उत्तर वैदिक काल में लक्ष्मीपूजा, दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा आदि पर्वोत्सव अपने बीज रूप में मातृपूजा की ही परम्परा के विकसित और विविधांगी रूप हैं। संसार की सभी जातियों में मातृपूजा की परम्परायें मिलती हैं। मोहनजोदड़ो में जो मृण्मूर्तियॉं मिली हैं, मिस्र और बेबीलोन की खुदाई में "माता-आइसिस' और "मॉं इश्तर' के जो ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं, वे सब मातृदेवी की पूजा-आराधना के प्रमाण हैं। ऋग्वेद में तीन देवियों की आराधना का उपदेश है-
इला सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः।
इला (भाषा, मातृभाषा), सरस्वती (ज्ञान, विद्या) और मही (भूमि, मातृभूमि) इन तीनों कल्याणी देवियों को हम सदैव अपने अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करें।
ऋग्वेद में "श्री' शब्द तेज या कांति के रूप में प्रयुक्त हुआ है। एक स्थान पर "श्री' शब्द "लक्ष्मी' के अर्थ में भी पाया जाता है। इसी प्रकार एक मन्त्र में "लक्ष्मी' शब्द "धन' के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। मन्त्र कहता है- जो धीर चलनी में सतू की तरह शब्दों को छान-छानकर प्रयुक्त करते हैं, उनकी वाणी में लक्ष्मी निवास करती हैं-
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो,
यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते,
भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधिवाचि।
ऋग्वेद का एक भाग जहॉं उषा को समर्पित है, वहॉं पर अदिति, सरस्वती और अरण्यानी का वर्चस्व है। ऋग्वेद का एक परिशिष्ट (खिल) भी है, जिसका एक अंश "श्रीसूक्त' है। शब्द-शक्ति की दृष्टि से श्रीसूक्त को महर्षि अरविन्द विश्व का सर्वश्रेष्ठ देव-स्तोत्र मानते हैं। इस सूक्त के 26वें मन्त्र में लक्ष्मी गायत्री मन्त्र का अंश इस प्रकार है-
महालक्ष्म्यै च वद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 155वें सूक्त में "अलक्ष्मी' अर्थात् "दरिद्रता' की भर्त्सना है। स्तोता तिरस्कार के शब्दों में कहता है-
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्।
तदा रमस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम्।। (ऋग्वेद 10.155.3)
अर्थात् हे अलक्ष्मी! विकृतांगी दरिद्री यह जो लकड़ी का ठूंठ समुद्र में असहाय थपेड़े खा रहा है, तुम उसी पर बैठकर समुद्र के उस पार भाग जाओ।
वेदों में पृथ्वी भी कहीं-कहीं लक्ष्मी अर्थ में प्रयुक्त हुई है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी का सम्बोधन "महीमाता' भी है। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में भी धरतीमाता लक्ष्मीरूपा हो गई है। किन्तु विष्णुलक्ष्मी का विकास असल में पौराणिक काल की देन है। सागर मन्थन में प्राप्त चौदह रत्नों में एक लक्ष्मी थी। लक्ष्मी को देखते ही देव और दैत्य उसके रूप लावण्य पर मोहित हो गये। तरह-तरह की भेटें लेकर सब लक्ष्मी को प्रसन्न करने दौड़ पड़े। समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र दिये, वरुण ने वैजयन्ती माला दी, उषा ने अपनी स्वर्णकांति दी, सरस्वती ने अपना रत्नहार उसके गले में पहना दिया। बात-की-बात में लक्ष्मी दिव्याभूषणों और अलंकारों से सुसज्ज हो गई। मुग्ध देवताओं ने भावविभोर होकर लक्ष्मी की स्तुति की। रूप सौन्दर्य विमोहित वाणी से प्रसूत यही काव्य "श्रीसूक्त' के नाम से प्रख्यात है। पंक्तियॉं इस प्रकार हैं-
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकाराम् आर्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मो स्थितां पद्मवर्णां तामिहपिह्वये श्रियम्।
