भारत एक प्राचीन देश है और इसका एक राष्ट्र के रूप में विकास ऋग्वेद के काल से चालू है। वैदिक काल में जब वैदिक आर्य संस्कृति का क्षेत्र वर्तमान पंजाब-कश्मीर और पूर्वी अफगानिस्तान तक सीमित था, यह ब्रह्मावर्त कहलाता था। जब इस संस्कृति का प्रसार सारे उत्तर भारत में हो गया तो हिमालय और विन्ध्याचल के बीच का सारा भूभाग आर्यावर्त कहलाने लगा। जब आर्य संस्कृति का विस्तार हुआ और कश्मीर से कन्याकुमारी तक का सारा भूखण्ड इसके प्रभाव क्षेत्र में आ गया तो इसे "भारत" की संज्ञा दी गई। "भारत" नाम एक राजनैतिक नाम है। परम्परा के अनुसार इस नाम के राजा ने पहले-पहल कश्मीर से कन्याकुमारी तक के सारे भूखण्ड को जो सांस्कृतिक दृष्टि से एक हो चुका था, राजनीतिक दृष्टि से एक सूत्र में बान्धा। विष्णु पुराण के अनुसार भारत वह देश है, जो समुद्र के उत्तर में है और हिमालय के दक्षिण में है और जिसमें भारत की सन्तानें रहती हैं।
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रै चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र सन्तति।।
असंख्य वर्षों तक हमारा देश इसी नाम से जाना जाता रहा है। और यहॉं के लोग अपने आपको भारतीय कहने में गौरान्वित अनुभव करते रहे।
लगभग 25 सौ वर्ष पूर्व ईरान के सम्राट सीरस और डेरियस ने अपने साम्राज्य का विस्तार भारत की सीमा तक किया। पश्चिम से आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए भारत का सबसे पहले चकाचौन्ध करने वाला दृश्य विशाल सिन्धु नदी का हिमालय से हिन्दमहासागर की ओर प्रवाह है। फाससी भाषा में देवनागरी लिपि के "स" का उच्चारण "ह" हो जाता है। इसलिए उन्होंने सिन्धु का उच्चारण "हिन्दू" किया और सिन्धु नदी के देश को हिन्दुस्तान और यहॉं के लोगों को हिन्दू कहना शुरू किया।
एक शताब्दी बाद ईरान को विजय करके यूनान का शासक सिकन्दर एक बड़ी सेना लेकर भारत की ओर बढा । यूनानियों को भी सिन्धु नदी के दृश्य ने चकाचौन्ध किया। उन्होंने इसका उच्चारण "इण्डस" किया और इस नदी वाले देश के लोगों को "इण्डियन" की संज्ञा दी। इस प्रकार भारत के लिए हिन्दुस्थान और इंडिया तथा भारतीय लोगों के लिए "हिन्दू" और "इंडियन" नामों का प्रयोग शुरू हुआ। इन दोनों नामों का आधार भौगोलिक है। कालातीत में यूनानियों द्वारा भारत का ज्ञान प्राप्त करने वाले योरोपीय देशों और भाषाओं में भारत और भारतीयों के लिए "इंडिया" और "इंडियन" शब्द प्रचलित हो गए और ईरान तथा इसके आस-पास के पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और इससे आगे बढकर चीन तक भारत और भारतीयों के लिए "हिन्दू" और हिन्दुस्थान नामों का प्रयोग होने लगा। आज भी चीन, जापान इत्यादि पूर्वी देशों में भारतीयों को "हिन्दू" अथवा "इन्दू" कहकर पुकारा जाता है।
