प्रश्न किया जा सकता है कि एकाएक हमारे भाव परिवर्तन का क्या कारण है? मित्र को शत्रु बनाने में मनोमालिन्य कारण बना, यह सही है। परन्तु मनोमालिन्य कहॉं से और क्यों आ गया, यह समझ में नहीं आता। इसका उत्तर उदाहरण द्वारा देने का प्रयत्न किया जा रहा है।
कल्पना कीजिये कि आप सायंकाल वायुसेवन के लिये बाहर निकले हैं। सड़क पर पास ही आपको एक काला सर्प दिखाई दिया। देखते ही भय से आपके रोंगटे खड़े हो गये। सारा शरीर कम्पायमान होकर पसीने से भर गए। आपके मुंह से एक चीख निकली और आप भाग खड़े हुये। आपके मित्र ने आपको पकड़कर किसी प्रकार रोका और इस सबका कारण पूछा। उत्तर में आपने सांप की ओर निर्देश किया और नाम लेकर कुछ परिचय भी दिया। आपके मित्र ने दियासलाई जलाकर देखा और रस्सी का टुकड़ा उठाकर आपके सम्मुख डाल दिया। थोड़ी देर पश्चात् आप स्वस्थ हो गये और आप में प्रसन्नता भी पूर्ववत् लौट आई।
इस घटना का विश्लेषण करने पर आपको ज्ञात होगा कि सांप की आकृति, स्वभाव, उसका दंश, उसके साथ विष का सम्बन्ध, ये सबके सब समष्टि रूप से आपके मन में बहुत पहले ही से अंकित थे। इसी प्रकार रस्सी की आकृति, उसका हानिरहित स्वभाव भी आपके मन में पूर्व परिचित थे। आपके मन ने अंधेरे (अविद्या) के कारण अज्ञानवश सर्प के गुण और स्वभाव, आकृति की समानता से, रस्सी में आरोपित कर दिये थे। और इस प्रकार आप में भय का संचार हुआ था। भय का सम्बन्ध सॉंप की आकृति, गुण और स्वभाव के साथ आपने मन में पहले ही जोड़कर रखा हुआ था। जब प्रकाश में आपने रस्सी को पहचाना तो भय का सम्बन्ध, जो सर्प के गुण-स्वभाव तथा आकृति से हो गया था, टूट गया और भय पलायन कर गया तथा उसका स्थान निर्भयता ने ले लिया। इस प्रकार हमने जाना कि आपके उस प्रकार भयग्रसित होने में पूर्व-ज्ञान (संस्कार) और अज्ञान अथवा भ्रम ये दो कारण थे। दृष्टिकोण अथवा भाव परिवर्तन के लिये हमारा पूर्व-ज्ञान अथवा संस्कार पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं और भ्रम व सन्देह नैमित्तिक कारण बन जाते हैं। यदि हमें इस प्रकार बदले हुये अपने भावों को पुनः बदलना अभीष्ट है, तो हमें सन्देह को ज्ञान द्वारा और संस्कार को निश्चय के अभ्यास द्वारा दूर करना होगा। जितने दृढ़ हमारे संस्कार होते हैं, उनको बदलने के लिये उतने ही दृढ़ निश्चय की और उतने ही लम्बे अभ्यास की हमें आवश्यकता होती है।
जो कल तक हमारा मित्र था, आज हमारा शत्रु है। क्योंकि शत्रुता के भाव हमने मन में एक विशेष चित्र व आकृति के साथ जोड़कर अंकित कर लिये थे और वे वहॉं मन में पहले से ही संस्कारों के रूप में उपस्थित थे। सन्देह ने शत्रुता के भावों को मित्र पर आरोपित करके शत्रु बनाने में योग प्रदान किया।
क्या आप सफलता के इच्छुक हैं? क्या आपने उन सब उपायों को, जो सफलता लाने में अमोघ तथा रामबाण प्रमाणित हो चुके हैं, उपयोग करने का प्रण कर लिया है? क्या आप अपने मन को आदेश देंगे कि मैं समृद्धिशाली बनूंगा, मैं कीर्तिमान बनूंगा, मैं गुणवान बनूंगा, और मैं शक्तिशाली बनूंगा। क्या आपने संसार से और अपने चारों ओर से भी दरिद्रता, रोग, अपयश, विनाश और संघर्ष तथा निर्बलता के समस्त चिन्हों को मिटा देने की प्रतिज्ञा कर ली है? यदि हॉं, तो आप विज्ञानमयी विचार की पृष्ठभूमि पर अपनी कल्पना को इतने स्पष्ट, इतने सुन्दर और इतने प्रकाशपूर्ण चित्र-चित्रित करने की आज्ञा प्रदान करेंगे कि जिससे वे आशा के विविध रंगों से रंगकर वास्तविकता में चमक जाएं। और क्या इसके लिये आप अपनी कल्पना शक्ति को ऐसे पंख प्रदान करेंगे, जो ब्रह्मा की कल्पना से होड़ लगा सके। समझ रखिये कि विचारों में ही भविष्य की समस्त सामग्री छिपी रखी है, जिससे आप विश्वासपूर्वक अपनी साध पूरी कर सकते हैं। -डॉ. रामस्वरूप गुप्त
दिव्य युग अक्टूबर 2009 इन्दौर, Divya yug October 2009 Indore
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Ved Katha Pravachan -100 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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