वैदिक धर्म में स्वाध्याय की प्रधानता और महिमा है। ब्रह्मचर्य की समाप्ति पर तथा समावर्तन के समय स्नातक को आचार्य एक उपदेश देता है- "स्वाध्यायान्मा प्रमदः' और "स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्' अर्थात् अपने जीवन में कभी भी स्वाध्याय और प्रवचन (सुनने और सुनाने) से प्रमाद (आलस्य) नहीं करना। ये वाक्य केवल ब्रह्मचारी के लिए ही नहीं, अपितु सब मनुष्यों पर लागू हैं। क्योंकि स्वाध्याय के अभाव में मनुष्य विद्या प्राप्ति से वंचित रह जाता है।
श्रावणी उपाकर्म एवं ऋषि तर्पण- श्रवणा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है, इसलिए इसका नाम "श्रावणी (सावनी) पर्व' है। यह परम्परा आधुनिक नहीं है, अपितु वैदिक काल से प्रचलित है। श्रावणी आर्यों का एक महत्वपूर्ण पर्व है। क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध वेदाध्ययन से है। वर्षाऋतु के चार मास के अन्तर्गत विशेषरूप से पारायण यज्ञों का आयोजन किया जाता है। सब वर्ण के लोग इस चौमासे के दौरान विश्राम करते हैं अर्थात् सब के कार्यक्षेत्र में शान्ति होती है। व्यवसाय में भी शिथिलता होती है तथा इस काल में कृषियों को भी अवकाश रहता है और संन्यासियों के लिए भी बारिश के मौसम में गृहस्थियों के पास जाने का सुअवसर प्राप्त होता है। क्योेंकि शेष महीनों में वे ग्रामों तथा बड़े नगरों से दूर अपने आश्रमों में स्वाध्याय एवं साधनादि के कार्यों में व्यस्त रहते हैं तथा चौमासे में वर्षा के कारण अरण्य और वनस्थली को छोड़कर ग्रामों और नगरों में रहकर वेदाध्ययन, धर्मोपदेश तथा धर्मचर्चा करते हैं। इससे उनके समय का सदुपयोग भी होता है। श्रद्धालु श्रोतागण महात्माओं, सन्तों तथा विद्वानों के आगमन से प्रसन्न होते हैं तथा उनके प्रवचनों से लाभ उठाते हैं। यही ऋषि तर्पण है अर्थात् स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों की पूजा यानी आज्ञा मानना तथा उनकी बात मानकर स्वयं स्वाध्याय करनाऔर ऋषियों-मुनियों-विद्वानों की आवश्यकताओं की पूर्ति करके उन्हें प्रसन्न करना भी उनका तर्पण है।
"पर्व' कहते हैं पूरक तथा ग्रन्थी को। श्रावणी पर्व जीवन में आनन्द भर देता है तथा ग्रन्थी होने से उसकी रक्षा भी करता है। जिस प्रकार गन्ने में ग्रन्थियों के कारण ही मधुर रस सुरक्षित रहता है, वैसे ही वैदिक पर्व मनुष्य के जीवन में संस्कृति और सभ्यता को बनाये रखते हैं। श्रावणी पर्व में क्योेंकि स्वाध्याय का विशेष महत्व है, अतः श्रावणीपर्व में वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय का विशेष उपाकर्म अर्थात् प्रारम्भ करना चाहिएऔर जिसका समापन अर्थात् "उत्सर्जन' साढ़े चार महीनों के पश्चात् किया जाता है। ऋषियों का तृप्तिकारक होने के कारण पीछे से उपाकर्म का नाम ऋषितर्पण पड़ गया।