भारत में इन पर्यायवाची नामों का प्रयोग पहले पहल मुसलिम तुर्क और योरोपियन आक्रान्ताओं के भारत में आने के बाद ही शुरु हुआ। भारतीय साहित्य में "हिन्दू" शब्द पहले पहल चन्दरवरदायी ने अपनी विख्यात पुस्तक "पृथ्वीराज रासो" में किया है। तरावड़ी के युद्ध में मोहम्मद गौरी और उसकी सेना की पराजय का वर्णन करते हुए उसने "हिन्दुआन" के घरों में उल्लास और तुरकान के भागने का उल्लेख किया है। स्पष्ट है कि "हिन्दुआन" शब्द सारे भारतीयों के लिए और तुरकान मुसलमान आक्रान्ताओं के लिए प्रयोग किया गया है। क्योंकि भारत में जो पहले पहल मुसलमान आये वे तुर्क थे, इसलिये सभी मुसलमानों के लिए "तुर्क" शब्द प्रयोग होने लगा। आज भी राजस्थान आदि भारत के कई भागों में मुसलमानों को तुर्क अथवा तुर्कड़ा ही कहा जाता है।
12 वीं शताब्दी के अन्त में उत्तर भारत में मुसलमान तुर्कों का राज्य स्थापित हो जाने के बाद भारत के सम्बन्ध में तुर्की और फारसी भाषा में लिखे गये साहित्य में "हिन्दुस्थान" और "हिन्दू" शब्दों का ही प्रयोग होने लगा और भारतीयों ने भी अपने लिए इस नाम को स्वीकार कर लिया। भारत में अंग्रेजों के आने तक यही नाम व्यापक रूप में स्वीकृत हो चुके थे। भारतीय राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद पर्यायवाची शब्द बन चुके थे और विदेशी मुस्लिम शासकों के विरुद्ध चलने वाले स्वतन्त्रता संग्रामों का उद्देश्य भारत में विदेशी शासन को निकालकर हिन्दुओं का प्रभुत्व कायम करना हो गया था। यही कारण है कि मुगल अकबर के साथ सारी उम्र लोहा लेने वाले भारत के महान राष्ट्रवादी नेता महाराणा प्रताप हिन्दूपत अथवा हिन्दुओं की आन कहलाये और मुगल औरंगजेब से लोहा लेने वाले छत्रपति शिवाजी द्वारा स्थापित स्वराज्य हिन्दू राज्य अथवा हिन्दू पद पातशाही कहलाया। गुरु गोविन्दसिंह के नेतृत्त्व मेंे उनके द्वारा निर्मित खालसा पन्थ का मुगल शासकों के विरुद्ध संघर्ष भी हिन्दू धर्म अर्थात जीवन पद्धति और संस्कृति की रक्षार्थ किया गया संघर्ष ही था। गुरु गोविन्दसिंह ने "हिन्दू" शब्द की व्यापकता और हिन्दुस्थान में विद्यमान अनेक पन्थों और सम्प्रदायों से उसको विख्यात करने के लिए निम्न पद लिखा-
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे।
जगे धर्म हिन्दू सकल भंड भाजे।।
भारत में अंग्रेजी राज्य स्थापित होने और अंग्रेजी साहित्य के प्रचार और प्रसार के बाद भारत अथवा हिन्दुस्थान के लिए इंडिया और भारतीय अथवा हिन्दू के स्थान पर "इंडियन" शब्द का अधिकाधिक प्रयोग होने लगा। तो भी पश्चिम के अधिकांश देशों में सभी भारतीयों के लिए "हिन्दू" शब्द का प्रयोग भी होता रहा। प्रथम महायुद्ध के बाद लारेंस आफ अरेबिया द्वारा लिखी गई विख्यात पुस्तक "सेवन पिलर्ज आफ बिजडम" में मुसलमानों के तीर्थ स्थल मक्का का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि उसमें अधिसंख्य अरब, तुर्क और हिन्दू लोग बसते हैं। स्पष्ट है कि उस समय अरब में भारतीय मुसलमानों को हिन्दू कहा जाता था।
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने भारतीय मुसलमानों को शेष भारतीयों अथवा हिन्दुओं से अलग करने की और उन्हें अपने राज्य का समर्थक बनाने की योजना बनाई। इसलिए उन्होंने भारतीय मुसलमानों को शेष हिन्दुओं से अलग करने के लिए "हिन्दू" शब्द का प्रयोग सम्प्रदाय के रूप में करना शुरु किया। यह उनकी "फूट डालो और राज करो" की व्यापक योजना का अंग था। इस प्रकार "हिन्दू" शब्द को इसके व्यापक राष्ट्रीय अर्थ से दूर करके इसे एक संकीर्ण साम्प्रदायिक अर्थ दिया जाने लगा।
दुर्भाग्य से भारत के कुछ अंग्रेजी पढे-लिखे हिन्दू अंग्रेजों की इस चाल का शिकार हो गए और उन्होंने भी इस शब्द को संकीर्ण अर्थ देना शुूरू कर दिया। परन्तु भारत के स्वर्गीय राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन को इस बात को श्रेय जाता है कि उन्होंने अधिकृत ढंग से इस भूल का सुधार किया और अपनी विख्यात पुस्तक "हिन्दू व्यू आफ लाइफ" में स्पष्ट लिखा कि हिन्दू धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं अपितु एक जीवन पद्धति है और अनेक सम्प्रदायों का समूह है। इस जीवन पद्धति और धर्म के मूल तत्वों का विवेचन भी उन्होंने बड़े सुन्दर ढंग से किया है। मोटे रूप में जो कोई व्यक्ति भारत अथवा हिन्दुस्तान को अपनी मातृभूमि मानता है और इसकी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और महापुरुषों में गौरव रखता है वह हिन्दू है, चाहे उसकी पूजाविधि कुछ भी हो। सैद्धान्तिक दृष्टि से इस जीवन पद्धति और संस्कृति की दो मुख्य विशेषताएं हैं- एक है कर्म के सिद्धान्त में विश्वास और दूसरा आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म में विश्वास। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का आधार वैज्ञानिक है। इसलिए आज अन्य देशों के लोग भी इन सिद्धान्तों को स्वीकार करने लगे हैं। परन्तु हिन्दू होने के लिए इन सिद्धान्तों की अपेक्षा हिन्दुस्तान अथवा भारत के प्रति आस्था और इसकी संस्कृति तथा परम्परा से एकरूपता का महत्त्व अधिक है।
जब अंग्रेजों ने भारत में ब्रिटिश माडल की चुनाव पद्धति और चुनी हुई संस्थाओं का प्रचलन शुरु किया तब पृथकतावादी नीतियों के शिकार मुसलमानों के नेताओं को यह लगने लगा कि बहु संख्या के आधार पर देर या सवेर हिन्दुत्व का प्रभुत्व कायम हो जायगा। अंग्रेज शासकों ने उनमें यह भावना बढाने और इसका लाभ उठाने का योजनाबद्ध प्रयत्न शुरू किया। उच्च वर्ग और विदेशी उद्गम के मुसलमानों की भावना को उर्दू कवि हाली ने इन शब्दों में न्यक्त किया है-
रुख्सत ए हिन्दुस्तां ए गुलिस्तां बेखिजां।
बहुत दिन रह चुके हम तेरे विदेशी मेहमां।।
इस पद से यह स्पष्ट है कि ऐसे मुसलमान भारत में अपने आप को विदेशी ही मानते थे और किसी राष्ट्रीय हिन्दू सरकार के मातहत रहने की अपेक्षा भारत को छोड़ जाने और किसी इस्लामी देश में बस जाने की बात सोचने लगे थे। 1906 में ब्रिटिश सरकार द्वारा मुसलमानों के लिए अलग मतदान का सिद्धान्त स्वीकार करके इस अलगाव की भावना को बल और स्थायित्व प्रदान किया गया।
