आचार्य डॉ. संजयदेव द्वारा प्रस्तुत देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध
यजुर्वेद वाङ्मय में पर्यावरण- खाद्य पर्यावरण
आयुर्वेद में "सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च' कहा गया है और विकारो धातुवैषम्यं दोषसाम्यरोगता का भी उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए त्रिदोषों की साम्यावस्था आवश्यक है। शरीर तो दोष, धातु और मल से ही निष्पन्न होता है। यदि इन तीनों की साम्यावस्था रही तो शारीरिक रोगों की उत्पत्ति ही नहीं हो पाती है। प्रकारान्तर से यही कहा जा सकता है कि शारीरिक पर्यावरण को असन्तुलित करने में त्रिदोषों की मुख्य भूमिका है। यह त्रिदोष अन्नाश्रित होते हैं। रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा अस्थि, वीर्य ये क्रमशः सात धातुएँ हैं, जो खाद्यानन्तर ही बनते हैं। यही धातुएँ देह को धारण करती हैं-
धारणाद् धातवः।
यह सब आहाराश्रित ही रहता है। 'यदन्न भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा' प्रसिद्ध ही है। इसीलिए 'हितमितमेध्याशनं तपः' का सूत्र स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है। स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा और रोगी के दोषों को दूर करना ही तो आयुर्वेद का चरम लक्ष्य है। यदि आहार पर नियन्त्रण कर लिया जाय तो शारीरिक और मानसिक प्रदूषण से बचा जा सकता है। इसके लिए यजुर्वेद वाङ्मय में प्रभूत निर्देश प्राप्त होते हैं।
प्राणी मात्र के लिए एक महत्वपूर्ण वस्तु, जिसके अभाव में जीवन यात्रा सम्भव नहीं है, वह भोजन है। भोजन द्वारा प्राप्त शक्ति से ही प्राणी कार्य करने में समर्थ होते हैं। भोजन के द्वारा ही शरीर का विकास होता है। शरीर में मांस, मज्जा, अस्थि, रक्त आदि के निर्माण में भोजन की ही मुख्य भूमिका होती है। भोजन से ही शरीर में कान्ति अथवा चमक दिखाई देती है। सन्तुलित भोजन, शरीर की अनेक रोगों से रक्षा भी करता है।
भोजन का प्रमुख आधार "अन्न' है। बृहदारण्यकोपनिषद् में उल्लेख है कि सबके पिता ने मेधा और तप से सात प्रकार के अन्न उत्पन्न किए-
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत्पिता।।56
इनमें एक "अन्न' साधारण है, जो सब प्राणियों द्वारा खाया जाता है-
एकमस्य साधारणमितीदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते।।57
पशुओं से प्राप्त दूध तथा पृथ्वी से प्राप्त विविध अन्न तथा कन्द, मूल, फल आदि मनुष्य के उपयोग में आने वाले प्रमुख अन्न हैं। अन्न की महिमा महान् है। अतएव "अन्न' को ब्रह्म कहा गया है-
अन्नं ब्रह्म।।58
सबके जीवन का आश्रय "अन्न' ही है-
अन्नं जीवनं हीदं सर्वम्।।59
तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लेख है कि अन्न से प्रजा की सृष्टि होती है, अन्न ही प्राणियों में ज्येष्ठ है, इसी से वह सर्वोषध कहा जाता है-
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते।
अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठं तस्मात्सर्वोषधमुच्यते।।60
सब प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होेते हैं तथा अन्न से ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं-
अन्नाद् भूतानि जायन्ते। जातान्यन्नेन वर्धन्ते।।61
अन्न को "अन्न' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों द्वारा खाया जाता है तथा स्वयं भी प्राणियों को खाता है, इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों का भोज्य तथा उनका भोक्ता होने के कारण यह "अन्न' कहा जाता है-
अद्यतेऽत्ति च भूतानि तस्मादन्नं तदुच्यते।।62
अद्यते भुज्यते चैव यद्भूतैरन्नमत्ति च भूतानि स्वयं तस्माद् भूतैर्भुज्यमानत्वातद्भूतभोक्तृत्वाच्चान्नं तदुच्यते।।63
यदि मनुष्य अन्न का उचित सेवन करता है,तो अन्न जीवन है। यदि आवश्यकता से अधिक खा लेता है, तो अन्न ही उसका घातक और मारक हो जाता है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी यही कहा गया है कि अन्न जीवन भी है तथा मृत्यु भी। उचित रूप से सेवन करने पर अन्न जीवन है तथा अनुचित रूप से सेवन करने पर यह मृत्यु हो जाता है-
अन्नं मृत्युं तमु जीवातुमाहु।।64
यजुर्वेद में "विश्वमस्तु द्रविणं वाजो अस्मे'65 कहते हुए अन्न प्राप्ति की कामना की गई है तथा अन्न को सबका रक्षक कहते हुए उसका स्वामी होने की कामना की गई है-
वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्रो वा परावतः।
वाजो नो विश्वैर्देवैर्धनसाताविहावतु।।66
अर्थात् सब दिशाओं में हमें अन्न प्राप्त हो, हमारा पराक्रम तथा कीर्ति चारों दिशाओं में फैले तथा हमारे अन्न धन आदि की और हमारी सब ओर से रक्षा होती रहे।
वाजो नो अद्य प्र सुवाति दानं
वाजो देवॉं2 ऋतुभिः कल्पयाति।
वाजो हि मा सर्वेवीरं जजान
विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयम्।।67
अर्थात् अन्न हमें आज दान की प्रेरणा करता है, देवों को ऋतु के अनुसार प्राप्त होता रहे, अन्न ही मुझे पुत्र-पौत्रादि से युक्त करे, अन्न का स्वामी होकर मैं अन्नदान के द्वारा सब दिशाओं को विजय करूँ।
वाजः पुरस्तादुत मध्यमो नो
वाजो देवान् हविषा वर्धयाति।
वाजो हि मा सर्ववीरं चकार
सर्वा आशा वाजपतिर्भवेयम्।।86
अर्थात् अन्न हमारे आगे हो और अन्न ही हमारे पीछे हो तथा वह अन्न ही हमारे मध्य में भी हो। अन्न ही देवताओं को हवि के द्वारा बढ़ाता है। अन्न ही मुझे वीर पुत्र पौत्रादि से युक्त करता है। अन्न का स्वामी बनकर मैं सब दिशाओं में कीर्ति वाला हो जाऊँ।
यजुर्वेद वाङ्मय में स्थान-स्थान पर शुद्ध, पौष्टिक, आरोग्यदायक, आयुवर्धक, बुद्धिवर्धक एवं स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों का सेवन करने पर बल दिया गया है।
यजुर्वेद में दूध दही से युक्त भोजन करने का उल्लेख है-
यव्ये गव्यं एतदन्नमत।69
शतपथ ब्राह्मण में दूध को पूर्ण अन्न कहा गया है-
तद्वै पय एवान्नम्।
एतद् हि अग्रे प्रजापतिरन्नमजनयत।।70
सभी अन्नों में प्राप्त रस दूध में होने से इसे रस कहा गया है-
रसो वै पयऽऊर्जस्वती रसेनान्नेन।।71
दूध के लिए मेधा शक्ति वाला भोजन होने का भी उल्लेख है-
मेधो वै पयः।।72
सन्दर्भ सूची
56. बृहदारण्यकोपनिषद् 1.5.1
57. बृहदारण्यकोपनिषद् 1.5.2
58. तैत्तिरीयोपनिषद् 1.5.1
59. शतपथ ब्राह्मण 7.5.1.20
60. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली-2
61. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली-2
62. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली-2
63. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली-2
64. तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.8.8.3
65. यजुर्वेद संहिता 18.31
66. यजुर्वेद संहिता 18.32
67. यजुर्वेद संहिता 18.33
68. यजुर्वेद संहिता 18.34
69. यजुर्वेद संहिता 23.8
70. शतपथ ब्राह्मण 2.5.1.6
71. शतपथ ब्राह्मण 7.2.2.10
72. शतपथ ब्राह्मण 2.5.3.4
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