब्दों में ः-
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।।
यह है तन्मयता का सुन्दरतम उदारहरण।
शिव और शिवतर- मानवमात्र शिव और शिवतर बन सकते हैं, शिवतम नहीं। शिवतम तो केवल परमात्मा ही है। "यो वः शिवतमो रसः' आत्माएं शिव बन सकती हैं, शिवतर बन सकती हैं, शिवतम नहीं। अवतारी पुरुष शिवतर होते हैं, जो स्वयं पारंगत होते हैं और भवसागर से पार करते हैं। स्वयं पार होने वाले शिव, दूसरों को पार कराने वाले शिवतर और लक्ष्य शिवतम है।
वेद भगवान ने भी प्रातः और सायं की सन्ध्या में अन्तिम मन्त्र को लक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया है-
नमः शम्यवाय च मयोभवाय च,
नमः शंकराय च मयस्कराय च
नमः शिवाय च शिवतराय च।
इस मन्त्र में वह समस्त पद्धति वर्णित कर दी है जो महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि एवं सत्यार्थप्रकाश में व्यक्त की है। शैवों का मन्त्र केवल 1/6 है, जबकि वैदिकों के पास पूरा मन्त्र है। पौराणिक वर्ग शिवपूजन में इस मन्त्र का विनियोग करता है। वस्तुतः यह मन्त्र शिवनिर्माण की कला वैदिकों को सिखाता रहा है।
आज प्रत्येक व्यक्ति का मानस अशान्त है और प्रत्येक व्यक्ति का मन तथा शरीर आधि-व्याधियों से ग्रस्त है। ऐसी स्थिति में सन्तान शान्त स्वभाव और सुखी कैसे हो सकती है।
प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक है कि वह सन्तान को "शम्भवाय च' शान्तिपूर्वक उत्पन्न करे। अशान्ति को दूर कर शान्त क्रान्ति का सच्चा पाठ पढ़ाने वाली संस्कृति ही वास्तव में शान्ति द्वारा कामुकता को तिलांजलि देकर सुसन्तान उत्पन्न किया करती थी और वह संतान सुखोद्भव होती थी। "शान्ति और सुख' ये ही तो जीवन के लक्ष्य हैं। जो समस्त भूमण्डल में शान्त और सुखी मानव बनाना चाहता है, वह अपनी सन्तानो का निर्माण शान्ति और सुख से करें।
शान्त्युद्भव और मयोभव- सन्तान ही शान्ति करने वाली हो सकती है तथा सुखकारी शान्ति और सुख का पाठ माता तथा पिता की गोदी में ही पढ़ा जाता है। माता शान्ति सिखाती है तथा पिता सुख। जो सन्तान गर्भ से लेकर समावर्तन काल तक शान्ति और सुख का पाठ पढ़ती है तथा जो सन्तान अपनी शतायु के चतुर्थ भाग को शान्ति-सुख के सीखने में लगा देती है, वही गृहस्थ में आकर शान्ति करने वाली और सुख देने वाली होती है और वही गृहस्थी अपने आयुष्य के तृतीय भाग में पुनः पहाड़ों-वनों की शरण लेकर शिव बन जाता है। अशिव सोचने की प्रवृत्ति दग्धमूल हो जाती है।
आयु के अन्तिम भाग में वह व्यक्ति संन्यासी बनकर शिवतर बन जाता है और संसार में शिव निर्माता गृहस्थियों को शिव निर्माण का सच्चा पाठ पढ़ाता है तथा मरने के बाद शिवतम में लीन हो जाता है।
शम्भूः मयोभू=ब्रह्मचारी। शंकरः मयस्करः= गृहस्थी। शिव=वानप्रस्थ और शिवतर=संन्यासी होता है।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती भी शिवतर बनकर गृहस्थियों को सच्चा "शिव-निर्माण" सिखाते रहे। इसीलिए वे जिए तथा इसीलिए वे मरे और अन्त में वे शिवतम की सुमधुर गोद में समा गए।
मधुरा की पुण्यभूमि ने साढ़े पॉंच हजार वर्षों बाद दयानन्द की दया और आनन्द के अवतार के रूप में समस्त संसार के लिए अनुपम भेंट दी।
शिवरात्रि अनेकों बार आई और गई, परन्तु वैदिकधर्मियों को नव-जागृति का सन्देश देने वाली शिवरात्रि वस्तुतः बोधरात्रि के रूप में सच्ची शिवरात्रि है, जिसको प्रत्येक वैदिकधर्मी बड़ी श्रद्धा से मानता और मनाता है तथा ऋषि तुल्य नई से नई शिक्षा ग्रहण करता है।l आचार्य विश्वबन्धु
दिव्ययुग फरवरी 2009, divyayug february 2009
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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