यदि भारत का राष्ट्रीय हिन्दू समाज संगठित और सुदृढ होता और उसके पास अच्छा नेतृत्त्व होता तो वह अंग्रेज और पृथकतावादी मुसलमानों की चाल को विफल कर सकते थे और साधारण मुसलमानों को वे हिन्दू पूर्वजों की ही औलाद हैं, इस आधार पर राष्ट्रीय धारा में ला सकते थे। परन्तु दुर्भाग्य से हिन्दू समाज असंगठित था और इसका नेतृत्त्व मोहनदास करमचन्द गान्धी जैसे व्यक्ति के हाथ में आ गया जिन्हें न मुस्लिम इतिहास का और न मुस्लिम पृथकतावादी और असहिष्णुता के कुरानी आधार का ज्ञान था। उन्होंने मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली द्वारा चलाये गए खिलाफत आन्दोलन का समर्थन करके मुसलमानों में राष्ट्र-विरोधी भावना और राष्ट्रबाह्य आस्था उत्पन्न करने में सक्रिय योग दिया। बार-बार यह कहकर कि सम्प्रदायवादी और राष्ट्रविरोधी मुस्लिम लीग के समर्थन के बिना भारत स्वतन्त्र नहीं हो सकता। इससे राष्ट्रीय हिन्दू समाज में हीन भावना पैदा हुई अंग्रेजों की "फूट डालो, राज करो" की नीति को बल मिला। मौलाना आजाद जैसे कांग्रेस के कुछ मुसलमान नेताओं ने भी गान्धी जी और कांग्रेस को राष्ट्रवादी पथ से भटकाने में महत्वपूर्ण भूमिका उदा की।
इस स्थिति का परिणाम था मुसलमानों का अलग राष्ट्र होने का दावा और इसके आधार पर देश के बंटवारे की मांग। मौलाना आजाद के शब्दों में, "पाकिस्तान सहित सारे भारत में 95 प्रतिशत मुसलमान ऐसे हैं जो हिन्दुओं की सन्तान हैं।" वे विदेशी नहीं हैं, परन्तु मजहब बदलने पर उनकी आस्थाऐं भी बदलने लगीं और अपने देश में ही वे विदेशियों जैसा आचरण करने लगे। इस गलत नेतृत्व के कारण भारतीय अथवा हिन्दू राष्ट्र की विफलता यह रही कि इसने ऐसे मुसलमानों के भारतीयकरण और उन्हें राष्ट्रीय धारा में लाने का योजनाबद्ध प्रयत्न करने के बजाय उनके तुष्टीकरण की नीति अपनाई। स्पष्ट है कि अंग्रेज उनकी पृथकता की भावना को तुष्ट करने के लिए अधिक बोली लगा सकता था। इस प्रकार कांग्रेस ने उनका जितना तुष्टीकरण किया, उतनी ही उनकी अलगाव की भावना बढी और स्थिति "मर्ज बढता गया ज्यों-ज्यों दवा की" के अनुरूप खराब होती गई।
अंग्रेज शासकों को सन्देह था कि स्वतन्त्रता के बाद कांग्रेसी नेता भारत को ब्रिटेन के विरोध में खड़ा कर देंगे। इसलिए अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए भी उन्होंने भारत के बंटवारे की मांग का समर्थन करना शुरु कर दिया।
1946 के आम चुनाव अखण्ड भारत अथवा विभाजन के प्रश्न पर लड़े गये। मुस्लिम लीग विभाजन की पक्षधर थी और कांग्रेस तथा हिन्दू सभा ने मिलकर अखण्ड भारत का नारा लगाया। श्री अशोक मेहता की पुस्तक "पालिटीकल माइण्ड आफ इण्डिया" के अनुसार सारे भारत के 93 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने उस चुनाव में पाकिस्तान और मुस्लिम लीग के पक्ष में अपना मत दिया। जिन 7 प्रतिशत मुसलमानों ने इसके विरोध में मत दिया, उनमें से अधिकांश सीमाप्रान्त के पठान और कुछ सिन्ध और पश्चिमी पंजाब के मुसलमान थे। इस प्रकार आज के खण्डित भारत के लगभग शत प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में मत दिया था। इस चुनाव के बाद भारत का विभाजन लगभग सुनिश्चित हो गया। उस समय भारत के महान राष्ट्रवादी नेता और विचारक डा. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी विख्यात पुस्तक "थाट्स आन पाकिस्तान" में स्पष्ट शब्दों में लिखा कि "हिन्दू मुसलमान के आधार पर भारत के विभाजन का तर्कसंगत दूसरा अंग आबादी की अदला बदली है।" उन्होंने यह भी लिखा कि "पाकिस्तान बनने और वहॉं पर इस्लामी राज्य कायम होने के बाद वहॉं कोई हिन्दू नहीं रह सकेगा।" इसलिए उन्होंने इस पुस्तक में ही भारत में बचे सभी हिन्दुओं को भारत लाने की विस्तृत योजना भी पेश की।
15 अगस्त 1958 को हिन्दू मुसलमान के आधार पर बंटवारा हो गया। हिन्दू और मुसलमान के आधार पर न केवल भारत की धरती बांटी गई अपितु भारत की सेनाएं, सरकारी कर्मचारी और यहॉं तक कि जेलों के कैदी भी बांटे गए। कांग्रेस और कम्यूनिस्ट पार्टी के जिन नेताओं ने इस प्रकार के विभाजन का समर्थन किया और इसे स्वीकार किया उन्होंने उसी समय प्रत्यक्ष या परोक्ष में यह भी स्वीकार कर लिया कि पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र है और शेष भारत हिन्दू राष्ट्र है। हिन्दू मुसलमान के आधार पर देश का बंटवारा स्वीकार करने वालों द्वारा खण्डित भारत को हिन्दू राष्ट्र कहने अथवा मानने से इनकार करना राजनीतिक बदनियति की पराकाष्ठा है।
हिन्दू राष्ट्र की कल्पना की पाकिस्तान में स्थापित मुस्लिम मजहबी राज्य अथवा अन्य मजहबी राज्यों से तुलना करना इतिहास और वास्तविकता से आंखें मून्दना है। हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू राज्य न कभी मजहबी राज्य था और न हो सकता है। मजहबी राज्य की कल्पना ही भारतीय संस्कृति और परम्परा के विपरीत है। भारतीय हिन्दू संस्कृति सर्वपन्थ समभाव का प्रतिपादन करती है । इसलिए हिन्दू राष्ट्र में हर सम्प्रदाय और पूजाविधि के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार हुआ है और होगा। यह इसी बात का प्रमाण है कि जहॉं एक ओर पाकिस्तान में बचे लगभग सभी हिन्दू मार दिये गये, निकाल दिये गये या उनका धर्म परिवर्तन कर लिया गया है, वहीं भारत में बचे 3 करोड़ मुसलमानों की संख्या पिछले 30 वर्षों में (सन् 1979 में) दोगुनी से भी अधिक हो गई है। (वर्ष 2011 की जनगणना 1.20 अरब की जनसंख्या में 15 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या है। अर्थात वर्तमान भारत में वर्ष 2014 में मुस्लिम जनसंख्या 18 करोड़ से अधिक हो चुकी है। -सम्पादक) वास्तव में भारत का हिन्दू राष्ट्र होना ही इस बात की गारण्टी है कि यहॉं पर मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यक सुरक्षित रहेंगे तथा उनके साथ समानता का व्यवहार होगा। परन्तु उन्हें संसार के अन्य देशों के अल्पसंख्यकों की तरह भारत के राष्ट्रजीवन के साथ एकरूप होना होगा। तथाकथित सेकुलरिज्म के नाम पर उनके द्वारा विशेष अधिकार मॉंगना या उन्हें विशेष अधिकार देना, राष्ट्रवाद के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध है।
दुर्भाग्य से सरदार पटेल के निधन के बाद भारत में बनी केन्द्रीय सरकारों और दलों ने दलगत राजनीतिक स्वार्थों के लिए फिर से मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीति अपनाई है। इसके फलस्वरूप भारत में रहने वाले मुसलमान फिर उसी प्रकार की गतिविधियॉं करने लगे हैं जैसी कि वे 1947 से पहले करते थे। अब उन्हें न केवल पाकिस्तान और बंगला देश के इस्लामी राज्यों का पृष्ठपोषण प्राप्त है अपितु भारत भूखण्ड के बाहर के इस्लामिक राज्यों, जिनके पास तेल के कारण अथाह धन इकट्ठा हो गया है- का भी प्रभावी समर्थन मिल रहा है। गत समय से भारत में बढती मुस्लिम मतान्धता और साम्प्रदायिक दंगे इसी का परिणाम हैं।
अब स्थिति यह बन चुकी है कि भारत या तो हिन्दूराष्ट्र के रूप में जियेगा अथवा यह भी शीघ्र पाकिस्तान की तरह इस्लामी राष्ट्र बन जायेगा। पाकिस्तान की मांग करने वालों का नारा "हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान" उनके इरादों का परिचायक है। इसलिए भारत के सभी राष्ट्रवादियों का यह प्रथम कर्त्तव्य है कि वे भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने को सर्वाधिक प्राथमिकता दें।
हिन्दूराष्ट्र की कल्पना सांस्कृतिक भी है और राजनीतिक भी। छत्रपति शिवाजी, वीर सावरकर, महामना मालवीय, डाक्टर हेडगेवार और डा. मुखर्जी ने इसके सांस्कृतिक और राजनीतिक दोनों पक्षों पर बल दिया था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संध की प्रार्थना में भारत के लिए "हिन्दूराष्ट्र" का प्रयोग इसी आधार पर किया गया है। भारतीय जनसंघ के प्रथम घोषणापत्र में भी भारत के हिन्दूराष्ट्र होने की बात कही गई थी। यह ठीक है कि मूलत: हिन्दू राष्ट्र और भारतीय राष्ट्र पर्यायवाची शब्द हैं, परन्तु जिस प्रकार अब इन दोनों में भेद किया जा रहा है और भारत में बचे पाकिस्तान के पक्षधर मुसलमानों में यह भावना पैदा की जा रही है कि पाकिस्तान बन जाने के बाद भी वे खण्डित भारत में अपना विभाजन पूर्व का खेल, खेल सकते हैं और इसे भी पाकिस्तान की तरह इस्लामी राज्य बनाने का विचार ही नहीं अपितु उसे कार्यरूप दे सकते हैं। इससे भारत को आग्रहपूर्वक हिन्दू राष्ट्र घोषित करना भारत और इसके प्राचीन हिन्दू समाज के सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्तित्व के लिए अनिवार्य हो गया है। अत: यह आवश्यक है कि सभी राष्ट्रवादी चाहे उनका सम्बन्ध किसी भी राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक संस्था से क्यों न हो, हिम्मत के साथ भारत के हिन्दू राष्ट्र होने की बात कहें और जो लोग इसका विरोध करते हैं उन्हें भारत के राजनैतिक क्षेत्र से खदेड़ने का योजनाबद्ध प्रयत्न करें। इस मामले में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और आर्यसमाज के बन्धुओं को शेष समाज के अगुआ का काम करना होगा। यदि इनके नेता भी अस्थायी व्यक्तिगत अथवा दलगत स्वार्थों के लिए हिन्दू राष्ट्र के पथ से भटक गये तो यह भारत का महान दुर्भाग्य, भारत के पूर्वजों से अन्याय और भावी सन्तानों के साथ द्रोह होगा। -प्रो. बलराज मधोक (वैचारिक विकल्प, 15 अगस्त 1979)
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