कार्तिक अमावस्या को हिन्दू जाति बड़ी धूमधाम से दीपावली का त्यौहार मनाती है। इस अवसर पर प्रायः सभी घरों में दीपमालाएं जलाई जाती हैं। कुछ लोग लक्ष्मी पूजन भी करते हैं। जैनमत के प्रवर्तक महावीर स्वामी का निर्वाण भी इसी दिन हुआ था।
कुछ लोगों की यह मान्यता है कि श्रीराम के वनवास से पुरागमन वा राज्याभिषेक पर अयोध्या में जो उल्लास द्योतक सजावट की गई थी, विशेष दीपमालाएँ जलाई गई, तब से इस अवसर पर दीपमालायें करने का आरम्भ हुआ है।
इस अमावस्या से पूर्व शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को दशहरा (विजयादशमी) मनायी जाती है। इस दिन सांयकाल रावण, मेघनाद व कुम्भकर्ण के पुतले जलाकर यह प्रकट किया जाता है कि राक्षस पक्ष की हार हो गई और श्रीराम पक्ष की विजय। उससे अगले दिन श्रीराम, सीता व लक्ष्मण की अयोध्या वापसी पर भरत, शत्रुघ्नादि से मिलाप और राज्यग्रहण दिखाकर त्यौहार की समाप्ति की जाती है।
विभीषण के लंकेश पद ग्रहण करने और सीता जी के श्रीराम मिलन होने पर विभीषण ने श्रीराम से प्रार्थना की कि अब आप राजोचित श़ृंगार से विभूषित हो जाइए, तदर्थ सब प्रबन्ध किया गया है। श्रीराम ने कहा कि आप सुग्रीव श्रेष्ठ वानरों का समादर कीजिए। अपने सम्बन्ध में उन्होंने कहा-
स तु ताम्यति धर्मात्मा मम हेतोः सुखोचितः।
सुकुमारो महाबाहुर्भरतः सत्य संश्रय।।
तं विना कैकयीपुत्रं भरतं धर्मचारिणम्।
न मे स्नानं बहुमतं वस्त्राण्याभरणानि च।।
(वा. रा. युद्धकाण्ड 121/5.6)
सत्याश्रित, धर्मात्मा, महाबाहु भरत मेरे कारण बहुत कष्ट सहन कर रहा है। वह सुकुमार सुख पाने योग्य है। धर्माचरण-रत कैकेयीपुत्र भरत से मिले बिना न तो मुझे स्नान अच्छा लगता है और न ही आभूषणादि धारण करना। अब तो आप मेरे अयोध्या जाने का प्रबन्ध कीजिए।
विभीषण ने प्रत्युत्तर दिया कि भगवन् आपको एक दिन में पुष्पक विमान से वहॉं पहुंचा दूंगा। आप सीता व लक्ष्मण के साथ कुछ दिन यहॉं रहकर मुझे कृतार्थ कीजिए। पर श्रीराम ने कहा कि अब तो मैं भरत के पास शीघ्र ही जाना चाहता हूँ। निदान, पुष्पक विमान प्रस्तुत हुआ और श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, श्रेष्ठ वानर व विभीषणादि ने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। शुक्लपक्ष की दशमी तिथि के बाद प्रस्थान की किसी तिथि का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलता।
पुष्पक विमान आकाश मार्ग से चला और भारद्वाजाश्रम के पास पहुंचा तो श्रीराम ने हनुमान जी को स्वमित्र गुह व भरत को अपनी पहुंच की सूचनार्थ रवाना किया।
भरत के सम्बन्ध में राम ने हनुमान को जो आदेश दिया वह उल्लेखनीय है। श्रीराम ने कहा कि मेरे लंकायुद्ध में विजय प्राप्ति व वनवासावधि के पूर्ण होने पर अयोध्या वापसी का भरत को समाचार देना।
ज्ञेया सर्वे च वृत्तान्ता भरतस्येंगितानि च।
तत्वेन मुखघर्णेन, दृष्ट्या व्याभाषितेन च।।
संगत्या, भरतः श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत्।
प्रशास्तु वसुधां सर्वमखिलां रघुनन्दनः।।
(वा. रा. युद्धकाण्ड 125.15-17)
वहॉं के सारे वृत्तान्त भरत की चेष्टायें, मुखाकृति, दृष्टि और बातचीत से जो भाव दिखाईं पड़ें, जानने का प्रयत्न करना। यदि भरत चिरराज्य वैभव का संसर्ग होने से राज्य करने का स्वयं इच्छुक प्रतीत हो, तो निश्शंक होकर वह समस्त भूमण्डल का राज्य करे। मुझे राज्य नहीं चाहिए। मैं किसी अन्य स्थान पर रहकर तपस्वी जीवन व्यतीत करूंगा।
विमान भरद्वाजाश्रम में उतरा। चौदह वर्ष पूर्ण होने पर पंचमी तिथि को भरद्वाजाश्रम में पहुंचकर लक्ष्मण के साथ श्रीराम ने भरद्वाज मुनि को प्रणाम किया। फिर उन्हें वनवास की बातें बताई और भरत व अयोध्या सम्बन्धी समाचार पूछा। (यहॉं पर श्रीराम के कृष्णपक्ष की पंचमी तिथि को भरद्वाजाश्रम पहुंचने का उल्लेख है)। भरद्वाज मुनि ने कहा कि मेरे प्रवृत्ति नाम के शिष्य यहॉं से अयोध्यापुरी जाते रहते हैं। आज मेरा अर्घ्य और आतिथ्य ग्रहण कीजिए, कल अयोध्या जाइयेगा। श्रीराम ने मुनिवर की आज्ञा मान ली और अगले दिन कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को प्रस्थान किया। उधर हनुमान श्रीराम के मित्र गुह से मिलने के बाद भरत के पास नन्दिग्राम पहुंचे।
हनुमान ने भरत को श्रीराम के आगमन की सूचना दी। यह सुनकर भरत आनन्दविभोर होकर मूर्छित होकर गिर पड़े। पुनः होश में आने पर शिष्टाचार के बाद कहा-
तां गंगा पुनरासाद्य वसन्तं मुनि सन्निधौ।
अविघ्नं पुष्ययोगेन श्वो रामं द्रष्टुमहर्सि।। (126.54)
वहॉं से फिर गंगा तट पर आकर मुनि भारद्वाज के आश्रम में वास करने के बाद पुष्य नक्षत्र के योग में बिना किसी विघ्न-बाधा के श्रीराम के दर्शन करेंगे।
इस श्लोक में श्रीराम से अगले दिन कृष्णपक्ष षष्ठी अथवा सप्तमी तिथि के पुष्य नक्षत्र के योग में भरत के मिलने का वर्णन है। भरत ने यह शुभ समाचार शत्रुघ्न व अन्य अयोध्यावासियों को दिया। तदनुसार श्रीराम नन्दिग्राम पहुंचे।
इसके अनुसार श्रीराम का नन्दिग्राम में कृष्णपक्ष की षष्ठी व सप्तमी तिथि के पुष्ययोग में आगमन हुआ। अभी अमावस्या आने में 8-9 दिन की देर है। स्पष्ट है कि दीपावली का त्यौहार दीपमालाओं सहित श्रीराम के वनवास से अयोध्या पुनरागमन पर नहीं मनाया गया।
फिर क्या यह त्यौहार श्रीराम के राज्याभिषेक पर मनाया गया?
राम, सीता, लक्ष्मण व अन्य साथी विमान से नन्दिग्राम में उतरे। गुरु वसिष्ठ, माताओं व अन्य श्रेष्ठ नागरिकों से मिले। तदनन्तर धर्मज्ञ भरत ने श्रीराम की पादुकायें स्वयं ले जाकर राजा राम के चरणों में पहनाई और हाथ जोड़कर कहा- ""हे राजन्! यह है आपका समस्त राज्य जो मेरे पास धरोहर के रूप में था। वह मैंने अब लौटा दिया। मेरा मनोरथ पूरा हुआ व मेरा जन्म भी सफल हुआ जो आज अयोध्या नरेश को अयोध्या में वापिस आया हुआ देख रहा हूँ। आप भण्डार घर और सैन्य गृह देख लें। आपके प्रताप से मैंने इसे दस गुना कर दिया है। आपने मेरी मॉं का सम्मान करते हुए मुझे राज्य दे दिया। वह राज्य जैसे आपने मुझे दिया था, मैं आपको लौटा रहा हूँ। अत्यन्त बलशाली बैल जिस बोझ को अकेला ढोता है उसको बछड़ा नहीं उठा सकता। उसी तरह मैं इस भारी राज्यभार को नहीं उठा सकता। जब तक यह नक्षत्र मण्डल गतिशील है और जब तक पृथ्वी स्थित है, तब तक आप इस संसार के स्वामी बने रहें।''
भरत के आग्रह को मानकर राजा उस सुन्दर आसन पर वहीं नन्दिग्राम में बैठ गए। यह विधिपूर्वक राज्याभिषेक या राज्यग्रहण नहीं है। दो भाइयों में आपस का पारिवारिक सद्भावनापूर्ण शिष्टाचार था।
श्रीराम रथारूढ़ होकर अयोध्या को चले। उस समय भरत ने सारथि बनकर घोड़ों की लगाम अपने हाथों में पकड़ी हुई थी। शत्रुघ्न छत्र और लक्ष्मण उनके सिर पर चमकता हुआ चंवर डुला रहे थे।
रास्ते में राम मन्त्रियों को सुग्रीव व विभीषण की मित्रता, वानरों का बल व हनुमान का प्रभाव बताते रहे। अयोध्या पहुंचकर स्वयं उन्होंने अपने पिता के भवन में प्रवेश किया। तदनन्तर महातेजस्वी भरत ने सुग्रीव से कहा- ""प्रभो! भगवान् श्रीराम के अभिषेकार्थ जल लाने के लिए आप अपने दूतों को आज्ञा दीजिए।'' सुग्रीव ने तदनुसार श्रेष्ठ वानरों को सब प्रकार के रत्नों से विभूषित घड़े देकर समुद्रों व पवित्र नदियों से जल लाने के लिए भेज दिया। वानरों द्वारा लाए हुए उस जल को देखकर मन्त्रियों सहित शत्रुघ्न ने वह सारा जल श्रीराम के अभिषेक के लिए पुरोहित वसिष्ठ जी व सुहृदों को समर्पित कर दिया। तदनन्तर सीता सहित श्रीराम को रत्नमयी चौकी पर बैठाकर अभिषेक किया गया और श्रीराम औपचारिक रूप से अयोध्या के राजा बनकर राजकार्य करने लगे।
इस राज्याभिषेक की तिथि का वाल्मीकि रामायण में उल्लेख नहीं मिलता। कृष्णपक्ष चल रहा था। अनुमान से प्रतीत होता है कि यह शुभ कार्य अमावस्या के श्रेष्ठ दिवस पर सम्पन्न हुआ होगा। अयोध्या उल्लास व हर्ष से परिपूर्ण थी। रंग-बिरंगी पताकायें लगाई गईं और घर-घर में दीपमालायें भी जलाई गईं। बहुत सम्भव है कि श्रीराम के राज्यकाल में प्रतिवर्ष यह वार्षिक उत्सव बन गया हो और तदुपरान्त प्रथारूपेण अब तक यह प्रथा प्रचलित है। -सुनहरीलाल छिब्बर, दिव्य युग अक्टूबर 2011 इन्दौर, Divya yug October 20011 Indore
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