वैदिक काल में सब लोग वेद तथा आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय करते थे, कभी प्रमाद नहीं करते थे। कालान्तर में विशेषकर वर्तमान से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध के पश्चात् वेदों के पठन-पाठन में शिथिलता आने लगी। वैदिक विद्वानों तथा श्रद्धालु श्रोताजनों का अभाव होने लगा और लोगों की स्वाध्याय करने की प्रवृत्ति लुप्त होती गई। इसके परिणामस्वरूप आधुनिक समाज में अनेक स्वार्थी लुटेरों ने अनगिनत पाखण्डों को जन्म दिया। अतः भोले-भाले, सीधे-सादे लोगों में अनेक प्रकार के अन्धविश्वास तथा अन्धश्रद्धाओं जैसे शत्रुओं ने घर कर लिया। यह सब स्वाध्याय की कमी के कारण होता है। आज भी यदि जन साधारण में स्वाध्याय की प्रवृत्ति जागृत हो जावे, तो समाज में फैलते हुए पाखण्डों को रोका जा सकता है तथा धर्म के नाम पर धर्मभक्षकों को सबक सिखाया जा सकता है।
वर्तमान में "ऋषितर्पण' लोप हो चुका है तथा उसके नाम पर अनेक प्रकार के पाखण्ड और अन्धविश्वास चल पड़े हैं। जैसे श्रावणी के दिनों में सापों को दूध पिलाना, नदी अथवा तालाबों में जाकर स्नानादि करना, घर की दीवारों पर श्रावण की काल्पनिक मूर्तियॉं बनाकर उनको सेवियॉं खिलाना.....इत्यादि। नामसमझी की हद हो गई है।
स्वाध्याय में प्रमादता के कारण ही हम साधु, सन्त, महात्मा, गुरु इत्यादि की पहचान करने में असमर्थ होते हैं। वर्तमान में हर गली-कूचे में तथाकथित गुरु, सन्त, साधु, महात्मादि अपनी दुकानें चला
रहे हैं।
यज्ञोपवीत और श्रावणी- गृह्यसूत्र के आधार पर परिपाटी रही है कि प्रत्येक प्रधान उत्तम यज्ञ-याग आदि कर्मों के समय नया यज्ञोपवीत धारण किया जाये। वर्तमान के इस मशीनी काल में समय के अभाव के कारण "वेद पारायण' का धीरे-धीरे अभाव होता जा रहा है तथा वेद पारायण की परिपाटी समाप्त सी हो गई है। "श्रावणीपर्व' का "उपाकर्म' तथा "उत्सर्जन' एक ही दिन मनाया जाता है। उसी दिन पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नए यज्ञोपवीत को धारण करने की प्रथा चल पड़ी है।
"यज्ञोपवीत' का महत्व हिन्दू समाज के प्रायः सभी वर्ग के महानुभाव जानते हैं और विशेषतः सब वैदिकधर्मी यज्ञोपवीत को धारण करते हैं और प्रसन्नता की बात है कि जो हिन्दू यज्ञोपवीत को धारण नहीं करते, वे भी इसका आदर करते हैं।
रक्षाबन्धन और श्रावणी- इतिहास गवाह है कि श्रावणी पर्व के दौरान चित्तौड़ की "महारानी कर्णावती' ने अपनी रक्षार्थ मुगल बादशाह हुमायूँ को भाई मानकर उससे सहायता मांगी थी और भाई-बहन के स्मृति चिन्ह के रूप में राखी भेजी थी। हुमायूँ ने राखी की लाज रखी और भाई के नाते अपना कर्त्तव्य निभाया तथा बहादुरशाह पर आक्रमण करके कर्णावती की सहायता की और चित्तौड़ को बचाया।
तब से यह प्रथा चल पड़ी और अब तो यह फैशन बन गया है कि बहनें भाइयों तथा पिता की कलाई पर राखी बांधती हैं और उपहार प्राप्त करती हैं। रक्षाबन्धन का चलन एक स्वस्थ परम्परा बन गई है, जिससे एक ओर भाई-बहन का विश्वास और प्रेम सुदृढ़ होता है तथा दूसरी ओर लड़कियॉं/महिलाएँ अन्य पुरुषों को अपना भाई बनाकर समाज में पनपती कुरीतियों को समाप्त करने में सहायता कर रही हैं। रक्षाबन्धन के त्यौहार के कारण विभिन्न सम्प्रदायों के बीच भाई-चारे का वातावरण भी बनता है और आपसी विश्वास का रिश्ता मजबूत होता है। मदन रहेजा
दिव्य युग अगस्त 2009 इन्दौर, Divya yug August 2009 Indore
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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Ved Katha Pravachan -101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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