जीवन एक गहन पहेली है। घोर संघर्ष, विचारों और आदर्शों का एक अन्तर्द्वद्व है। इसकी जंजीर में कड़ियों के समान एक में एक गुथी हुई दूसरी अनेक समस्याएं हैं। दुःख-सुख, जन्म-मरण, वृद्धि-ह्रास इत्यादि धूप-छांव कपड़े की चमक जैसी इसकी प्रतीतियॉं हैं। इसका बाह्य रूप बड़ा भयंकर तथा विषादपूर्ण दीखता है। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में बादलों से ढका हुआ सूर्य अन्तरिक्ष पर चढ़ता हुआ मेघों के पर्त के पर्त चीरता जाता है और अन्ततोगत्वा शरद् ऋतु में निर्मल आकाश में पूर्ण आभा के साथ विचरण करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार जीवात्मा अनेक शरीरों में पंच कोषों से घिरा रहकर संसार की अनेक घटनाओं और संघर्षों मेें होता हुआ जीवन पथ पर अग्रसर होता हुआ अन्त में सब प्रकार की द्वन्द्वात्माक विघ्न-बाधाओं से रहित चित्ताकाश में सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता है।
बाह्य दृष्टि से वर्षा ऋतु में सूर्य और तिमिरावरण से युक्त मेघों में द्वन्द्व युद्ध सा होता हुआ प्रतीत होता है। परन्तु सूर्य की दृष्टि में उन काले और गहरे मेघों का कभी कोई अस्तित्व नहीं रहा। सूर्य सदा अपनी पूर्ण आभा में ही चमकता रहा है, उसमें कभी किसी प्रकार की बाधा नहीं आई। इस सत्य को और अधिक स्पष्ट करने के लिये हम यहॉं सूर्यग्रहण का उदाहरण लेते हैं। जब सूर्यग्रहण होता है, तब सूर्य अंशतः अथवा पूर्णतः कुछ काल के लिये काला दिखाई देता है। परन्तु ज्योतिर्विद बतलाते हैं कि यह कालापन हमारी आंख और सूर्य के बीच पृथ्वी की परछाई आ जाने के कारण दीखता है। वस्तुतः सूर्य मंडल में किसी प्रकार की कालिमा नहीं आती। सूर्य में ग्रहण देखना हमारी दृष्टि का दोष है। सूर्य के लिये उस परछाई का कभी कोई अस्तित्व नहीं रहा।
इसी प्रकार हमारे जीवन के संघर्ष, क्लेश अथवा विषाद हमारे द्वारा बाह्य दृष्टि से देखने के कारण प्रतीत होते है। यदि किसी प्रकार हम अपने दृष्टिकोण को बदल सकें और उसे बाहर से अन्दर की ओर मोड़ने में सफल हो जायें, तो हमारे जीवन के दुःख-क्लेश-शोक-सन्ताप-अवसाद तथा अभिनिवेश और जीवन के काले धब्बे सूर्यग्रहण के समान अर्थहीन हो जायें, इसमें कोई सन्देह नहीं।
आज के मानव की शिक्षा-दीक्षा कुछ इस ढंग की हुई है कि उसका दृष्टिकोण अधिकांश में बाहर की ओर ही रहता है। उसको एक दिशा का ही ज्ञान है। वह नहीं समझता कि पूर्ण जीवन एकदिशा में ही प्रवाहित नहीं होता, वरन् सर्वदिशाओं को साथ घेरता हुआ एक विशिष्ट दिशा की ओर जिधर सच्चिदानन्द है, जा रहा है।
सामान्यतः जिसे हम जीवन कहते हैं, वह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन का केवल एक अंश मात्र है। हम इस प्रकार अपने सम्पूर्ण जीवन के अधिकांश भाग से तो सर्वथा अनभिज्ञ ही बने रहते हैं। तब यदि हम सम्पूर्ण जीवन को समझना चाहते हैं, तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपनी दृष्टि को व्यवहार क्षेत्र तक ही सीमित न रखें, वरन् मानसिक तथा आत्मिक व्यापारों को जो हृदय और अन्तस्थल में हो रहे हैं, चेतना से प्रकाशित करें। जब तक मानव-दृष्टि बाह्य विषयों से हटकर भीतर की ओर नहीं लौटती, तब तक वह अपने सब अवसादों के मूल कारण को जानने में सदा असमर्थ ही रहेगी। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन तथा उसके तथ्य दृष्टि से ओझल बने रहेंगे।