जो मन्द-मन्द मुस्कुराने वाली, स्वर्णाभरण से आदृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, भक्तानुग्रहकारिणी, कमलासना, पद्मवर्णा है, उन लक्ष्मी देवी का मैं यहॉं आह्वान कर रहा हूँ।
उपैतु मां देवसुखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतो सुराट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।
हे देवी! तुमने अपनी दया से कुबेर को देवताओें का सखा बनाया है। कुबेर के कोष तथा चिन्तामणि से ऐश्वर्ययुक्त होकर हमारे में वास करो। हे कीर्तिमती! यहॉं आओ हमारे राष्ट्र की कीर्ति को बढ़ाओ। हमारा राष्ट्र ऋद्धि-सिद्धि से सम्पन्न हो।
स्वयंवर में लक्ष्मी किस देवता का वरण करेगी, सभी लालायित देवगण आतुर प्रतीक्षा कर रहे थे। केवल विष्णु लक्ष्मी के सौन्दर्य से मुक्त थे। विरक्त भाव से वे क्षीरसागर में सो गये। विष्णु की "पद्मपत्रमिवाम्भसा' अनासक्ति ने लक्ष्मी का मन मोह लिया। उसने अपनी पद्मपुष्प की वरमाला विष्णु के गले में डाल दी। विष्णु ने भी प्रेम से लक्ष्मी को अपने हृदय कमल में निवास दे दिया। इसी से लक्ष्मी पद्मा, पद्मासना, पद्मानना, पद्महस्ता आदि नामों से सम्बोधित की जाने लगी। पद्म अर्थात् कमल के साथ एकरूप होकर लक्ष्मी भारतीय संस्कृति की तत्त्वात्मा बन गई। कमल भारतीय जीवनदर्शन का- "तेन त्यक्तेन भुंजीथाः' (त्याग के साथ जीवनयापन) वाली संस्कृति का सर्वस्वीकृत और सार्वकालिक प्रतीक है। लक्ष्मी-विष्णु का परिणय भी अनासक्ति (विष्णु) के द्वारा अनुरक्ति (लक्ष्मी) की स्वीकृति के रूप में ही है। क्योंकि विष्णु अनासक्त भोग ऐश्वर्य के देवता हैं और धन-सम्पदा का अनासक्त भोग ही परम सुख की खान है। अनासक्त ऐश्वर्य भोग (परोपकार) से बड़ा कोई धन नहीं। यही हमारी संस्कृति का सनातन उद्घोष है।
हमारी विकास-परम्परा में ज्यों-ज्यों हमारे संकल्प और जीवन-मूल्य बदलते गये, श्री-सौहार्द-सम्पन्नता की देवी लक्ष्मी के रूप भी हमारी आकांक्षाओं के नये-नये सांचों में ढलते गये। पुरुषार्थ-पराक्रम-निवासिनी सर्वमांगल्य-मंगला माता आज केवल धन की देवी बनकर रह गई है। क्योंकि आज धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में अर्थ को ही सर्वोपरि प्रतिष्ठा दी जा रही है। सरस्वती ने सागर-कन्या लक्ष्मी को अपने गले का रत्नहार पहनाया था। किन्तु बाद में लगता है कि दोनों में वैमनस्य पैदा हो गया। मन की दूरी बढ़ती गई। लोक विश्वास में आज भी स्थिति ऐसी ही है।
महाकवि कालिदास को लक्ष्मी ओर सरस्वती का यह मनमुटाव काफी खला था। अपने नाटक "विक्रमोर्वशीयम्' के "भरतवाक्यम्' में उन्होंने नाटक के नायक पुरुरवा के माध्यम द्वारा इन्द्र से जो वर मांगा था, उसमें उनकी यह मर्मव्यथा बोल रही है। सच ही तो है, बरसों से चली आ रही लोक-वेदना को कविर्मनीषी कालिदास की वाणी में ही स्वर नहीं मिलता तो और कहॉं मिलता? लक्ष्मी-पूजा के पर्व पर कालिदास की इस लोकमंगल कामना का आज और भी अधिक औचित्य है-
"जिस लक्ष्मी और सरस्वती का एक साथ निवास अत्यन्त दुर्लभ कहा जाता है, अब वे दोनों देवियॉं लोक-कल्याण के लिए एक साथ निवास करने लगें। सबके दुःख-दरिद्रता दूर हों, सब फूलें-फलें, सबके मनोरथ पूर्ण हों और सुख ही सुख फैल जाए।'' रतनलाल जोशी
दिव्य युग अक्टूबर 2009 इन्दौर, Divya yug October 2009 Indore
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Ved Katha Pravachan -99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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