भारतवर्ष विश्वगुरु के पद पर आसीन रहा है। समस्त विदेशी शक्तियॉं भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करने के पश्चात् भी सफल नहीं हो पाईं अपितु स्वयं ही उसमें रच-पच गई। इसका मूल कारण हमारे पूर्वज ऋषियों द्वारा दिया गया मानवता का सन्देश है। यह सन्देश वेदों और उपनिषदों के माध्यम से आज भी इस धर्म भूमि में मानवता के उत्कृष्ट आदर्शों की स्थापना करके पाश्चात्य देशों को अपनी ओर निहारने के लिये बाध्य कर रहा है। इसी के कारण हमारा अस्तित्व है:-
यूनान मिश्र रोमां सब मिट गए जहॉं से,
बाकी मगर है अब तक नामो निशॉं हमारा।
भारतीय तत्त्वज्ञान की अपार राशि उपनिषदों में मानवीय मूल्यों को सतत जीवन्त रखा गया है। तत्त्वज्ञान तो है ही मानव हितार्थ। तत्त्वज्ञान की प्रधानता के कारण उपनिषदों को पलायनवादी व नैराश्यवादी तक कह डाला गया है। किन्तु यह धारणा उपनिषदों के गहन अध्ययन के पश्चात् निर्मूल सिद्ध होती है । क्योंकि उपनिषदें तो शत वर्षों तक कर्म करते हुए जीने का सन्देश देती हैं। तत्त्वज्ञान प्राप्त कोई भी व्यक्ति "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के भाव को प्राप्त होने के पश्चात् क्या किसी का अनिष्ट कर सकता है? करना तो दूर वह सोच भी नहीं सकता। पुरुष जैसी प्रभु की सर्वोत्कृष्ट रचना के साथ अशुभाचरण करने से क्या उसके प्रभु के प्रति यह अशुभाचरण नहीं होगा? कोई अपने प्रभु के साथ कैसे अशुभाचरण करेगा? प्रभु तो मनुष्य में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर स्थित हो गये है। अत: यह शरीर तो प्रभु का निवास होेने के कारण पवित्र और रक्षणीय हो गया है। अत: प्रभु-प्राप्ति का तो यह साधन समझना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर से आसक्त हो जाए। शरीर को नाशवान् समझ कर तत्त्ववेत्ता इसमें आसक्त नहीं होता।
इसी कारण उपनिषदों में लौकिक अभ्युदय एवं पारलौकिक नि:श्रेयस दोनों को ही समान रूप से प्राप्तव्य कहा गया है। दोनों ही मनुष्य के लिए उपयोगी हैं। किन्तु नि:श्रेयस ही कल्याणकारी है। प्रेय सहज प्रिय है, आकर्षक हैं, अत: उस मार्ग पर जाना स्वाभाविक है। किन्तु श्रेयमार्ग पर चलना तो असिधार व्रत के समान दुष्कर कहा गया है। उपनिषदों में बार-बार प्रयत्नपूर्वक वासनासरित् को शुभ मार्ग पर चलाने का आदेश किया गया है। किन्तु तत्त्वज्ञान के बिना यह सम्भव नहीं है। तत्त्वज्ञान के लिए विद्या और अविद्या के स्वरूप को जानना आवश्यक है, तभी वह मृत्यु को पार करके अमरत्व को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा अन्धे द्वारा अन्धों को भटकाने के सदृश विनाश को प्राप्त होगा। अत: उपनिषदों में श्रेय व प्रेय दोनों मार्गों के महत्व को प्रतिपादित करके मानव के कल्याण का मार्ग प्रस्तुत किया गया है।
उपनिषदों ने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि यह सम्पूर्ण जगत् प्रभु से ओत-प्रोत है। अत: उसमें जो भी कुछ है, वह उसी का है। उसका त्यागपूर्वक भोग करो, ममत्व बुद्धि न रखो व लालच मत करो। दूसरों की सम्पत्ति को लेने से जो विद्वेष की भावना उत्पन्न होती है, वह संसार में अशान्ति का कारण है। दूसरों की सम्पत्ति हड़पने के कारण घर, गांव, शहर, प्रदेश, देश और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विवाद होते हैं। विश्व युद्ध इसी की देन है।
यदि मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे के सिद्धान्तानुसार कार्य किया जाए तथा सबको अपने सदृश समझें तो निश्चय ही विवाद की स्थिति नहीं आएगी। परस्पर घृणा व विद्वेष नहीं होगा। जब किसी में भेद नहीं होगा तो फिर किससे मोह और किससे द्वेष? यह तो अविद्या के कारण है। यदि अविद्या की ग्रन्थि नष्ट हो गई तो सबमें साम्यभाव आ जाता है और मनुष्य आत्मरति, आत्मक्रीड, आत्ममिथुन और आत्मानन्द की स्थिति प्राप्त कर लेता है। वह सर्प की केंचुली के सदृश इस शरीर की चिन्ता नहीं करता। अत: शरीर की सुख-सुविधा हेतु किसी को भी पीड़ा न पहुंचाने की भावना आ जाती है। स्वयं कष्ट सहकर भी वह दूसरों के कष्ट हरने का प्रयास करता है। अहिंसा का भाव प्रतिष्ठित होने के कारण उसमें वैरभाव का पूर्णतया निरोध हो जाता है। अहिंसादि यमों तथा शौचादि नियमों का पालन करते हुए वह विश्वबन्धुत्व की भावना से ओत-प्रोत हो जाता है। मिलकर चलने, बोलने, समान विचार और समान हृदय होने की घोषणा के अनुरूप उसका चरित्र हो जाता है।
उपनिषदों में सत्य, तप, श्रद्धा, दान, आर्जव, अहिंसादि को मानव जीवन के लिए अत्यन्तावश्यक बताया गया है। केनोपनिषद् में तप, दम व कर्म को ब्रह्म जिज्ञासु के लिए अनिवार्य बताया है। सत्यं वद तथा सत्यमेव जयते आदि उपदेशों का उद्देश्य सत्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना है। अनृतवादी का वंश नाश होता है, यह चेतावनी देकर सत्य की महत्ता का प्रतिपादन किया है। बृहदारण्यकोपनिषद् तो लोकोपकारार्थं दम, दान और दया के सिद्धान्त को अपनाने की प्रेरणा देता है।
उपनिषदों की यह डिण्डिम घोषणा है कि पुण्य कर्मों से पुण्यलोक तथा अशुभ कर्मों से अशुभ लोक की प्राप्ति होती है। अत: शुभ कर्म करके शुभ लोक की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। शुभ कर्मों का मापदण्ड क्या है? जो कर्म किसी को क ष्ट न पहुंचाएं वे शुभ कर्म हैं। यदि परस्पर ऐसा व्यवहार किया जाएगा तो निश्चित रूपेण मानवता को किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा। समस्त पृथिवी से दु:खों का नाश हो जाएगा। संसार विश्वबन्धुत्व की भावना में बन्ध जाएगा। सुख-समृद्धि से पूर्ण होकर यह विश्व सही रूप में मानवता का मूल्यांकन कर सकेगा। फिर भला प्रतिदिन सुनाई पड़ने वाली भीषण युद्धों की स्थिति कैसे आ पाएगी? मानवता के उपनिषदों में अनुस्यूत यही सिद्धान्त आज हमें युद्ध की विभीषिका से बचा सकते हैं। हथियारों की होड़ में दौड़ रहा यह विश्व इन सिद्धान्तों का पालन करके भयावह त्रासदी के चंगुल से मुक्त हो सकता है।
आज आवश्यकता है इस बात की है कि मनुष्य केवल स्वार्थों की पूर्ति को त्यागकर इन सिद्धान्तों के उच्चादर्शों की स्थापना करें। इन भयानक क्षणों में उपनिषद् हमें अत्मघाती प्रवृत्ति को त्याग कर जीने की प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं। यही कारण है कि आज भी पाश्चात्य देश टकटकी बान्ध कर भारत की ओर निहार रहे हैं। हम भारतवासियों का यह कर्त्तव्य बनता है कि निज राष्ट्र का गौरव स्थापित करें। - आचार्य डॉ. संजयदेव
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
मर्यादा पालन से सुख होता है।
Ved Katha Pravachan -82 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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