इस प्रकार अन्तर्दृष्टि होने से ही हम यह समझ सकेंगे कि हमारा व्यक्तिगत जीवन और उसकी सब प्रकार की अनुभूतियां पूरी जंजीर की एक कड़ी मात्र हैं। यदि हम अपने व्यक्तिगत जीवन को एक छोटी तैरती हुई मछली व नौका समझें और सम्पूर्ण जीवन को नदी का प्रवाह, तो हमें यह समझने में कठिनाई नहीं होगी कि सम्पूर्ण जीवन ही हमारे इस व्यक्तिगत जीवन का आधार है और सम्पूर्ण जीवन के बिना हमारे निजी जीवन का कुछ अर्थ नहीं रह जाता है। हमारे इस निजी जीवन की सफलता इसी में है कि हम इस जीवन को अपने सम्पूर्ण जीवन के अनुकूल बनावें और उसमें तारतम्यता उत्पन्न करें।
यदि उस सम्पूर्ण जीवन प्रवाह में आपके निजी जीवन की नौका भंवरों में अटकी पड़ी है और उसकी प्रगति रुक गई है, तो समझ लीजियेकि यह भंवर आपकी उत्पन्न की हुई समस्याओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। सम्पूर्ण जीवन तो आनन्दार्णव की ओर बह रहा है और उसके प्रवाह की गति इतनी क्रमबद्ध, त्वरित और तालबद्ध है कि उसमें रुकावट की कोई सम्भावना नहीं की जा सकती।
हमें सदा के लिये समझ लेना चाहिये कि हमारे सब प्रकार के विषाद और अवसाद हमारी अपनी उत्पन्न की हुई समस्याओं के फल हैं तथा हमारी समस्यायें उस दोषपूर्ण दृष्टिकोण के कारण हैं, जिसके फलस्वरूप हम अपने व्यक्तिगत जीवन को उस सम्पूर्ण प्रवाह के प्रतिकूल करके चलाते हैं। ऐसी दशा में हमें केवल असफलता के अतिरिक्त और क्या मिलेगा? अतः जब तक हम अपने दृष्टिकोण को बदलकर अपने विचार और प्रयत्न उस महान् प्रवाह के अनुकूल नहीं बना लेते, तब तक हमारी निजी समस्याओं के सुलझने की कोई आशा नहीं।
जब हम उसके अनुकूल हो जायेंगे, तब हमें ऐसा लगेगा कि जीवन की प्रत्येक समस्या, प्रवाह का प्रत्येक भंवर और जीवन की समस्त बाधायें तथा अवसाद हमें उस महान् प्रवाह की ओर ले जाने तथा उसके अनुकूल और अनुरूप बनाने के लिये कितने आवश्यक हैं! तब हमें ऐसा प्रतीत होगा कि उनमें से प्रत्येक समस्या उस सीढ़ी का एक हिस्सा है जो जीवन पथ की सफलता के शिखर तक जाती है।
इससे यह भली भांति प्रतीत होता है कि जीवन में संघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व तथा विफलताएं और असफलतायें जीवन की प्रगति में सजगता तथा सफलता लाने के लिए कितनी आवश्यक शर्तें हैं! हमारे जीवन की जितनी कठिन और जितनी जटिल समस्या है, अनुपाततः हमारे लिये आगे बढ़ने की उतनी ही बड़ी चुनौती है। पथ पर आगे बढ़ते हुए जीवनरूपी अश्व जितनी दृढ़ता से अड़ता है, सवार का चाबुक उतनी ही कू्ररता से उसकी पीठ पर पड़कर उसे प्रगति के लिए बाध्य करता है। -डॉ. रामस्वरूप गुप्त, दिव्ययुग जुलाई 2009 इन्दौर, Divyayug july 2009 Indore
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
वेद सन्देश - पहले ज्ञान फिर कर्म
Ved Katha Pravachan -104 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव